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तकनीकी परिवर्तन और दरिद्रता

तथ्य यह है कि तकनीकी परिवर्तन का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव संपत्ति संबंधों पर निर्भर करता है, जिसके भीतर ऐसा परिवर्तन होता है, लेकिन अक्सर इसे कुबूल नहीं किया जाता है।
टेक्नोलॉजी

तथ्य यह है कि तकनीकी परिवर्तन का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव संपत्ति संबंधों पर निर्भर करता है, जिसके भीतर ऐसा परिवर्तन होता है, लेकिन अक्सर इसकी कुबूल नहीं किया जाता।

आइये एक सरल उदाहरण पर विचार करें। मान लें कि एक निश्चित क्षेत्र में 5,000 रुपये की कुल लागत पर 100 मज़दूर फसल कटाई के लिए लगाए गए हैं; लेकिन पूंजीवादी-भूस्वामी मालिक  फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को मज़दूरी देने की बजाय मशीन का इस्तेमाल करने का फैसला करता है। तो इससे मज़दूरों की आय 5,000 रुपये कम हो जाती है। पूंजीपति-भूस्वामी मालिक की मज़दूरी की लागत 5,000 रुपये कम हो जाती है, जो उसके मुनाफे में एक अतिरिक्त वृद्धि के रूप में अर्जित होती है। लेकिन मान लीजिए अगर फ़सल काटने वाली मशीन को श्रमिकों के सामूहिक स्वामित्व में रखा जाता तो तब वे इसी काम के ज़रिए 5,000 रुपये अर्जित कर सकते थे, अब वे मज़दूर नहीं बल्कि हारवेस्टर के सामूहिक मालिक हैं; वे इसमें मज़दूरी-आय खो देंगे, और उसके बदले वे उसी मज़दूरी को लाभ आय के रूप में कमा लेंगे। उनकी कुल आय में कोई बदलाव नहीं होगा, लेकिन उनके आराम करने के ख़ाली समय में बढ़ोतरी होगी और उनके लिए काम की कवायद भी कम हो जाती।

हारवेस्टर (फसल काटने की मशीन) दोनों उदाहरणों में रहने वाले श्रमिकों को विस्थापित करती  हैं; लेकिन जो हारवेस्टर के मालिक हैं, इसका उपयोग करने के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों में महत्वपूर्ण अंतर है। जीवित श्रम के लिए मृत श्रम का प्रतिस्थापन, जो इस प्रकार के तकनीकी परिवर्तन पर जोर देता है, को पूंजीवादी-भूस्वामी मालिक के तत्वावधान में मजदूरों को कमजोर करने पर प्रभाव डालता है; लेकिन मजदूरों की मजदूरी से उनकी कमाई के बिना मजदूरों को मुक्त करने पर भी प्रभाव डालता है, यह तब सामूहिक मजदूरों के तत्वावधान होता है, जो "काम-साझाकरण, उत्पाद-साझाकरण" नीति के तहत काम करते हैं।

उपरोक्त उदाहरण एक सूक्ष्म आर्थिक प्रकार का था। लेकिन जब हम एक व्यापक आर्थिक परिप्रेक्ष्य अपनाते हैं, अर्थात्, जब हम पूँजीवाद के तहत तकनीकी परिवर्तन की और साम्यवाद के तहत तकनीकी परिवर्तन की तुलना करते हैं, जो "काम-साझाकरण, उत्पाद-साझाकरण" व्यवस्था में पूर्णता की एक प्रणाली है।

मान लीजिए श्रम उत्पादकता एक पूंजीवादी सेटिंग के भीतर एक विशेष तकनीकी परिवर्तन की शुरुआत के माध्यम से दोगुना हो गई है। इससे पहले, 100 श्रमिकों को उत्पादन के लिए 100 इकाइयों का उत्पादन करने के लिए नियुक्त किया गया था, जिनमें से 50 मजदूरी के रूप में उनके पास आए और 50 मुनाफे के रूप में पूंजीपतियों के पास गए। लेकिन अब केवल 50 श्रमिकों को ही उत्पादन की 100 इकाइयों का उत्पादन करना आवश्यक है; शेष 50 इसलिए बेरोजगार बन जाएंगे। और इस तरह बेरोजगारी की वजह से, कार्यरत रहने वाले श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी दर उत्पादकता में बढ़ोतरी की दर के बराबर संभवतः नहीं बढ़ सकती है; वास्तव में,  अगर कुछ घटित होता है, तो हमें सादगी के साथ यह मान लें कि यह अपरिवर्तित रहेगा। इसलिए श्रम उत्पादकता के दुगना होने के बावजूद मजदूरों की मजदूरी 50 से 25 तक नीचे आएगी और पूंजीपतियों का अतिरिक्त मूल्य 50 से 75 तक बढ़ेगा।

