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थम्स अप: पाखंड और मार्केटिंग से लैस एक चाशनी

किसी विज्ञापन की अहमियत असल में होती क्या है? बहुत आसानी से प्रभावित हो जाने वाले नौजवानों के लिए चीनी सोडा बेचने वाले एथलीटों का यह मामला कोई छोटा मामला नहीं है। इस लगातार बदल रही दुनिया में जहां खेल को 'मैदान से बाहर' बड़े सवालों को उठाने के लिए मजबूर कर दिया गया है, वहीं ख़ास तौर पर भारत के खिलाड़ियों के लिए विज्ञापनों और इसके प्रचार-प्रसार से जुड़े पाखंडों के ख़िलाफ़ खड़े होने का वक़्त है।
थम्स अप: पाखंड और मार्केटिंग से लैस एक चाशनी
थम्स अप टोक्यो ओलंपिक विज्ञापन वीडियो में नज़र आते पहलवान बजरंग पुनिया (वीडियो फ़ुटेज से ली गयी तस्वीर)।

खिलाड़ियों की जागरूकता हमेशा से एक अहम चीज़ रही है। लेकिन, भारत हमेशा की तरह इस मामले में भी पिछड़ा हुआ है।

भारतीय खेल आख़िरकार एक ऐसी बड़ी धुंधली अवास्तविकता है, जो बाहर की दुनिया से बेख़बर है और जो देश के भीतर चल रही गतिविधियों से भी आसानी से अपनी आंखें फेर लेता है। यह उस आदर्श कल्पना और बुनियाद पर खड़ा है, जहां एक अर्ध-पेशेवर (कई मायने में ग़ैर-पेशेवर) सरकारीतंत्र से नियंत्रित माहौल के कारण पैदा होने वाली परेशानियों को झेलने के लिए भी तैयार रहता है। वे बहुत ज़्यादा जवाबदेह हुए बिना इस पेशेवर दुनिया के जाल में भी फंसा हुए हैं। इसका एक आदर्श नमूना पिछले हफ़्ते तब सामने आया, जब ओलंपिक के लिए खेलने वाले हमारे कुछ एथलीटों को अलग-अलग डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर कोका कोला कंपनी की शीतल पेय ब्रांड सहायक कंपनी द्वारा प्रसारित प्रचार में उन्हें थम्स अप की बोतलें गटकते हुए देखा गया।

कोका कोला लंबे समय से ओलंपिक गतिविधियों का प्रायोजक रहा है। वे टोक्यो खेलों के पेय भागीदार हैं और इस बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अपने भारतीय सब ब्रांड, थम्स अप को ओलंपिक खेल के पोर्टफ़ोलियो में शामिल करने का फ़ैसला किया है। इसमें कोई शक नहीं कि इंडिया इंक के लिए यह एक बड़ा ऐतिहासिक क्षण है। इंडिया इंक अपनी जगह बिल्कुल सही है क्योंकि कोला दिग्गजों के इस फ़ैसले का खेल से कोई लेना-देना तो है नहीं। भारतीय बाज़ार के आकार को देखते हुए दरअसल यह एक ऐसा ठोस कारोबारी क़दम है, जिसमें कोका कोला के पोषित लक्ष्य, यानी नौजवानों, वयस्कों और बच्चों की एक अच्छी-ख़ासी संख्या इसकी ज़द में है। इन संभावित ग्राहकों को खेल पसंद है। यह उन लोगों को छोड़कर बाक़ी सभी के लिए फ़ायदे का सौदा है, जो वास्तव में सेहत के लिए इस चीनी युक्त ख़तरनाक़ चीज़ को ख़रीदना और पीना छोड़ देते हैं। 

थम्स अप पहलवान बजरंग पुनिया, मुक्केबाज़ विकास कृष्ण यादव, तीरंदाज़ दीपिका कुमारी और अतनु दास और मनु भाकर सहित भारतीय निशानेबाज़ी टीम के सदस्य को उनके प्रचार अभियान शुरू करने, भारतीय एथलीट के संघर्ष को जन-जन तक पहुंचाने के प्रयास में ख़ुद को एक ब्रांड के रूप में स्थापित करने और उनका जश्न मनाने की कोशिश करते हुए उन्हें शामिल करने को लेकर पहसे से कहीं ज़्यादा गंभीर है। वास्तव में किसी विज्ञापन का जो मास्टरस्ट्रोक होता है, वह है- शुद्ध रूप से शीलत (अपने आप में यह जितना ठंडा हो सकता है) पेय पदार्थों के व्यापार रणनीति का बारीक़ी से किसी मक़सद के साथ बुना जाना।

