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यूक्रेन युद्ध में पूंजीवाद की भूमिका

वैश्विक युद्ध हमेशा पूंजीवाद के वैश्वीकरण और इसके मुनाफ़े के मक़सद के साथ होता रहा है।
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फ़ोटो: साभार-एनडीटीवी

मानव इतिहास में हुए युद्ध के कई मक़सद रहे हैं। इन मक़सदों में पूंजीवाद ने एक और मक़सद जोड़ दिया है और वह है - मुनाफ़ा। मुनाफ़े के इस मक़सद ने तकनीकी प्रगति को आगे बढ़ाया है और इसने सही मायने में एक विश्व अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है। इसने स्पेनिश, डच, ब्रिटिश, फ़्रेंच, बेल्जियम, रूसी, जर्मन, जापानी और अमेरिकी साम्राज्यों जैसे नये पूंजीवादी साम्राज्यों का भी निर्माण किया है। इनमें से हर एक देश ने अपने-अपने तरीक़ों से अपने-अपने साम्राज्य का निर्माण किया, जिसमें ख़ुद के इलाक़ों में काम कर रही पूर्व व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़, उनके उपनिवेशों, और विदेशी "प्रभाव के क्षेत्रों" में होते युद्ध शामिल थे।

इसी तरह, युद्धों की ख़ासियत साम्राज्यों के बीच अंत:क्रिया रही है। वैश्विक युद्ध ("विश्व युद्ध") पूंजीवाद के वैश्वीकरण और उसके फ़ायदे के मक़सद से हुआ था। यूक्रेन का युद्ध पूंजीवाद, साम्राज्य और युद्ध के उसी इतिहास का नवीनतम अध्याय है।

पूंजीवाद का मतलब है - लोगों के छोटे समूहों से संचालित उद्यम और नियोक्ता, जो कि बड़े समूहों की नुमाइंदगी करते हैं और बड़ी संख्या में कर्मचारियों को काम पर रखते हैं। नियोक्ता अपने मुनाफ़े को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने के लिए प्रेरित होते हैं, यानी कि जितना भुगतान भाड़े पर लिये गये श्रमिकों को बतौर मज़दूरी किया जाता है, उससे कहीं ज़्यादा क़ीमत वसूल ली जाती है। इसी तरह, नियोक्ता अपने उत्पाद को ज़्यादा से ज़्यादा उस कीमत पर बेचने के लिए प्रेरित होते हैं, जिसे ख़रीदने के लिए बाज़ार तैयार होता है और कम से कम संभव बाज़ार मूल्य पर निवेश से जुड़े कारक (श्रमिकों के समय सहित) ख़रीदे जाते हैं।

पूंजीवादी उद्यमियों के बीच इस बात को लेकर दबाव बनाने की प्रतिस्पर्धा चलती है कि सभी नियोक्ता जितना संभव हो अपने मुनाफ़े को अपने व्यवसाय में फिर से लगाएं ताकि कारोबार के बढ़ाने में मदद मिल सके और बाज़ार में हिस्सेदारी ज़्यादा से ज़्यादा हासिल हो इसके लिए मुनाफ़े को साधन के रूप में बाज़ार में इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रतिस्पर्धा में बने रहें, इसके लिए उनमें से हर एक को ऐसा इसलिए करना होता है, क्योंकि इस प्रतिस्पर्धा में जो विजेता होता है, वह हारने वालों को पहले तो तबाह कर देता है और फिर उन्हें निगल जाता है। उद्यमों के बीच इस प्रतिस्पर्धा का सामाजिक नतीजा यह होता है कि बतौर व्यवस्था पूंजीवाद स्वाभाविक रूप से अपना तेज़ी से विस्तार करने के लिए प्रेरित होता है।

हर पूंजीवादी राष्ट्र के भीतर यह विस्तार अनिवार्य रूप से अपनी हदों से कहीं आगे निकल जाता है। पूंजीवादी उद्यम खाद्य पदार्थ, कच्चे माल, श्रमिकों और बाज़ारों के विदेशी स्रोतों की तलाश करते हैं, उन्हें हासिल करते हैं और फिर विकास करते हैं। जैसे-जैसे यह प्रतिस्पर्धा वैश्विक होती जाती है, वैसे-वैसे प्रतिस्पर्धी पूंजीवादी उद्यम अपना विस्तार करने के लिए अपने देशों की सरकारों से मदद मांगते हैं।

