तिरछी नज़र: फ़क़ीर जी की फ़क़ीरी
पहले लोगों में बहुत ही असंतोष होता था। आठ नौ साल पहले तक तो बहुत ही असंतोष होता था। फिर एक नए सरकार जी आए। सरकार जी क्या, फकीर थे। फकीर भी ऐसे वैसे नहीं, बहुत पहुंचे हुए। शुरू में तो उनकी फकीरी का किसी को कुछ भी नहीं पता था। पता चलता भी कैसे। फकीरों वाले कोई लक्षण भी नहीं थे। लक्षण तो वही निपट राजनेताओं जैसे थे।
फिर हमें पता कैसे चला कि वे फकीर हैं? पता तो तब चला जब उन्होंने खुद ही बताया। उन्होंने स्वयं ही बताया कि, उनका क्या है? वे तो फकीर हैं। जब मन करेगा, झोला उठा कर चल देंगे। तो हमने भी मान लिया कि वे फकीर हैं और जब मन करेगा तो झोला उठा कर चल देंगे। वैसे यह बात कहे करीब सात साल हो चुके हैं पर उनका मन अभी तक झोला उठा कर चलने का नहीं हुआ है।
उनकी फकीरी पर तब और भी अधिक यकीन हो गया जब लंदन में फिल्मी कवि प्रसुन्न जोशी ने, अपने द्वारा लिए गए साक्षात्कार में सरकार जी से यह पूछा कि आप में यह फकीरी कहां से आई है? फकीर जी शरमा कर मंद मंद मुस्कुरा पड़े। मुझे ही नहीं, सारे देशवासियों को यकीन हो गया कि सरकार जी वास्तव में ही फकीर हैं। प्रसुन्न जोशी का वह शायद पहला और शायद अंतिम भी साक्षात्कार था। उसके पहले या फिर उसके बाद उन्होंने किसी का भी साक्षात्कार नहीं किया। किया हो तो कम से कम मेरे संज्ञान में तो नहीं ही किया है।
सरकार जी की फकीरी पर उससे भी अधिक यकीन तब हुआ जब उन्होंने सभी को फकीर बना दिया। सभी लोग झोला उठा कर चल दिए। दिल्ली से, मुम्बई से, बेंगलुरु से, कोलकाता से, यानी सभी बड़े शहरों से अपने गांव देहात की ओर चल पड़े। फकीर जी ने भी कहा, फकीर हो, बस या रेल की आशा मत रखो, बस फकीरी अंदाज में झोला, अटैची, बिस्तर, जो भी कुछ है, उठा कर पैदल ही चले चलो। यकीन हो गया कि यह फकीर खुद ही फकीर नहीं है, हम सब को भी फकीर बना कर ही मानेगा।
यहां लोगो लगाएं
हमारे सारे साधु संत, बाबा और फकीर, चाहे वो किसी भी धर्म के हों, एक बात जरूर बताते हैं। कहते हैं, संतोषी बनो। संतोष एक बहुत ही बड़ा गुण है। जीवन में संतोष बहुत ही काम की चीज है। संतोषी व्यक्ति सबसे अधिक सुखी व्यक्ति होता है। इसलिए जीवन में संतोष रखो। इस मोह माया के जाल से निकलो। किसी संत ने कहा भी है 'जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान'। इस फकीर ने भी हमें यही समझाना शुरू किया। बस नहीं समझा पाया तो अपने दोस्तों को नहीं समझा पाया।
फकीर जी ने भी जनता को संतोष रखने का मंत्र दिया। कहा संतोष रखो। संतोषी बन कर रहो। आटा है, चावल है, पर ईंधन नहीं है तो कच्चा खा कर पेट भर लो। संतोष कर लो। बस उफ़ मत करो। दूध महंगा कर दिया है, घर में नहीं है, खरीद नहीं सकते हो, बच्चा भूखा है। तो उसे पानी में आटा घोल कर पिला दो। उसे भी बचपन से ही जीवन की सच्चाई से अवगत कराओ। जीवन बहुत कठोर है। उसे बचपन से ही इस कठोर जीवन को जीने के लायक बनाओ। उसे भी जो कुछ है, उसी में संतोष करना सिखाओ।
लोग फकीर जी से बहुत प्रसन्न रहते हैं। लोगों को प्रसन्न रखने के लिए फकीर जी लोगों को उलझाए रहते हैं। वे जानते हैं अगर उलझाए नहीं रखेंगे तो लोग अपनी परेशानियां बताएंगे। शिकायतों का अंबार लगा देंगे। तो फकीर जी लोगों को उलझाए रहते हैं। लोग अपनी परेशानी भी भूले रहते हैं और उनका मनोरंजन भी होता रहता है। इससे लोग फकीर जी से प्रसन्न रहते हैं।
