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त्रिपुरा: भाजपा की खुद की बड़ी गलतियों ने थोड़ी सी बची उम्मीद पर भी पानी फेर दिया

सत्ता की भूख के लिए भाजपा ने गंभीर गलतियाँ की जिसके लिए उसे अपनी इस महत्वकांक्षा के लिए त्रिपुरा में कीमत चुकानी पड़ेगी I
tripura elections

प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने त्रिपुरा के बारे में गंभीर रूप से गलत अनुमान लगाया है। केवल 26 लाख मतदाता और सत्तारूढ़ वाम गाठबंधन, जो सत्ता में पिछले 25 साल से हैं, उन्होंने सोचा शायद वाम को हराना यहाँ अन्य राज्यों की तरह आसान होगा। लोग अब वाम से परेशान हो चुके होंगे, और पैसा किसी भी चुनाव को जीत सकता है, उन्होंने शायद ऐसा ही सोचा होगा। चाहे जो हो, उनके लिए यह महत्वपूर्ण था कि वे कम्युनिस्टों को पराजित करें क्योंकि यही वह ताकत है जो आरएसएस-बीजेपी जैसी राजनीति का सबसे मजबूत विरोध पेश करती हैं।

इसलिए उन्होंने एक छोटे से चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, शाह अगरतला में डेरा डाल कर बैठ गए, ऐसा शायद संभवतः रणनीति के सूक्ष्म-प्रबंधन के लिए किया गया था, केंद्रीय मंत्रियों की एक पूरी की पूरी परेड लगा दी और वे लगातार राज्य में प्रचार के लिए आते-जाते रहे, प्रधानमंत्री मोदी ने भी राज्य में यह कहकर दौरा किया कि त्रिपुरा के लोगों की मोहब्बत उन्हें दिल्ली से यहाँ खींच लाई।

लेकिन जमीन पर सच्चाई यह है कि, भाजपा सभी मीडिया प्रचारों के बावजूद वाम मोर्चा के मुकाबले दूर दुसरे स्थान पर चल रही है। यह मुख्य रूप से राज्य में वाम मोर्चा के शासन के उल्लेखनीय रिकॉर्ड की वजह से है। लेकिन इसके लिए भाजपा की गहरी दोषपूर्ण और अवसरवादी चुनाव रणनीति भी जिम्मेदार है। गलतियों की एक बड़ी श्रृंखला ने भाजपा अभियान को अक्षम कर दिया है और मतदान के कुछ दिन पहले भजपा की शाख को इतना गहरा झटका लगा कि उसका बहियाँ तार-तार हो गया।

# 1 दलबदलुओं को गले लगाना : बहुत सीमित आधार (और काम का कोई इतिहास न होना) के साथ, भाजपा ने कांग्रेस/टीएमसी और कुछ आदिवासी संगठनों से ऐसे कैडर को पार्टी में स्वागत करना जिनकी कोई साख नहीं है। यह एक मजबूरी हो सकती है, लेकिन यह भी एक बड़ी गलती है। कांग्रेस के छह विधायक जो पहले टीएमसी में गए और फिर चुनाव के पहले भाजपा में शामिल हो गए, ये वे कांग्रेस के मज़बूत नेता थे जो अपने युवा काल में कांग्रेस के गुंडे दल के नेता थे। बीजेपी में शामिल होने वाले कुछ लोग पिछले साल टीयूजेएस समर्थित टीएनवी के साथ थे। कुछ अन्य विभिन्न जनजातीय समूहों का हिस्सा थे जो त्रिपुरा में कभी दिखे और कभी गायब रहते थे। असम के पूर्व कांग्रेसी जो हाल में भाजपा में शामिल हुए और असम में भजपा सरकार में मंत्री बने, उन्हें त्रिपुरा में अभियान का प्रभार दिया गया! यह शायद भाजपा के लिए एक अच्छा विचार जैसा लग सकता था क्योंकि उनके पास राज्य में कोई नहीं था, लेकिन उनके साथ उनके किये गए कारनामों की वजह ने पार्टी की विश्वसनीयता को गंभीर रूप से क्षति पहुंचाई है।

# 2 आईपीएफटी के साथ गठबंधन: भाजपा ने अपने आधार को व्यापक करने के लिए विशेष रूप से आदिवासी समुदायों के बीच एक और बेताब चाल चली थी। इसके भरपूर दस्तावेज़ हैं कि  आईपीएफटी अतीत में अलग टिपरलैंड (त्रिपुरा से अलग राज्य) की अपनी मांग को मनवाने के लिए हिंसा को बढ़ावा देती रही है, जिसमें वर्तमान जनजातीय क्षेत्रों के स्वायत्त जिला परिषद के क्षेत्र शामिल हैं। इनके अलगाववादियों के साथ संबंध हैं इसमें बांग्लादेश से काम करने वाले भी शामिल हैं। अतीत में इसने कांग्रेस के साथ भी समझौता किया था। उसने खुले तौर पर बंगाली विरोधी नारे लगाए और हिंसा को उकसाया है। इसने अलगाववादी और हिंसा के विरोध में खड़े आदिवासियों को भी अपना निशाना बनाया है। इस संगठन के साथ गठबंधन करने से, भाजपा ने दोनों आदिवासियों और बंगालियों के बड़े वर्गों को सफलतापूर्वक अपने से दूर कर दिया है और उनके इस कदम से आम जनता में फिर हिंसक वर्षों की वापसी का डर पैदा हो गया है जो अब एक दशक पुराना हो चला है।  