राजनेता जल्दी से यह समझ लेते हैं कि उनके देशों की जो कंपनियां चल रही वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हार जाती हैं, वे अपनी हार का ठीकरा राजनेताओं के अपर्याप्त मदद देने पर फोड़ेंगी। इस बीच, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में जीतने वाली कंपनियां ऐसे राजनेताओं को अपनी मदद पहुंचाने के लिए पुरस्कृत करती हैं। इसका सामाजिक नतीजा यह होता है कि पूंजीवाद उद्यम प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को भी अनिवार्य बना देता है। युद्ध अक्सर पूंजीवाद की इसी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को रोक देते हैं। उन प्रतिस्पर्धाओं में विजेता युद्ध के ज़रिये ऐतिहासिक रूप से अक्सर साम्राज्य बनाने की प्रवृत्ति रखते रहे हैं।

मसलन, 17वीं और 18वीं शताब्दी में हुए युद्धों ने ब्रिटिश पूंजीवाद को एक वैश्विक साम्राज्य बनाने में मदद की थी। 19वीं शताब्दी में हुए युद्धों के साथ साथ और बहुत सारे युद्धों ने उस साम्राज्य के मुकम्मल होने और मज़बूत करने के लिए समय दिया। ख़ुद साम्राज्य के विकास ने भी सभी तरह की चुनौतियों और प्रतिस्पर्धाओं को प्रेरित किया और हालात युद्धों में बदल गये।

जैसे-जैसे पूंजीवाद ने जड़ें जमायीं और ब्रिटेन के अमेरिकी उपनिवेश में बढ़ोत्तरी होती गयी, वैसे-वैसे औपनिवेशिक उद्यमों के सामने आख़िरकार बाधाओं (सीमित बाज़ार, कर और निवेश किये जाने वाली चीज़ों तक सीमित पहुंच) का सामना करना पड़ा। पेश आयीं ये रुकावटें अंततः उनके और उनके उपनिवेश के नेताओं और दूसरी तरफ़ ब्रिटेन के पूंजीपतियों और किंग जॉर्ज तृतीय के बीच होने वाले संघर्ष में बदल गयीं। इसके नतीजे के रूप में स्वाधीनता संग्राम सामने आया। बाद में 1812 में ब्रिटिश नेताओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका के ख़िलाफ़ युद्ध किया और ब्रिटिश नेताओं ने अमेरिकी गृहयुद्ध में पूंजीवादी उत्तरी हिस्से के ख़िलाफ़ दक्षिण हिस्से के ग़ुलामों का पक्ष लेने पर भी विचार किया।

19वीं सदी ब्रिटेन के साम्राज्य के साथ प्रतिस्पर्धा करने, चुनौती देने, कमज़ोर करने या कम करने के लिए अन्य देशों की तरफ़ से किये जाने वाले बेशुमार कोशिशों का गवाह बनी। प्रतिस्पर्धी पूंजीवादी उद्यमों ने प्रतिस्पर्धी उपनिवेशवाद और कई युद्धों को जन्म दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी ब्रिटेन के लिए सबसे बड़े राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धियों के रूप में सामने आये।

इन युद्धों ने 19वीं शताब्दी में संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी के साथ-साथ दुनिया भर में कहीं और भी पूंजीवाद के विकास को रोके रखा। जैसे-जैसे पूंजीवादी उद्यम संयुक्त, केंद्रीकृत और विकसित होते गये, वैसे-वैसे उनके बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा सामने आती गयी इसका नतीजा यह हुआ कि कई छोटे-छोटे देश मिलकर बड़े-बड़े राष्ट्रों में संगठटित हो गये। उसी के साथ युद्ध भी बड़े होते गये और पहली बार ये युद्ध चरम पर पहुंचकर दो विश्व युद्धों में तब्दील हो गये जो कि अपने नतीजा में विनाशकारी रहे।

