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आर्थिक उदारीकरण के तीन दशक

नव-उदारवाद मेहनतकश जनता को तब भी निचोड़ रहा था जब वह ऊंची वृद्घि दर हासिल करने में समर्थ था। संकट में फंसने के बाद से उसने निचोड़ने की इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है।
आर्थिक उदारीकरण के तीन दशक
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: ED TIMES

भारत के 1991 में नव-उदार आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद से तीस साल गुजर चुके हैं। हालांकि कुछ लोग इन नीतियों की शुरूआत को और पहले 1985 बताते हैं। इस मौके पर अखबार इसके आकलनों से पटे पड़े हैं कि इन नीतियों का देश की अर्थव्यवस्था पर किस तरह का असर पड़ा है। और मनमोहन सिंह से लगाकर नीचे तक, उदारीकरण लाने वाले अचानक कहीं ज्यादा दिखाई देने लगे हैं। वे अपने कारनामों की तारीफें कर रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा इसकी ही शिकायत करते सुने जा सकते हैं कि उदारीकरण के लाभ समान रूप से सब तक नहीं पहुंच पाए हैं। मनमोहन सिंह ने हाल ही में कहा भी है कि ‘हरेक भारतीय के लिए एक स्वस्थ्य तथा गरिमापूर्ण जीवन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।’ इससे ख्याल आता है जब वह खुद देश की बागडोर संभाले हुए थे, तब ऐसा करने से उन्हें किसने रोके रखा था?

इन हलकों के आकलन के हिसाब से उदारीकरण ने भारत के जीडीपी की वृद्घि दर को बड़ा उछाल दिया था और इस प्रकार करीब-करीब सभी भारतीयों की जिंदगियों को बेहतर बनाया था। लोगों की विशाल संख्या को घोर-गरीबी के चंगुल से निकाला, हालांकि इस सब के क्रम में देश में आय तथा संपदा की असमानता में भी भारी बढ़ोतरी हो गयी। इस आकलन से सिर्फ उदारीकरण के पैरोकार ही नहीं बल्कि उसके अलोचक भी और यहां तक कि उसके कुछ वामपंथी आलोचक तक सहमत हो जाएंगे। उनके बीच अंंतर लगता है कि इसी पर होगा कि आर्थिक वृद्घि के बरक्स असमानता को कौन कूर कितना वजन देता है। उदारीकरणवादी तो यह भी दलील देंगे कि असमानता के दुष्प्रभाव भी मिट जाएंगे, बशर्ते अर्थव्यवस्था में वृद्घि में नयी जान डाली जाए तथा उसे बढ़ाया जाए। और इसके लिए पूंजीपतियों की ‘पशु भावनाओं’ को उछाल देना होगा। पूंजीपतियों की ये भावनाएं ही तय करती हैं कि वे कितना निवेश करते हैं। और मोदी सरकार यह दावा करेगी कि अपनी मजदूरविरोधी तथा किसानविरोधी नीतियों के जरिए, वह पूंजीपतियों की पशु भावनाओं को उकसाने का ही काम तो कर रही है। उसके हिसाब से विचित्र बात है कि उसके विश्लेषण से सहमत होते हुए भी कांग्रेस इस दिशा में उसके कुछ कदमों का विरोध कर रही है। इस तरह ब्रेटन वुड्स संस्थाओं का जो यह दावा है कि नव-उदारवादी नीतियों पर प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के बीच एक व्यापक ‘आम राय’ है, उसका विस्तार पिछले तीन दशकों में इन नीतियों के अर्थव्यवस्था पर पड़े प्रभावों तक होता लगता है।

