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त्रिपुरा में भाजपा के चुनावी साझेदार, आईपीएफटी का एक संक्षिप्त इतिहास

आईपीएफटी अपनी हिंसक, अलगाववादी गतिविधियों और राष्ट्र-विरोधी आतंकवादी संगठनों के साथ सम्बन्ध के लिए जाना जाता है।
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Image Courtesy: Press Gazette

प्रधानमंत्री के स्तर से लेकर और पार्टी के भीतर चर्चा के कई महीनों के बाद 18 फरवरी को होने वाले आगामी त्रिपुरा विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए, भाजपा ने स्थानीय जनजातीय संगठन, जिसमें इंडिजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (आईपीएफटी) शामिल है, से अंतत गठबंधन कर लिया। यह अविश्वसनीय है कि बीजेपी, जो खुद को 'राष्ट्रवादी' और 'देशभक्ति' बल के रूप में घोषित करती है, ने कैसे एक सीमावर्ती राज्य में खुलेआम अलगाववादी समूह के साथ गठबंधन कर लिया। शायद, इसकी चुनावी महत्वाकांक्षाएं काफी बड़ी हैं, या शायद राष्ट्रीयता की बातें सिर्फ बात ही है।

यद्यपि त्रिपुरा के लोग आईपीएफटी को अच्छी तरह से जानते हैं, देश के बाकी हिस्सों के लिए इसका इतिहास और रिकॉर्ड अच्छे रूप में धुंधला है। तो भाजपा के नवीनतम चुनाव मित्र का एक छोटा इतिहास प्रस्तुत है।

आईपीएफटी, 1990 के दशक के आखिर में हरिनाथ देबबर्मा और एन सी देबबर्मा द्वारा त्रिपुरा उपजती जुबा समिति (टीयूजेएस) नामक एक मौजूदा जनजातीय संगठन को छोड़ने के बाद स्थापित किया था। हरिनाथ देबबर्मा, तथाकथित 'स्वतंत्र त्रिपुरा सरकार' का संस्थापक प्रमुख था, जिसे 1980 के दशक में आतंकवादी संगठन त्रिपुरा नेशनल वालन्टियर्स (टीएनवी) के संस्थापक बिजयोग कुमार हंगखवाल द्वारा संपादित एक साप्ताहिक समाचार त्रिपुरा स्टार में घोषित किया गया था। जबकि टीयूजेएस में एच. देवबर्मा ने 1980 में त्रिपुरा से बंगालियों के प्रत्यर्पण का आह्वान किया था। उन्होंने 1990 में जनजातीय स्वायत्त जिला परिषद (टीएडीसी) के चुनावों के दौरान हिंसक हमले का भी नेतृत्व किया, जिससे चुनाव में धांधली हुई थी। चुनाव जीतने के लिए टीएडीसी के 2000 के चुनावों में आदिवासियों को आतंकित करने के लिए सशस्त्र राष्ट्रीय लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) से मदद मिली थी। एनएलएफटी को गैरकानूनी टीएनवी द्वारा समर्थन दिया गया था।

अन्य आईपीएफटी नेता नरेंद्र चंद्र देवबर्मा ऑल इंडिया रेडियो के अगरतला स्टेशन के निदेशक थे। उन्हें व्यापक रूप से उग्रवादियों के साथ मजबूत सहानुभूति है इसकी आम सूचना थी और उन्होंने बांग्लादेश में कथित तौर पर दौरा भी किया गया।

यह याद करने लायक है कि 1998 से 2007 की अवधि में विभिन्न चरमपंथी संगठनों द्वारा त्रिपुरा में खूनी हिंसा का ज्वार देखा गया। इस हिंसा में 2200 से ज्यादा लोग मारे गए, उनमें से ज्यादातर आदिवासी थे, हालांकि चरमपंथी कथित तौर पर आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। यह वाम मोर्चे के चतुर नेतृत्व और जनजातीय लोगों के ज्ञान के कारण ही संभव था, कि ये गतिविधियां बुरी तरह विफल हो गईं और हिंसा समाप्त हो गई। आईपीएफटी आज उस वक्त हिंसक गतिविधि में शामिल लोगों का नया अवतार है।

2002 में, आईपीएफटी को त्रिपुरा की देशज पार्टी बनाने के लिए टीयूजेएस के साथ विलय कर दिया गया और आईएनपीटी का गठन किया गया। 2003 में, आईएनपीटी  ने 60 सदस्यीय विधानसभा चुनावों में 6 सीटों पर जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस से गठबंधन किया था। 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले, एनसी डेबर्मा ने आईएनपीटी को छोड़ दिया और आईपीएफटी को पुनर्जीवित किया। इसने टीएडीसी, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में चुनाव लड़ना जारी रखा, सभी में बुरी तरह से हारते गए। इसका विभिन्न नेताओं के न्रेतत्व में अलग-थलग विभाजन जारी रहा और त्रिपुरा नेशनल कांफ्रेंस, त्रिपुरा पीपुल्स फ्रंट, ट्रायलैंड राज्य पार्टी, ट्वीपर दफ़ानी सिक्ला श्रीनग्नै मोथा आदि जैसे अपने स्वयं के संगठन तैयार किए। इन विभाजनों में से अधिकांश व्यक्तिगत कारण आपसी प्रतिद्वंद्विता थी जो आम तौर पर चुनाव या अन्य वजह से काफी सतह पर आ गयी थी. कुछ नेता भाजपा में भी शामिल हुए।