पहले विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य ने जर्मन साम्राज्य से युद्ध लड़ा। इस युद्ध ने उन दोनों देशों को वैश्विक प्रभुत्व के दावेदार के रूप में तबाह कर दिया। पहले विश्व युद्ध में बहुत कम नुक़सान पहुंचा, लेकिन उसके बाद अमेरिकी पूंजीवाद वैश्विक पूंजीवादी उस जगह को लेने के लिए तेजी से आगे बढ़ा, जो जगह युद्ध के चलते ब्रिटेन और जर्मनी के हाथों से निकल गयी थी। पहले विश्व युद्ध ने उन लाखों लोगों के लिए पूंजीवाद की ज़िम्मेदारी भी तय कर दी, जो मर गये, घायल हो गये और जिन्हें शरणार्थी बना दिया गया। पहला विश्वयुद्ध उस समय तक का सबसे विध्वंसात्मक युद्ध माना जाता है।

जर्मनी ने कुछ साल बाद अपने वैश्विक प्रभुत्व को फिर से हासिल करने की कोशिश की, पहले विश्व युद्ध के नतीजों से पहली वाली हैसियत हासिल करने के लिए जर्मनी ने नये-नये बने पूंजीवादी साम्राज्य के साथ गठबंधन कर लिया। लेकिन, नाकाम इसलिए रहा, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने जर्मनी और जापान को हराकर अपने आर्थिक और सैन्य (परमाणु) श्रेष्ठता का प्रदर्शन किया। 1945 से हाल के सालों तक अमेरिकी वैश्विक साम्राज्य का दबदबा क़ायम रहा है।

इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने वही राह अख़्तियार की, जिस पर कभी अंग्रेज़ चले थे। पूंजीवादी साम्राज्य का निर्माण और उसका सुदृढ़ीकरण चुनौती देने वालों के एक अंतहीन सिलसिले को आगे बढ़ाता है। पूंजीवादी उद्यमों के बीच की प्रतिस्पर्धा में हारे हुए उद्यमों से जुड़े कर्मचारी विजेताओं के लिए काम करने के लिए आगे बढ़ते हैं; इससे विजेताओं के कारोबार बढ़ते हैं, और पराजित उद्यमों के कारोबार में गिरावट आती है। विजेताओं के कारोबार में होने वाली बढ़ोत्तरी अक्सर ज़्यादा मुनाफ़े और ज़्यादा प्रतिस्पर्धी जीत को प्रेरित करती है। यह बढ़ोत्तरी नये प्रतिस्पर्धियों को दावत देती है और उन्हें बढ़ावा देती है। थोड़े-थोड़े समय बाद एक या एक से ज़्यादा नये प्रतिस्पर्धियों को यह पता चल पाता है कि पुरानी बड़ी कंपनियों को कितनी गंभीरता से चुनौती दी जाय और इसकी जगह ख़ुद को स्थापित कैसे किया जाये।

पूंजीवादी साम्राज्य और उनके प्रतिद्वंद्वी का इतिहास साथ-साथ चलने का इतिहास है। जैसे-जैसे चुनौती देने वाला नया उद्यम पुराने उद्यम को तबाह करता जाता है, ठीक वैसे-वैसे साम्राज्यों के साथ भी होता है। पूंजीवाद का यही इतिहास रहा है, और यही कुछ अब यूक्रेन में भी देखा जा रहा है।

नेपोलियन बोनापार्ट की हुक़ूमत के ख़ात्मे के बाद ब्रिटेन का विश्व पर एक सदी तक प्रभुत्व बना रहा। पहले विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी ऐसा किया था। दोनों साम्राज्य अंतहीन चुनौतियों को उकसाते रहे। छोटे-बड़े तमाम राष्ट्रों ने भी इसी तरह के उद्यम, उद्योग विकसित किये और बदलाव चाहने वाले राजनीतिक नेता या उन दिशाओं में आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले और अलग राय रखने वाले नेता पहले विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी वैश्विक पूंजीवादी आधिपत्य के लिए चुनौती बन गये थे। मसलन, पूरे लैटिन अमेरिका में, "मेनिफ़ेस्ट डेस्टिनी "(19वीं सदी का सिद्धांत या विश्वास है कि पूरे अमेरिकी महाद्वीपों में अमेरिका का विस्तार उचित और अपरिहार्य दोनों था) के सिलसिले में इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी चुनौतियों से पार पाने के लिए छोटे-छोटे कई युद्ध हुए।