"मजदूरी से मुनाफे में बदलाव" कुल मांग की समस्या को पैदा करेगा (क्योंकि मजदूरी का एक बड़ा हिस्सा लाभ की तुलना में लिया जा रहा है), जिसके कारण 75 का पूरा उत्पादित अतिरिक्त मूल्य का "एहसास" नहीं हो सकता। ऐसे मामले में "अति-उत्पादन" का संकट होगा और यहां तक कि 100 का उत्पादन भी अब नहीं किया जाएगा। इसके फलस्वरूप बड़ी बेरोज़गारी बढ़ेगी, अर्थात् तकनीकी परिवर्तन के कारण अतिरिक्त बेरोजगारी सिर्फ 50 नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा बड़ी होगी।

इसके विपरीत, एक समाजवादी अर्थव्यवस्था के भीतर, कोई सवाल ही नहीं उठता कि इस तरह की स्थिति में अनायास ही कोई बेरोजगार रहेगा, जो बेरोजगार हैं, श्रम उत्पादकता के दोगुना  होने से यानी कुल उत्पादन 200 होगा और रोज़गार को 100 रखते हुए प्रत्येक मजदूर की आय भी दोगुना हो जायेगी (इसमें कोई शक नहीं होगा कि निश्चित अवधि के दौरान उपकरणों का स्टॉक भी दोगुना हो जाएगा);  या फिर इसके साथ प्रत्येक श्रमिक की श्रम-लागत को कम करते हुए, जो अब अधिक से अधिक अवकाश रख सकते हैं वह भी उसी आय के साथ; या दो के कुछ संयोजन को लाने के लिए, अर्थात्, बड़ी आय के लिए कुछ अन्य संयोजन को लाये जाए और जिससे बड़ी आय और श्रमिकों के लिए बड़ा अवकाश मिल सके।

पूंजीवाद के मामले में, हमारे पास प्रौद्योगिकीय परिवर्तन होता है जिससे पूर्ण दरिद्रता फैलती है (मजदूरों की आय में कुल 50 से 25 की कम हो जाती है), जबकि दूसरे मामले में समान तकनीकी बदलाव कामगारों की स्थिति में सुधार भी करता है। और यह दोनों प्रणालियों के काम के तर्क के कारण होता है, किसी खास द्वेष के कारण नहीं बल्कि एक दुसरे के विपरीत नहीं।

इन दिनों उत्पादन प्रक्रियाओं में होने वाली स्वचालन की वजह से बेरोजगारी पर चिंता व्यक्त करते हैं। इस तरह की चिंता पूरी तरह से पूंजीवाद के ढांचे के भीतर उचित है; लेकिन यह समाजवाद के तहत पूरी तरह से बेबुनियाद है। दरअसल, इस तरह का स्वचालन विशेष रूप से बड़ा शक्तिशाली कारण है कि मानव जाति को समाजवाद को गले लगा लेने चाहिए; अगर ऐसे स्वचालन के भयानक परिणामों से बचना है तो समाजवाद का कोई विकल्प नहीं है।

पूंजीवाद का तर्क न केवल उस तकनीकी परिवर्तन पर जोर देता है, जो आम तौर पर श्रम-विस्थापन के लिए है, बेरोजगारी और श्रमिकों के लिए दरिद्रता पैदा करने के प्रभाव का है, बल्कि यह भी कि इस तरह की तकनीकी परिवर्तन ऐसी दर पर होता है जिसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है और पूरी तरह पूँजी की प्रतिस्पर्धा बाजार के बीच होती है। और यह हमारी अपनी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण निहितार्थ है।

हम अक्सर राजनीतिक नेताओं और मंत्रियों को श्रम उत्पादकता को बढ़ाने के लिए देश को प्रोत्साहित करते हुए अक्सर सुनाते हैं ताकि वे विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धी में रह सकें। वे कुछ  हद तक सही हैं कि नव-उदारवादी पूंजीवाद के तहत, जहां अर्थव्यवस्था विदेशी प्रतियोगिता के लिए खुली है, अगर हम प्रतिस्पर्धी में नहीं तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। लेकिन वे यह  उल्लेख नहीं करते कि श्रम उत्पादकता की विकास की दर, जितनी अधिक होगी, फिर चाहे वह किसी उत्पादन वृद्धि की कोई भी दर हो, अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी और गरीबी का स्तर बढेगा। अगर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8 फीसदी है, तो श्रम उत्पादकता के विकास की 7 फीसदी की दर से एक प्रतिशत की दर से अर्थव्यवस्था में रोजगार बढ़ेगा, जबकि 5 फीसदी श्रमिक दर उत्पादकता में वृद्धि से प्रति वर्ष 3 प्रतिशत की दर से रोजगार में वृद्धि होगी।

यह सोचा जा सकता है कि यदि श्रम उत्पादकता तेजी से बढ़ी तो उत्पादन वृद्धि दर भी बढ़ेगी, ताकि रोजगार के अवसर पर कोई चिंता न करें; लेकिन उत्पादन में वृद्धि दर की सीमाएं भी हैं, और विशेष रूप से एक खुली अर्थव्यवस्था में जिसकी गतिशीलता शुद्ध निर्यात के विकास की दर पर निर्भर करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अन्य देश हाथ पर  हाथ रखकर बैठने नहीं जा रहे हैं कि वे चुपचाप बैठकर देखेंगे कि उनके बाज़ार को कोई विशेष रूप से तेजी से बढ़ती  अर्थव्यवस्था कब्ज़ा रही हैं। वे इस देश से निर्यात वृद्धि को प्रतिबंधित करने के लिए विभिन्न तरीकों अपनाएंगे और जो इसके समग्र विकास को प्रभावित करेगा।  