# 3 नाथ समुदाय के लिए आरक्षण: शायद वे चिंतित है कि आईपीएफटी से गठबंधन के कारण बंगाली आबादी में इसका समर्थन खो सकता है, इसलिए भाजपा ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को त्रिपुरा में प्रचार करने के लिए आमंत्रित किया। वह एक प्रसिद्ध हिंदुत्व के समर्थक और अल्पसंख्यक विरोधी  व्यक्ति हैं। लेकिन उन्होंने राज्य में प्रचार करते हुए भाजपा के कुछ अन्य शरारती कारनामों का अनावरण किया। उन्होंने कथित तौर पर संकेत दिया कि बंगालियों के बीच नाथ समुदाय को आरक्षण दिया जाएगा क्योंकि वे ओबीसी हैं। चूंकि त्रिपुरा में 31 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 17.6 प्रतिशत अनुसूचित जाति हैं, जो कि कुल 48.6 प्रतिशत  आबादी बैठती है, और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसार कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता हैं, तो यह वादा अपने आप में एक धोखाधड़ी है। लेकिन, यह चुनावी अवसरवाद की प्रकृति है कि आप एक समुदाय को प्रसन्न करना शुरू करते हैं, फिर आपको दूसरे को खुश करना पड़ता है, फिर दूसरा, और इससे पहले कि आप एक सही निशाना साध पाए  आप विरोधी समुदायों के अग्नि तूफ़ान में गहरे धंस जाते हैं। कांग्रेस ने भी वहां ऐसा ही किया था और धंस गयी। अब, भाजपा की बारी है।  

# 4 झूठ पर निर्भरता: पूरे भाजपा अभियान को झूठ और धोखे पर चलाया जा रहा है उन्होंने केंद्र सरकार की 'उपलब्धियों' के बारे में झूठ बोला और त्रिपुरा में वाम मोर्चे सरकार के रिकॉर्ड के बारे में कई झूठ बोले। त्रिपुरा सरकार के कर्मचारियों के वेतन को लेकर झूठ बोला जो कि  25 साल पहले थी, और अब (जैसा कि जून 2017 के कर्मचारियों के रूप में हाल ही में देश में सबसे अधिक 19.68 प्रतिशत की बढ़ोतरी  ज्यादा मिली है), यह कहना कि  स्वास्थ्य सेवाएं निर्बल हैं जबकि (त्रिपुरा में स्वास्थ्य कुछ बेहतरीन संकेतक हैं) और राज्य में गरीबी है जबकि (त्रिपुरा बीपीएल नंबरों में कमी के लिए सबसे आगे है), आदि। दूसरी ओर, भाजपा ने इस तथ्य को छुपा दिया है कि वह खुद रोजगार पैदा करने में विफल रही है, किसानों की आमदनी को नहीं बढ़ा पायी है, आदि। झूठ का यह अभियान त्रिपुरा में लोगों के बीच अच्छी पैठ नहीं बना पाया। जो लोग भाजपा में गए उनके लिए यह एक सबक हो सकता है, लेकिन वाम मोर्चा की नीतियों से लाभान्वित हजारों परिवारों के लिए यह सब एक हाल्गुला हो सकता है जो कुछ वक्त बाद शांत हो जाना है। यह हल्ल्गुला और खूठ वोट जीतने में मदद नहीं करता है।

# 5 जंगली वादे: त्रिपुरा में भाजपा द्वारा अंतिम और बड़ी गलती यह है कि उसने सभी प्रकार के जंगली वादे (कभी न पूरे होने वाले) करके मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की है जैसे युवाओं को मुफ्त स्मार्टफोन देना, लड़कियों को मुफ्त शिक्षा, सभी बीपीएल के परिवारों को मुफ्त स्वास्थ्य कवरेज, प्रत्येक परिवार के लिए एक "रोजगार का अवसर" आदि। इन वादों की सतही प्रकृति से सवाल उठता है कि क्यों "रोजगार के मौके" और सीधे नौकरी क्यों नहीं?- खुले रूप से रिश्वत और रिझाने का प्रयास त्रिपुरा में कई लोगों को अपमानजनक लगा वह भी उन लोगों से जो दिल्ली से उड़ान भर यहाँ की भोलो जनता को कभी न पूरे होने वाले वादों को चमकाने के लिए, भाजपा मतदाताओं के बीच गंभीरता या वैधता की भावना को लागू करने में विफल रही है। उन लोगों की समझ है जो सोचते हैं कि चुनाव अभियान लोगों को जीत सकते हैं, लेकिन वास्तविक काम नहीं हैं।

भगवा पार्टी ने इस प्रकार त्रिपुरा में खुद ही अपने पैर में गोली मार ली है। 3 मार्च को जब वोटों की गिनती होगी तो कोई आश्चर्य नहीं होगा कि भाजपा-आईपीएफटी गठबंधन धूल चाटता नज़र आये।

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