इसी तरह, जब 1950 के दशक की शुरुआत में ईरान के प्रधानमंत्री, मोहम्मद मोसादेघ, या कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य के लोकतांत्रिक रूप से चुने गए पहले प्रधानमंत्री पैट्रिस लुमुम्बा ने अमेरिकी साम्राज्य के नियंत्रण से मुक्त होने के संकेत दिये, तो दोनों को अपने-अपने पद से हटा दिया गया।

जिस देश को अमेरिका की ओर से दमन किये जाने की कोशिश नाकाम रही, वह क्यूबा था। उस समय संयुक्त राज्य अमेरिका ने प्रतिबंधों और नाकेबंदी के ज़रिये क्यूबा को अलग-थलग कर दिया था और आर्थिक रूप से उसे पंगु बना दिया था। युद्ध आर्थिक भी हो सकता है और सैन्य भी हो सकता है। इसी का एक उदाहरण यूक्रेन भी है, लेकिन यूक्रेन का युद्ध इस मायने में ख़ास है कि यूक्रेन को दिया जाने वाला अमेरिकी समर्थन उस दूसरे देश को दबाने की एक कोशिश है, जो अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती देता है, और वह देश रूस है। दरअस्ल रूस को दबाने का यह प्रयास अमेरिकी पूंजीवादी साम्राज्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बना देश, यानी चीन से निपटने का एक अजीब-ओ-ग़रीब अप्रत्यक्ष तरीक़ा है।

1917 के बाद सोवियत संघ का वजूद में आना, दूसरे विश्व युद्ध में उसकी जीत, और 1945 के बाद उसके परमाणु हथियारों के विकास ने अमेरिकी पूंजीवादी साम्राज्य के लिए वह संभावित चुनौती पैदा कर दी थी, जिसका सामना उसे बाद में करना पड़ा था। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट और यूनाइटेड किंगडम के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने 1945 के बाद पूर्वी यूरोप में यूएसएसआर के नियंत्रण के लिए अनुकूल माहौल बना दिया था, लेकिन यह अमेरिकी वैश्विक प्रभुत्व के लिए "नुक़सानदेह" साबित होने वाला था। इस तरह, पूर्वी यूरोप जल्दी ही वैचारिक या "शीत" युद्ध की एक ऐसी जगह बन गया, जिसने यूएसएसआर और उसके "हामी भरने वाले देशों" में साम्यवाद और अधिनायकवाद के ख़िलाफ़ आज़ादी और लोकतंत्र को हवा देना शुरू कर दिया। इससे "शीत" युद्ध तो होना ही था, क्योंकि परमाणु युद्ध के नतीजे चरम पर थे।

दूसरे विश्व युद्ध से पहले अमिरकी साम्राज्य को चुनौती देने वाले दूसरे कम्युनिस्ट देशों के ख़िलाफ़ अमेरिकी युद्धों में उन्हें "दुष्ट कम्युनिस्ट" के रूप में नहीं दिखाया गया था। ग़ौरतलब है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका ने तत्काल चुनौती देने वाले देशों (जर्मनी और जापान) को संयुक्त रूप से हराने के लिए यूएसएसआर के साथ गठबंधन कर लिया था। लेकिन, 1945 के बाद अमेरिकी साम्राज्य की रक्षा को सही ठहराने के लिए यूएसएसआर के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक ख़ास पसंदीदा वैचारिक शब्दावली गढ़ी गयी थी। फिर, जब 1989/1990 में यूएसएसआर और पूर्वी यूरोप पर उसकी पकड़, दोनों ध्वस्त हो गये, तो पुरानी शब्दावली फीकी पड़ गयी और उसकी जगह एक नयी शब्दावली आ गयी। एक नयी चुनौती देने वालों के ख़िलाफ़ एक नया युद्ध शुरू हो गया और इसके लिए जो शब्दावली सामने आयी, वह था- इस्लामी आतंकवाद।