आखिरकार, पिछले साल बची-कुची आईपीएफटी फिर से विभाजित हो गई क्योंकि एक गुट ने सीसी देबबर्मा पर आरोप लगाय कि उसने भाजपा से पैसा लेकर गठबंधन किया है। यह वह 'एनसी' गुट है जो अब विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा के साथ गठबंधन में है। एक अन्य गुट जिसे आईपीएफटी का त्रिपरा ग्रुप कहते हैं, औसतन उसका औपचारिक रूप से भाजपा के साथ विलय हो गया है।

सारे विभाजन के बावजूद, विलय और आपसी लड़ाई जिसने आईपीएफटी के पैर उखाड़ दिए है, उसकी राजनीति निम्नलिखित सिद्धांतों द्वारा परिभाषित की जा सकती है:

1. त्रिपुरा से पृथक होने वाले ट्रायलैंड का अलग राज्य और वर्तमान जनजातीय क्षेत्रों को शामिल करना।

2. त्रिपुरा से बंगालियों को बाहर निकालना, खासकर आदिवासी क्षेत्रों से।

3. वाम मोर्चा का मुकाबला करने के लिए किसी भी पार्टी - कांग्रेस या भाजपा के साथ गठबंधन करना।

4. त्रिपुरा शाही राजवंश को सशक्त समर्थन देते हैं और आदिवासियों के शोषण में राजशाही की निषेधात्मक शोषक भूमिका को नहीं मानती है।

5. आदिवासियों सहित किसी के खिलाफ भी हिंसा का आसान सहारा लेते हैं।

आईपीएफटी त्रिपुरा के इतिहास के कुछ सबसे खराब पहलुओं की विरासत है, जिसमें जातीय विवाद को बढ़ाना से लेकर अन्य अलगाववादी संगठनों को शामिल करना शामिल है, जिसमें गैरकानूनी लोगों को भारत की सीमाओं के बाहर संचालन करना शामिल है, और निजी स्वामित्व  के लिए एक अनावश्यक भूख है वह भी अपने स्वयं के घोषित सिद्धांतों की कीमत पर।

इसने अगस्त 2013 में, अगरतला में एक आक्रामक और हिंसक जुलूस का आयोजन किया था, जिसमें बंगला-विरोधी जहरीले नारे लगाकर अलग टिपरलैंड की मांग की थी। 2017 के बाद से, आईपीएफटी, विधानसभा चुनावों पर नजर रखते हुए सुपर सक्रिय हो गया। यह उन राष्ट्रीय दलों द्वारा भी प्रोत्साहित किया गया, जो खुद वामपंथी गढ़ में प्रगति की तलाश में हैं। जुलाई 2017 में, आईपीएफटी ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर दो हफ्ते की नाकाबंदी का आयोजन किया था, जो राजमार्ग राज्य को देश के बाकी हिस्सों के बीच जोड़ने का एकमात्र कड़ी है, जिससे राज्य में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न हुयी।

"2009 के बाद से, हम त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्रों के स्वायत्त जिला परिषद (टीटीएएडीसी) क्षेत्रों को  उन्नयन(अपग्रेड) कर अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। राज्य में वाम मोर्चा सरकार और पिछली संप्रग सरकार (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार ने हमारी मांग को महत्व नही दिया, । एन.सी. देबबर्मा ने नाकाबंदी के दौरान कहा कि उन्होंने आईपीएफटी महासचिव मीवर कुमार जमैतिया और पार्टी की युवा शाखा अध्यक्ष धनानजय त्रिपुरा को केंद्रीय सरकार के नेताओं से मिलने के लिए नई दिल्ली भेज था।

केंद्रीय सरकार के साथ वार्ता के बाद नाकाबंदी हटा दी गई, गृह मंत्री राजनाथ सिंह और पीएमओ कार्यालय सहित नाकाबंदी उठाने पर, नेकेश देबबर्मा ने एकत्रित जनजातियों को आश्वासन दिया कि '' ट्वीपरलैंड जल्द ही एक वास्तविकता बनने वाला है ''

त्रिपुरा में बीजेपी के इस नए साथी के इस संक्षिप्त इतिहास से भाजपा के अवसरवाद को और उसके ढोंग का पता चलता है। शुक्र है, राज्य में बीजेपी द्वारा धन के प्रवाह के बावजूद और आईएफएफटी की हिंसा से डर के कारण यह अपमानजनक गठबंधन को हार की तरफ बढ़ता प्रतीत होता है।

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