इसलिए यहां तक कि अगर उत्पादन वृद्धि दर अधिक होती है, तो यह विकास दर निश्चित सीमाओं के भीतर ही रहनी चाहिए। श्रम उत्पादकता की वृद्धि दर जो नव-उदार ब्रह्मांड में विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा की वजह से होती है, अक्सर यह सुनिश्चित करती है कि रोजगार के विकास की दर बेरोजगारी और दरिद्रता में वृद्धि को रोकने के लिए अपर्याप्त है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में के नव-उदारवाद के तहत अनुभव की तुलना और इस संदर्भ में राज्य द्वारा नियंत्रित आर्थिक व्यवस्था काफी शिक्षाप्रद है। नव-उदारवाद की अवधि में जीडीपी विकास दर प्रतिवर्ष 7 प्रतिशत तक या उससे अधिक रही, और रोजगार की विकास की दर केवल 1 प्रतिशत रही है, जबकि दिरिगिस्ट (राज्य के नियंतरण की अर्थव्यवथा) के युग में जीडीपी विकास दर लगभग आधी थी नव-उदारवादी आंकड़ा के मुकाबले, अर्थात् लगभग 3.5 प्रतिशत, लेकिन रोजगार वृद्धि दर दोगुनी थी, अर्थात् प्रति वर्ष 2 प्रतिशत।

नव-उदारवाद के तहत रोजगार की वृद्धि दर नीचे है जोकि कार्य बल के विकास की प्राकृतिक दर से भी नीचे है। कार्य बल (वर्क फ़ोर्स) विकास दर उस वक्त काफी नीचे हो जाती है जब हम इसके अतिरिक्त विस्थापित किसानों और क्षुद्र उत्पादकों को इसमें शामिल करते हैं, नव-उदारवाद से उत्पन्न "पूंजी के प्राचीन संग्रह" की प्रक्रिया की बहुत तेज गति संकट में आ जाती है, और अपने पारंपरिक व्यवसायों के बाहर काम की तलाश में निकल जाती है।

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि नव-उदारवाद के तहत श्रम बाजार में कोई कठोरता नहीं है, इसके ठीक विपरीत हुआ है: सापेक्ष में श्रम संख्या के आकार का विस्तार हुआ है, जिसने जीवन की स्थितियों को बदतर करने नें योगदान दिया है। न केवल उन को जो सीधे श्रम भंडार से संबंधित हैं, लेकिन ओंको भी जो भी श्रम की सक्रिय सेना से संबंधित हैं, लेकिन जिनकी  सौदेबाजी की शक्ति बढ़ते श्रम भंडार से कम हो गई है।

नव-उदारवादी युग में आय और धन में असमानता में बढ़ोतरी बढ़ रही है, जिसे बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता है, इस का प्रत्यक्ष परिणाम है बढ़ती निरपेक्ष "गरीबी", जो सरकार बड़ी  ईमानदारी से इनकार करती हैं, लेकिन जो भी गरीबी की परिभाषा को परिभाषित करती है, तब भी जब एक नीतिगत मानदंड का उपयोग करते हुए सरकार उसे अपने मापदंड से परिभाषित करती है।

इस संबंध में दिरिगिस्ट और नव-उदारवादी काल के बीच के अंतर का सवाल उठता है क्योंकि पूर्व काल के दौरान तकनीकी-संरचनात्मक परिवर्तन पर कुछ प्रतिबंध थे, वास्तव में मूल्य-टूटने के परिमाण से बड़े पैमाने पर किसानों प्रभावित हुए (जो कि वर्तमान ऋण और दरिद्रता का एक महत्वपूर्ण कारण है)। पूर्व का एक स्पष्ट उदाहरण था "हथकरघा" के लिए आरक्षण; और बाद के लिए एक स्पष्ट उदाहरण घरेलू फसलों की कीमतों में इजाफ़ा था, जो कि वैश्विक बाजार की कीमतों से, दरों के माध्यम से, मात्रात्मक व्यापार प्रतिबंधों, एफसीआई द्वारा खाद्यान्न की खरीद, और वाणिज्यिक फसलों के मामले में विभिन्न कमोडिटी बोर्डों के बाजार हस्तक्षेप से जुड़ा था।

नव-उदारवाद इन सभी प्रतिबंधों को हटा देता है और पूंजीवाद की "सहजता" को पुनर्स्थापित करता है, जिसमें तकनीकी परिवर्तन लाने की बात भी शामिल है। आश्चर्य की बात यह है कि संभावना है कि पूंजीवाद हमेशा के लिए खुला रखता है, और प्रौद्योगिकीय परिवर्तन की वजह से  विशाल श्रमिक भंडार(बेरोजगार मजदूर) को जन्म दे रहा है और इसीलिए गरीबी हमारी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण संकट के रूप में प्रकट हो रही है।

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