1989/1990 के बाद से 30 से ज़्यादा सालो में बनी स्थितियों ने अमेरिकी साम्राज्य और उसकी चुनौतियां, दोनों को बदल दिया है। ज़्यादातर पूर्वी यूरोपीय देशों पर पकड़ बना पाने में रूस बेहद कमज़ोर साबित हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका ने यूरोपीय संघ और नाटो की सदस्यता, व्यापार समझौतों और पश्चिमी निवेशों के ज़रिये उस क्षेत्र के ज़्यादतर हिस्से को पश्चिमी पूंजीवाद के साथ फिर से जोड़ लिया। हालांकि, रूस ने पिछले 20 सालों में धीरे-धीरे 1989 के बाद की अपनी कुछ कमज़ोरियों पर काबू पा लिया है।

पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (पीआरसी) के तेज़ी से होते उदय ने रूस-चीन गठबंधन को मज़बूत कर दिया है और अमेरिकी साम्राज्य के सामने नयी चुनौतियां पेश कर दी हैं। रूस अब पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था वाला एक ऐसा देश है, जो पीआरसी (जिसकी अर्थव्यवस्था में 1949 की चीनी क्रांति के बाद से किसी भी समय के मुक़ाबले बड़ा निजी पूंजीवादी सेक्टर की भूमिका है) के साथ जुड़ा हुआ है। ये दो शक्तिशाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं क्षेत्रफल (रूस) और जनसंख्या (चीन) के लिहाज़ से विश्व स्तर पर सबसे बड़ी हैं। ये दोनों अमेरिकी वैश्विक साम्राज्य के सामने एक बड़ी समस्या पेश करते हैं।

रूस साफ़ तौर पर आख़िरकार काफ़ी मज़बूत महसूस कर रहा था और एक बहुत बड़ी आर्थिक इकाई के साथ इसलिए जुड़ गया था, ताकि वह पूर्वी यूरोप में अपने आगे के "नुक़सान" को चुनौती दे पाए और उसे रोक पाने की उम्मीद कर सके। इस तरह, उसने क्रीमिया, जॉर्जिया और अब यूक्रेन पर हमला कर दिया है।

इसके बिल्कुल उलट, अमेरिकी साम्राज्य की अपने वैश्विक प्रभुत्व के सामने पेश आ रही चुनौतियों को दबाने की क्षमता सिकुड़ गयी है। यह वियतनाम, अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ युद्ध के साथ साथ सीरिया के गृहयुद्ध में दखलअंदाज़ी की जंग भी हार चुका है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में पीआरसी के मुक़ाबले अमेरिका की पकड़ थोड़ी ढीली पर चुकी है। कई सालों तक कड़ी मेहनत करने के बावजूद वेनेज़ुएला और ईरान जैसे देशों को घुटने पर लाने में अमेरिका नाकाम साबित हुआ है।

एक तरफ़ राष्ट्रवादियों की अगुवाई में यूक्रेन जैसे एक और राष्ट्र को अमेरिका के नेतृत्व वाले वैश्विक पूंजीवादी साम्राज्य में वापस लाने की कोशिश चल रही है, तो दूसरी तरफ़ रूस और उसके सहयोगी देश यूक्रेन में अमेरिकी साम्राज्य की विकास परियोजना को चुनौती देने और यूक्रेन के किसी हिस्से या संपूर्ण यूक्रेन के लिए अपने ख़ुद के प्रतिस्पर्धी एजेंडे को आगे बढ़ाने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। चीन रूस के साथ इसलिए है, क्योंकि इन दोनों देशों के नेतृत्व दुनिया और इतिहास को एक ही तरह से देखते हैं, यानी उन दोनों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ही इनके प्रतिस्पर्धी है।

यूक्रेन दरअसल कोई मुद्दा ही नहीं है, बल्कि यूक्रेन एक बहुत बड़े संघर्ष में दुखद रूप से युद्ध से तबाह होने वाला मोहरा भर है। न ही नेतृत्व के लिहाज़ से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन या अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन कोई मुद्दा हैं। यही इतिहास और टकराव उनके उत्तराधिकारियों पर भी हावी रहने वाला है।