इस विज्ञापन का औचित्य तभी माना जायेगा, जब विज्ञापन देखने के बाद लोग सोचने लगे कि हमारे ओलंपिक खिलाड़ी वास्तव में प्रशिक्षण के बाद ‘ताक़त’ हासिल करने के लिए थम्स अप की बोतलें गटकते हैं । हालांकि, ये खिलाड़ी थम्स नहीं पीते। कोई शक नहीं कि निजी तौर पर मैं जानता हूं कि बजरंग शायद ही कभी सोडा पीते हों। वह अपने शरीर में पानी और ऊर्जा की ज़रूरतों का ध्यान रखने के लिए दूध, पूरक चीज़ें और ताक़त देने वाले प्राकृतिक पेय पदार्थों पर ही भरोसा करते हैं। मुझे यक़ीन है और जैसा कि खेल से जुड़ा विज्ञान भी बताता है, टोक्यो जाने वाले भारत के तक़रीबन सभी खिलाड़ी थम्स अप जैसे मनगढ़ंत कहानियों से ख़ुद को दूर रखते हैं। ऐसे में आपका हैरत में पड़ जाना स्वाभाविक है कि आख़िर ये खिलाड़ी इस पाखंड के शिकार कैसे हो गये।

हालांकि, दूसरे सवाल इससे कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हैं। चूंकी यह एक व्यक्तिगत पसंद है, और यह उस खिलाड़ी का सरदर्द है, जो इस तरह से पाखंडी होना चाहता/चाहती है। मगर, जिस बात का ज़िक़्र किया जाना चाहिए, वह यह है कि इस उत्पाद के स्वास्थ्य से जुड़े प्रभावों को लेकर समझ होने के बावजूद उन्होंने आख़िर ऐसा क्यों किया, वे अनजाने में उन बहुत सारे लोगों के दिमाग़ में यह सब क्यों बैठा रहे हैं, जो कि इन खिलाड़ियों से प्रभावित हैं। वह भी ऐसे समय में, जब दुनिया भर में इस ख़तरे को लेकर एक आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा हो और कई खिलाड़ी उन ब्रांडों पर सवाल उठाना शुरू कर चुके हों और उन चीज़ों से परहेज करना शुरू कर दिया हो, जिनके बारे में उनका मानना है कि यह आदमी की सेहत और उसके हित के लिहाज़ से शायद ये ख़तरनाक़ है।

मिसाल के तौर पर हाल ही में कुछ सप्ताह पहले क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस डेस्क से कोक की बोतलें हटा दी थीं और कहा था कि इसके बजाय उन्हें पानी की बोतल चाहिए।ऐसा करते हुए उन्होंने कोका कोला या फिर इस तरह के बाक़ी सोडा ब्रांड को लेकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया था। उसी यूरो टूर्नामेंट में पॉल पोग्बा ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस टेबल पर रखी हेंकेन की एक बोतल को हटा दिया था। एक अल्कोहल ब्रांड की मौजूदगी ने उन्हें एक नैतिक दुविधा में इसलिए डाल दिया था, क्योंकि वह इस्लाम को मानते हैं। पोग्बा ने बियर से जुड़े स्वास्थ्य और सामाजिक प्रभावों को समझते हुए फ़ुटबॉल के दर्शकों की एक बड़ी संख्या के बीच स्थापित हो चुकी बियर की संस्कृति के एक हिस्से के रूप में बियर को नकारने के लिए शायद पूरे होश-ओ-हवास में ऐसा किया था, दुर्भाग्य से यह संस्कृति भारत में भी पनप चुकी है।

ज़ाहिर है कि दुनिया दूसरी दिशा की ओर बढ़ रही है, मगर थम्स अप का विज्ञापन इस बात का संकेत है कि भारत किसी और दिशा में बढ़ रहा है। यह बात पिछले साल भी एकदम साफ़ तौर पर तब दिखी, जब हमारे सबसे बड़े खेल सितारों ने जल्दबाज़ी में लगाये गये कोविड -19 लॉकडाउन के बाद भी देश में हो रही गड़बड़ियों को लेकर चुप रहना पसंद किया।, ज़ाहिर है कि हम क्रिकेटरों के बारे में ही बात कर रहे हैं। हम उन कम जाने जाते खिलाड़ियों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, जिन्हें प्रशंसकों के बीच अपनी कहानियों को पहुंचाने के लिए थम्स अप के स्वयं घोषित परोपकार की ज़रूरत पड़ती है। असल में कुछ लोगों ने पश्चिमी देशों में फैले ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के बारे में बात ज़रूर की थी, लेकिन उन्होंने कभी भी भारतीय खेल में रचे-बसे क्षेत्रवाद और नस्लवाद के संयोग को लेकर कोई बात नहीं की है।

ऐसा लगता है कि अलग-अलग रूपों में पाखंड यहां की व्यवस्था का अटूट हिस्सा है। ऐसा लगता है कि थम्स अप और कोका कोला ने इसे भांप लिया है, और बहुत सही समय पर उसने अपना निवेश किया है। रोनाल्डो वाली घटना से उनका पीआर प्रभावित हुआ था। ऐसा लगता है कि भारतीय ओलंपिक में उनका यह अभियान वैश्विक स्तर पर पैसा बाने की योजना का एक अहम हिस्सा है। कोई शक नहीं कि इस योजना पर बारीक़ी से काम किया गया है !