पुरानी बातें तो छोड़ो, अभी जब महामारी फैली हुई थी तब फकीर जी ने महामारी से लड़ने के लिए लोगों से बर्तन बजवाए, दीये जलवाए, गौमूत्र पिलवाया और गोबर से शरीर पुतवाया। यह सब करने के उत्साह में लोग महामारी को भूल गए। पर महामारी लोगों को नहीं भूली। महामारी न ताली से रुकी और न ही थाली से। न दिये से रुकी न बाती से। न गोबर से रुकी और न ही गौमूत्र से। उसे फैलना था, वह फैली। करोड़ों बीमार पड़े और लाखों मरे।
अब महंगाई है, बेरोज़गारी है। पर फकीर जी अपनी फकीरी दिखा रहे हैं। आज लोगों को देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं। लोगों को झंडा फहराने में उलझा रहे हैं। वे लोगों को कह रहे हैं, भूखे हो, बेरोज़गार हो, बेघर हो, कोई बात नहीं, डंडा फहराओ। सॉरी, सॉरी, डंडा नहीं, झंडा फहराओ। सॉरी, जस्ट स्लिप ऑफ टंग। जबान जरा फिसल गई। वैसे इन फकीर जी को देख कर के तो डंडा ही याद आता है। वह आरएसएस वाला डंडा। और हाफ पैंट भी।
वैसे फकीर जी की निगाह में देशभक्ति सरकार भक्ति ही है। सरकार भक्ति के सामने देशभक्ति कहीं नहीं ठहरती है। अंग्रेजों के जमाने में भी वे यही करते आए थे, अंग्रेजी सरकार की भक्ति को देशभक्ति बताते थे। वे चाहते हैं लोग अब उतने ही देशभक्त बनें जितने वे अंग्रेजों के जमाने में थे। देशभक्ति के नाम पर सरकार भक्ति करें। इसके लिए वे आजकल लोगों को घर घर झंडा फहराने में उलझा रहे हैं।
भूखे हो तो रोटी मत मांगो, झंडा मांगो। बेरोज़गार हो तो रोजगार मत मांगो, झंडा मांगो। बेघर भी घर नहीं, झंडा मांगें। अगले आठ दस दिन बस झंडा ही झंडा चलेगा। 'तेरे घर झंडा पहुंचा या नहीं'। 'अरे! मेरा झंडा तो अभी तक नहीं आया'। 'मेरा झंडा तो आ गया है'। 'तेरे यहां खादी का आया है या पॉलिस्टर का'। 'मेरे यहां तो पोलिस्टर का आया है'। 'मेरे यहां भी'।
और पंद्रह अगस्त के बाद, मौहल्ले में। 'पता है, गुप्ता ने झंडा नहीं फहराया'। 'वैसे तो बड़ा देशभक्त बनता है'। 'अरे नहीं! शोक में था। तीन दिन पहले ही उसकी माता जी का स्वर्गवास हो गया था'। 'अच्छा, हमें तो पता ही नहीं चला'। 'भई! हम तो घर घर झंडा बंटवाने में ही व्यस्त रहे। उसके घर भी तो दे कर आए थे, तब तो उसने नहीं बताया था'। 'आप तो उसके घर पांच दिन पहले गए थे। स्वर्गवास तो तीन दिन पहले ही हुआ है'। 'हुम्म...। लेकिन झंडा तो फहरा ही लेना चाहिए था'।
और ऑफिस में, कॉलेज में। 'हमारी सोसायटी में तो सबने अपने फ्लैट में झंडा फहराया था'। 'हमारे यहां भी। दो तीन तो मुल्ले हैं, उन्होंने भी'। 'अच्छा, उन्होंने भी'। 'हां सरकार जी ने सबको सीधा कर दिया है। डरे हुए हैं साले'। 'अरे नहीं, ये तो फहरा लेते हैं पर आरएसएस वाले कभी नहीं फहराते थे'। 'हां, सच में। एक बार तो आरएसएस के नागपुर वाले ऑफिस पर किसी ने जबरदस्ती तिरंगा फहरा दिया था। आरएसएस वालों ने पुलिस केस कर दिया था'। 'आरएसएस वाले भगवा फहराते हैं। वही है असली झंडा। यह तिरंगा तो निन्यानवे साल की लीज पर है'। 'तूने कहां पढ़ा'। 'वाट्सएप पर'।
ऐसे ही हंसी मजाक में, खिलखिलाते हुए दो चार हफ्ते गुजर जाएंगे। फिर जब रोजी रोटी की याद सताएगी तो फकीर जी कोई नया झुनझुना थमा देंगे। किसी और जगह उलझा देंगे। कुछ नया पाठ पढ़ा देंगे। कोई नया शिगूफा छोड़ देंगे। यही तो है फकीर जी की फकीरी।
(इस व्यंग्य स्तंभ 'तिरछी नज़र' के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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