इस बीच, अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के इतिहास में सबसे बड़ी प्रतिबंधात्मक कार्रवाई (यानी, व्यापार और टैरिफ़ वार) को लागू करके पीआरसी पर बदलाव के लिए मजबूर करने का प्रयास पूरी तरह से विफल रहा था। ट्रम्प की तरह बाइडेन भी उसी इतिहास के शिकार हैं, क्योंकि दोनों ने रूसी-चीनी गठबंधन पर अलग-अलग तरह से हमला किये जाने पर अपने-अपने ध्यान केंद्रित किये हैं।

आख़िरकार, कुछ समझौते होंगे और यूक्रेन युद्ध ख़त्म हो जायेंगे। दोनों पक्ष शायद अपनी-अपनी जीत का ऐलान कर देंगे और तूफ़ानी दुष्प्रचार के बीच एक दूसरे पर युद्ध का आरोप लगाएंगे। रूसी पक्ष पूर्वी यूक्रेन में विसैन्यीकरण, नाज़ियों के ख़ात्मा किये जाने और रूसियों के संरक्षण पर ज़ोर देगा। वहीं यूक्रेन पक्ष स्वतंत्रता, स्वतंत्रता और राष्ट्रीय आत्मनिर्णय पर ज़ोर देगा।

इस बीच, त्रासदी यह है कि यूक्रेन की पीड़ा अनुमान से कहीं ज़्यादा है। पूरी दुनिया एक पूंजीवादी साम्राज्य के पतन और दूसरे के उदय में फंसी हुई है। पूंजीवादी साम्राज्यों के बीच का यह संघर्ष उन तमाम बिंदुओं को लेकर हो सकता है, जहां-जहां उनके बीच के मतभेद उभरकर आएंगे।

शायद सबसे बड़ी त्रासदी पूंजीवादी व्यवस्था की उस ज़िम्मेदारी को चिन्हित नहीं किये जाने की है, जिसमें प्रतिस्पर्धी उद्यमों के अपने-अपने बाज़ार हैं। इन्हें बहुत कम लोग संचालित करते हैं या फिर जिन पर बहुत कम लोगों का वर्चस्व हैं, इन्हें ही हम नियोक्ता कहते हैं। दरअसल यही व्यवस्था इन ऐतिहासिक दोहरावों के मूल में है। बहुत कम संख्या वाला यह नियोक्ता वर्ग उन राष्ट्रों को नियंत्रित करता है या उनका नेतृत्व करता है, जिन्होंने पूंजीवाद में शामिल प्रतिस्पर्धा को आत्मसात कर लिया है और फिर से उस प्रतिसपर्धा को पैदा कर दिया है। इन दोनों पक्षों की ज़्यादतर क़ीमतों का भुगतान बहुसंख्यक कामगार वर्ग (मृत, घायल, नष्ट हुई संपत्तियों, शरणार्थी जीवन और करों के रूप में) करता है।

मुनाफ़े के मक़सद से संचालित नहीं होने वाली एक अलग आर्थिक प्रणाली मौजूदा किसी भी व्यवस्था के मुक़ाबले कहीं गहरा समाधान देती है। शायद यूक्रेन का यह युद्ध अपनी पूंजीवादी जड़ों को लेकर जागरूकता पैदा कर सके और लोगों को वैकल्पिक प्रणाली से मिलने वाले ये समाधान तलाशने की राह सुझा सके। अगर ऐसा है, तो यह युद्ध और इससे होने वाली तबाही एक अहम मोड़ साबित हो, जिसका नतीजा भविष्य में कुछ सकारात्मक परिणाम लेकर सामने आए।

रिचर्ड डी. वुल्फ़ एमहर्स्ट स्थित मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के अवकाशप्राप्त प्रोफ़ेसर हैं, और न्यूयॉर्क स्थित न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी के इंटरनेशनल अफ़ेयर्स के स्नातक कार्यक्रम में एक अतिथि प्रोफ़ेसर हैं।

स्रोत: इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टिट्यूट

क्रेडिट लाइन: यह लेख इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टिट्यूट के इकोनॉमी फ़ॉर ऑल नामक एक परियोजना की ओर से तैयार किया गया था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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