हालांकि, हम अपने खिलाड़ियों को लेकर ऐसा नहीं कह सकते। बिल्कुल, उन्हें पुर्तगाली फ़ुटबॉल स्टार की तरह ज़बरदस्त साहस दिखाने की ज़रूरत नहीं है। हम सभी को पता है कि क्रिकेटरों को छोड़कर भारतीय खिलाड़ी करोड़पति तो हैं नहीं। उनके पास बहुत ही कम और गिने-चुने विज्ञापन हैं। उनके पास जब भी कुछ गिने-चुने विज्ञापन आते हैं, तो वे उसे लपक लेने के लिए तैयार होते हैं। ऐसे में अगर सरकारी और निजी, दोनों ही फ़ंडों की मदद उन्हें मिले और विदेश में जीतने के बाद उनपर पुरस्कारों की बारिश हो, तो खिलाड़ी, ख़ास तौर पर थम्स अप के विज्ञापन को सम्मान के साथ मना कर सकते थे।

कोला जैसी दिग्गज कंपनी की तरफ़ से संपर्क किये जाने के सिलसिले में ख़ुद को प्रेरित करने के लिए बजरंग या भाकर या विकास को बहुत दूर देखने की ज़रूरत नहीं थी। विराट कोहली ने इस मशहूर डील को ठुकरा दिया था। हालांकि, कोहली क्रिकेट के रोनाल्डो हैं और उनकी तुलना हमारे ओलंपिक खिलाड़ी से करना मुनसाबि नहीं है। इन ओलंपिक खिलाड़ियों से तुलना करने के लिहाज़ से पुलेला गोपीचंद बेहतर खिलाड़ी होंगे। गोपी ने यह बताते हुए अपने 1997 के उस इनकार को सही ठहराया था कि जब उन्हें पता चला कि हर तरह से चीनी न सिर्फ़ बैडमिंटन के मैदान पर किये जाने वाले प्रदर्शन, बल्कि आम सेहत और अच्छे स्वास्थ्य के लिहाज़ से कितना बुरा है, तो उन्होंने चीनी के इस्तेमाल में कटौती कर दी थी।

ऐसा कहने के बाद भी गोपीचंद अपने सबसे मशहूर शिष्या पीवी सिंधु को पेप्सिको के एक सब ब्रांड गेटोरेड और एक मीठा "स्पोर्ट्स ड्रिंक" को ना कह पाने के लिए प्रेरित नहीं कर पाये। सिंधु का गेटोरेड के साथ एक लंबा जुड़ाव रहा है और उन्होंने इस ब्रांड के साथ कई कैंपेन भी किये हैं। लेकिन, सबसे ज़्यादा घातक पिछले साल का उनका वह कैंपेन था, जहां वह लॉकडाउन के दौरान भी घर से ही इस विज्ञापन को प्रमोट करती नजर आयी थीं। ठीक है कि सिंधु उस वीडियो में गेटोरेड पीती नज़र नहीं आ रही थीं, लेकिन उस क्लिप के आख़िर में इस ब्रांड का लोगो और एक स्लोगन नज़र आये थे।

अगर इस पेय उत्पाद के बारे में बात की जाये, तो गेटोरेड में शर्करा का स्तर कोला के मुक़ाबले कम तो है, लेकिन अगर इसका इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति सहजता के साथ अतिरिक्त कैलोरी का उपयोग नहीं कर रहा हो, तो लंबे समय तक इसका इस्तेमाल स्वास्थ्य प्रणाली में गड़बड़ी पैदा करने के लिहाज़ से ख़तरनाक़ है। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़, गेटोरेड की प्यास बुझाने वाले इस 20-औंस (तक़रीबन 600 मिली) मात्रा में 36 ग्राम चीनी होती है। यह 600 मिलीलीटर थम्स अप की बोतल में मौजूद उस चीनी की मात्रा से कम है, जिसकी मात्रा लगभग 60 ग्राम होती है।

इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि सिंधु को इन मात्राओं के बारे में जानकारी हो। आख़िरकार, खिलाड़ी इन दिनों कैलोरी की उन मात्राओं और उन खाद्य और पेय पदार्थों की रासायनिक संरचना से अच्छी तरह अवगत हैं, जिन्हें वे अपने खाने-पीने में शामिल करते हैं। सिंधु कोई छोटी-मोटी खिलाड़ी तो हैं नहीं। उसके पास कई विज्ञापन हैं और अगर वह चाहें, तो किसी ब्रांड को ना कहने का जोखिम उठा सकती हैं। ऐसा करने पर पूरे देश और बैडमिंटन जगत का ध्यान वह खींच सकती हैं और इसके लिए उनकी तारीफ़ भी की होगी।

लेकिन, इसके बजाय वह परोक्ष रूप से अपने चाहने वालों को गेटोरेड के साथ व्यायाम करने की अहमियत को उस लॉकडाउन के समय भी प्रोत्साहित करती दिखीं, जब दिन भर तरो-ताज़ा रहने या घूमने-फिरने के लिए घरों में पड़ते कम जगह के साथ भी इस उत्पाद के साथ सहोयग वह सहयोग करती नज़र आयीं (पढ़ें: कैलोरी की खपत करें)। बेशक, इस पेय पदार्थ में कम दोष तो है, लेकिन इतने से सिंधु दोषमुक्त नहीं हो जातीं हैं। अब सवाल पैदा होता है कि पहलवानों, निशानेबाज़ों, तीरंदाज़ों और मुक्केबाज़ों को बरी कर देने से क्या होगा। महज़ एक पदक?

थम्स अप के #palatde game (पलट दे गेम) विज्ञापन अभियान के साथ ही पदक का खेल शुरू हो गया है। पदक लेकर लौटने वाले ओलंपिक नायकों, यानी नौजवानों के प्रतीकों, जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकेगा और जिनकी एक सामाजिक हैसियत होगी, उन्हें इन विज्ञापनों में ज़्यादा से ज़्यादा उन बोतलें और डिब्बों को गटकते हुए देखा जायेगा, जो किसी पेय पदार्थ का का पर्याय बन जायेंगे और वे पेय पदार्थ किसी भी तरह की लत की तरह धीरे-धीरे स्वास्थ्य सूचकांक में शामिल हो जायेंगे। चीनी एक लत है और इस तथ्य को गैस भरे शीतल पेय और ऊर्जा देने वाले सभी पेय ब्रांडों के लेबल पर ठीक उसी तरह लिखा होना चाहिए, जिस तरह तंबाकू उत्पादों के लेबल पर चेतावनियां लिखी होती हैं।

अगर लेबल की बात करें तो उल्टा इन ब्रांड्स के लेबल इतने चकाचौंध से भरे होते हैं कि इनसे बच पाना बहुत मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए उस पानी को लिया जा सकता है, जिस पर रोनाल्डो ने ज़ोर देकर कहा था कि हम सभी को सोडा के बजाय इसे पीना चाहिए। निश्चित रूप से यह बड़े खिलाड़ियों में से किसी का एक ब्रांड होगा। ओलंपिक खेलों की प्रेस कॉन्फ्रेंस टेबल पर दरअसल पानी के नाम पर कोका कोला होगा। यह खेल हर संभव मंच पर खेला जा रहा है...

इस समय हम जिस दुनिया के हिस्से हैं, वह एक जागरूक होती दुनिया है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप टेबल के किस तरफ़ बैठे हैं, आप इस समय भी 'जागरूक' हैं, क्योंकि इतिहास में ऐसा कोई भी दौर नहीं रहा है, जब किसी मामले को लेकर हमारी धारणा हमारे नज़रिये और तर्क से ज़्यादा संचालित हुई हो, चाहे वह धारणा इस समय के मुक़ाबले त्रुटिपूर्ण या त्रुटिहीन रही हो, सही रही हो या ग़लत रही हो। ज़रूरी नहीं कि हमारा नज़रिया हमारा ही हो। यह नज़रिया हमेशा की तरह जानकारियों से लदी का एक ऐसी भीड़ है, जो दैनिक आधार पर प्रचार-प्रसार, विज्ञापन और बयानबाज़ी के ज़रिये हमें अपने अधीन कर लेता है।

यहीं से शीतल पेय का यह छोटा विज्ञापन अहम हो जाता है। क्योंकि इसमें धारणाओं को प्रभावित करने की ताक़त है और ऐसे हालात में इस तरह का झुकाव इसलिए महंगा साबित होगा क्योंकि मामला सेहत का है। हम सभी जानते हैं कि इस महामारी में हर कोई पूरी तरह सेहतमंद नहीं रहा है, बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से थोड़ा-बहुत बीमार ज़रूर रहा है, मगर इतना ही काफ़ी नहीं, निजी और सामाजिक क़ीमत चुकाना अभी बाक़ी है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Thums Up: Taste the Hypocrisy, the Marketing and the Catch

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