लेकिन, यह पूरी की पूरी धारणा ही गलत है और कम से कम दो कारणों से गलत है। पहला तो यह इसमें अर्थव्यवस्था के पूंजीवादी क्षेत्र को एक कमोबेश स्वयं-सम्पूर्ण क्षेत्र मानता है, जो शेष अर्थव्यवस्था से कटा हुआ होता है और जिसका अपने चारों ओर के वातावरण पर मुख्य प्रभाव यही होता है कि वह अपने चारों ओर के वातावरण से बढ़ती संख्या में श्रम को अपने दायरे में खींचता है। इस सिलसिले में इसी का पछतावा जताया जाता है कि वह पर्याप्त रूप से अपने गिर्द से श्रम को अपने दायरे में नहीं खींच पाया है। लेकिन, सच्चाई है कि पूंजीवादी क्षेत्र के अंदर होने वाले संचय का असर, कई-कई रास्तों से उससे बाहर की दुनिया तक जाता है। पूंजीवादी क्षेत्र अपने से बाहर की दुनिया से सिर्फ श्रमिकों को ही नहीं खींचता है। जबकि एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जिसमें बेकारों की विशाल फौज खड़ी है, उसका श्रमिकों को अपने दायरे में खींचना एक अच्छी बात है। लेकिन, इसके साथ ही साथ  वह अपने दायरे से बाहर से भूमि तथा राजकोषीय संसाधनों समेत दूसरे विभिन्न संसाधनों को भी अपने दायरे में खींचता है। मिसाल के तौर पर पूंजीपतियों की ‘पशु भावनाओं’ को बढ़ावा देने के लिए उन्हें जो भी सब्सीडियां दी जाती हैं, किसानी खेती को मिलने वाली उन सब्सीडियों की कीमत पर ही दी जाती हैं, जो परंपरागत रूप से किसानी खेती की वहनीयता में योगदान करती आयी थीं। इसके अलावा पूंजीवादी क्षेत्र का विकास, परंपरागत आर्थिक क्षेत्रों से मांग को छीनने का काम भी करता है।

इसलिए, पूंजी संचय अपरिहार्य रूप से, अपने इर्द-गिर्द की लघु उत्पादन अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का काम करता है। इसी प्रक्रिया को मार्क्स ने ‘पूंजी का आदिम संचय’ का नाम दिया था। और यह सब करते हुए भी वह अपने गिर्द की लघु उत्पादन व्यवस्था में से बहुत ही कम श्रम को ही अपनी ओर खींच रहा होता है। परंपरागत पूंजीवादी अर्थशास्त्र तो यही कहता है कि पूंजी के संचय की तेज रफ्तार, अपने गिर्द के संचित श्रम को खपा लेगी और इस तरह बेरोजगारी तथा गरीबी को घटा देगी। और अगर वह ऐसा नहीं भी करे तब भी इसका एक ही उपचार है कि पूंजी संचय की दर को और तेज किया जाए। लेकिन, परंपरागत पूंजीवादी अर्थशास्त्र के इस दावे के विपरीत, इस तरह का संचय इर्द-गिर्द के लघु उत्पादकों की अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का ही काम करता है, जबकि वहां से कोई खास श्रम खपाता भी नहीं है। इसका अर्थ है, बेरोजगारी और गरीबी का बढ़ना और अगर पूंजी संचय की दर बढ़ायी जाती है, तो इससे स्थिति सुधरने के बजाए यह प्रवृत्ति बदतर ही होती है।

वास्तव में ऐसा ही हुआ है और खुद सरकार के आंकड़े तक इसकी गवाही देते हैं। नव-उदारवादी निजाम में, जिसने इससे पहले के नियंत्रणकारी दौर में खेती को दिए जा रहे सभी संरक्षणों को हटा दिया है, किसानी खेती का कमजोर किया जाना तो स्वत:स्पष्टï ही है। इसकी अभिव्यक्ति किसानी खेती की लाभकरता में गिरावट में होती है। इसकी अभिव्यक्ति इस तथ्य में भी होती है कि 1991 और 2011 की जनगणनाओं के बीच जनगणना की ही परिभाषा के हिसाब से ‘काश्तकारों’ की संख्या में 1.5 करोड़ की कमी हुई थी। और यह सचाई पिछले तीन दशकों में 3 लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्याओं से पीड़ादायक तरीके से स्पष्टï हो जाती है।

