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टीवी न्यूज़ की राम लीलाएं किस तरह सच्चाई से छेड़छाड़ कर रही हैं

हाल में हुए कुछ न्यूज़ डिबेट इस भ्रम को तोड़ते हैं कि न्यूज़ चैनलों का विश्लेषण निष्पक्ष और लोकतान्त्रिक होता है I
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चालीस साल या उससे अधिक आयु वाले उत्तर भारतीयों को मोहल्लों में होने वाली राम-लीला याद होंगी I बड़े शहरों की मोहल्ला सभाएँ और सामुदायिक समूह इन रामलीलाओं के लिए बड़े स्टेज और शानदार बंदोबस्त किया करते थे I इनके दर्शक खासकर बच्चे अपने प्रिय पात्रों के लिए जयकार लगाया करते थे I माता-पिता नाटकों के अंत में लोकप्रिय पात्रों को टिप दिया करते थे I

जिन अभिनताओं को राम, रावण, सीता और हनुमान के किरदार निभाने होते थे उन्हें बड़े-बड़े वाक्य याद करने पड़ते थे और इसी वजह से उन्हें स्टेज के पीछे से सकेतों के ज़रिये मदद मिलती रहती थीI लेकिन जबसे टेलीविज़न का उभार हुआ है ऐसा लगता है कि राम लीला की चमक कुछ फ़ीकी पड़ गयी है I टेलीविज़न ने एक नए सांस्कृतिक पटल (कलचरल स्पेस) को पैदा किया है I इसी वजह से मोहल्लों में बसने वाली त्यौहारों की संस्कृति को काफी धक्का लगा है I

आज की नयी राम-लीला वो महाकाव्यात्मक मंचन नहीं रहा जिसके खेले जाने के दौरान जब अभिनेता अपना संवाद भूल जाते थे तो परदे के पीछे मदद के लिए देखते थे I आज की नयी राम-लीला न्यूज़ स्टूडियोज़ में खेली जाती है, जहाँ एंकर सूट पहनकर और मेकअप लगाकर इयरफ़ोनों में आदेश लिया करते हैं I इनमें से कुछ एंकर लोगों की चेतना पर काफी गहरा प्रभाव डालते हैं I पर वो जितना भी स्वाभाविक लगें लाखों लोगों तक पहुँचने वाले उनके संवाद कहीं और से तैयार होकर आते हैं I जो बहसें और चर्चाएँ दिखने में लोकतान्त्रिक लगतीं हैं वो इनके मालिकों द्वारा इसने करवायी जाती हैं I विभिन्न घटनाओं, विचारों और आन्दोलनों को तोड़-मरोड़कर इस तरह पेश किया जाता है जिससे जो कहानी चैनल दर्शाना चाहे, वही दिखे I इस पूरी प्रक्रिया में वो लोगों की चेतना को अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब हो जाते हैं I

बड़े मीडिया घरानों ने बहसों को इस तरह का कर दिया है कि वो एक ही तरह के विचारों एक पक्ष में खड़े हुए दिखती हैं I इतिहासकार जिल लेओपोर के हिसाब से “ब्रॉडकास्टर मुनाफा कमाने वाली कंपनियाँ हैं जो कि एक अति प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में काम करती हैं, जहाँ रेटिंग्स सबसे ज़रूरी होती हैं I अपने कैंपेन के लिए वे बहस का मखौल बनाने से भी नहीं चूकते I हमें ये लगता है कि जो खबरें बयान करते हैं उन्हें समाचार बनाना नहीं चाहिएI”

हाल में हुए कुछ न्यूज़ डिबेट इस भ्रम को तोड़ते हैं कि न्यूज़ चैनलों का विश्लेषण निष्पक्ष और लोकतान्त्रिक होता है I सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा चीफ जस्टिस को लिखे गए ख़त को इस तरह दर्शाया गया जैसे ये एक देश विरोधी कार्य हो और जैसे ये एक तख्तापलट की कोशिश होI इस बात पर बहस की जा सकती है कि जजों को अपने गुस्से को किसी और तरीके से ज़ाहिर करना चाहिए था या नहीं, पर इस घटना को तख्तापलट की कोशिश कहना तर्क की सीमाओं के परे लगता है I जब पैनल में किसी ने दूसरा पक्ष रखने का प्रयास किया तो उनकी बात को बहुत जल्दी और चालाकी से दबा दिया गया I

इस नयी राम लीला में आप का स्वागत है I पुराने समय में जहाँ लोग सीटियाँ बजा सकते थे, जयकारे लगा सकते थे और किसी के ख़राब अभिनय की निंदा भी कर सकते थे, यहाँ न्यूज़रूमों में लोगों को एक ही तरह के मत को मानना पड़ता है, जिसे बहस होने से पहले ही तय कर लिया जाता है I पूर्वाग्रहों से ग्रसित एंकर लोगों के अनुभव को प्रभावित करते हैं जो फिर सच्चाई को इसी नज़रिए से देखते हैं I हालांकि उनकी सच्चाई अपने आप में एक मिथ्या हो सकती I

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