अचरज की बात नहीं है कि नव-उदारवादी सुधारों की शुरूआत से ही सिर्फ नाबराबरी ही नहीं बल्कि गरीबी का परिमाण भी और कैलोरियों में आहार तक पहुंच के सबसे न्यूनतम पैमाने के हिसाब से भी गरीबी की परिमाण बढ़ता ही गया है। 1993-94 और 2011-12 बीच, जो कि दोनों ही राष्ट्रीय नमूना सर्वे के दीर्घ नमूना सर्वे वाले वर्ष थे, ग्रामीण भारत में 2,200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन आहार तक (जो कि ग्रामीण गरीबी का मूल सरकारी मानक था) पहुंच से वंचित लोगों का अनुपात 58 फीसद से बढ़कर 68 फीसद हो गया। इसी प्रकार शहरी भारत में 2,100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति आहार तक (जो कि शहरी भारत के लिए गरीबी का मूल मानक था) पहुंच से वंचित आबादी का अनुपात, 57 फीसद से बढक़र 65 फीसद हो गया।

2011-12 के बाद से तो हालात और बदतर ही हुए हैं। 2017-18 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के दीर्घ नमूना सर्वे से निकले आंकड़े इतने चौंकाने वाले थे कि मोदी सरकार ने इन आंकड़ों को दफन ही कर देने का और अपने पुराने रूप में इस सर्वेक्षणों को बंद ही करा देने का फैसला कर लिया। बहरहाल, इन आंकड़ों के दबाए जाने से पहले कुछ जानकारियां बाहर आ गयीं और इनसे पता चला कि 2011-12 और 2017-18 के बीच, ग्रामीण भारत में सभी आइटमों पर मिलाकर प्रतिव्यक्ति उपभोग खर्चे में वास्तविक मूल्य में 9 फीसद की गिरावट हुई थी। स्वतंत्र भारत में इससे पहले कभी भी कम से कम सामान्य हालात में ऐसा नहीं हुआ था। हां! किसी साल में फसल ही बहुत खराब हो गयी हो तो बात दूसरी है।

नव-उदारवाद के तहत किसानी खेती पर हमला वास्तव में तेज से तेजतर ही हो रहा है। इसकी ताजातरीन अभिव्यक्ति उन तीन कृषि कानूनों के रूप में हुई है, जिनका मकसद किसानों की कीमत पर बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाना है। यह हमला इतना विनाशकारी है कि दिल्ली के गिर्द के राज्यों से किसानों की विशाल संख्या इन कानूनों को वापस किए जाने की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आयी है।

अब हम नव-उदारवादी धारणा के दूसरे खोट पर आते हैं। पूंजीपतियों के निवेश सिर्फ ‘पशु भावना’ नाम की किसी अमूर्त चीज पर ही निर्भर नहीं करते हैं बल्कि उन मूर्त गणनाओं के आधार पर किए जाते हैं, जो पूंजीपतियों द्वारा बाजार में वृद्घि की संभावनाओं को आधार बनाकर की जाती हैं। बेशक, इस तरह की गणनाओं के आधार पर क्या किया जाता है, यह एक हद तक आशावादी या निराशावादी स्थिति होने से ‘पशु भावना’ जिसकी कि द्योतक है प्रभावित हो सकता है। लेकिन, यह साफ है कि अगर बाजार नहीं बढ़ रहा है या वृद्घि धीमी पड़ रही है, तो पूंजीपतियों का निवेश घट जाता है, चाहे उन्हें कितनी ही सब्सीडियां क्यों नहीं दी जाएं।

अब नवउदारवाद ने हर जगह आय की असमानता को बढ़ा दिया है। पिकेट्टी एंड चांसेल के अनुसार, कुल राष्ट्रीय आय में आबादी के शीर्ष 1 फीसद का हिस्सा, जो 1982 में सिर्फ 6 फीसद था, जो 2013-14 तक बढक़र 22 फीसद हो चुका था। यह करीब एक सदी में सबसे ज्यादा था। चूंकि मेहनतकश, अमीरों की तुलना में अपनी आय का ज्यादा बड़ा हिस्सा उपभोग में लगाते हैं, आय में बढ़ती असमानता, जो आय के मेहनतकशों के हाथों से निकलकर पूंजीपतियों के हाथों में पहुंचने को दिखाती है, उपभोग को तथा इसलिए सकल मांग को ही घटाने का काम करती है। और यह निवेश तथा वृद्घि को घटाने का ही काम करता है। संक्षेप में यह कि नव-उदारवाद, एक गतिरोधकारी प्रवृत्ति से ग्रसित रहता है। बहरहाल, समग्रता में पूंजीवादी व्यवस्था के लिए इस प्रवृत्ति पर अमरीकी अर्थव्यवस्था में उठने वाले बुलबुलों ने अंकुश लगाए रखा था। यह काम पहले 1990 के दशक में उठे ‘डॉटकॉम के बुलबुले’ ने किया था और उसके बाद इस सदी के पहले दशक में ‘आवासन के बुलबुले’ ने। ‘आवासन के बुलबुले’ के बैठने के बाद से विश्व अर्थव्यवस्था एक लंबे संकट में फंस गयी है, जिसका नव-उदारवाद के पास कोई समाधान ही नहीं है। वह तो ‘मांग प्रबंधन’ में शासन के हस्तक्षेप से ही चिढ़ता है।

इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। यहां महामारी के आने से पहले ही 2019 में बेरोजगारी की दर 45 वर्ष के अपने शिखर पर पहुंच गयी थी। इसका जनता पर दो तरह से असर पड़ा है। एक तो इससे मेहनतकशों की जिंदगी बहुत ही ज्यादा खराब हो गयी है। महामारी के आने से पहले भी वे नव-उदारवाद की नीतियों पर चले जाने की मार झेल रहे थे। रोजगार तथा उपभोग में हाल ही में आयी भारी गिरावट इसी को सामने लाती है।

दूसरे, इस संकट का नतीजा यह हुआ है कि बड़ी पूंजी और फासिस्टी हिंदुत्ववादी गुटों के बीच गठजोड़ पुख्ता हो गया है। मोदी सरकार इसी गठजोड़ के सहारे खड़ी हुई है। इस तरह का गठजोड़, सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। संकट के दौरों में बड़ी पूंजी, फासिस्टी गुटों के राजनीतिक उभार को बढ़ावा देती है तथा उनका वित्त पोषण करती है और इन गु्रपों के साथ गठजोड़ करती है। वह ऐसा इसलिए करती है ताकि विमर्श को ही बदलकर, ‘अन्य’ के दानवीकरण की ओर मोड़ सके और इस तरह अपनी आर्थिक दुर्दशा की तरफ से लोगों का ध्यान हटा सके। जहां सत्ता में आकर ऐसे ग्रुप बड़ी पूंजी के हित साधने का काम करते हैं, उन्हें राजनीतिक शक्ति इस आर्थिक संकट का कोई आर्थिक समाधान पेश करने से नहीं मिलती है बल्कि आर्थिक जीवन की ओर से लोगों का ध्यान ही हटाने से ही मिलती है।

संक्षेप में यह कि जहां नव-उदारवाद मेहनतकश जनता को तब भी निचोड़ रहा था जब वह ऊंची वृद्घि दर हासिल करने में समर्थ था। संकट में फंसने के बाद से उसने निचोड़ने की इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है, वहीं उसने एक ऐसी व्यवस्था को भी रचा है जो जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा सामाजिक समानता जैसे भारतीय संविधान के बुनियादी सिद्घांतों की ही दुश्मन है।

लेकिन, उदारीकरण के पैरोकार इस नुक्ते को अनदेखा ही कर देते हैं कि उससे चाहे जीडीपी की वृद्घि दर बढ़ गयी हो पर मेहनतकश जनता की हालत बदतर ही हुई है और भारतीय गणतंत्र के उन संस्थापक सिद्घांतों को ही कमजोर किया जा रहा है, जिनके आधार पर ही एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र निर्माण हो सकता है।

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