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त्रिपुरा: सीपीआई(एम) उपचुनाव की तैयारियों में लगी, भाजपा को विश्वास सीएम बदलने से नहीं होगा नुकसान

हाई-प्रोफाइल बिप्लब कुमार देब को पद से अपदस्थ कर, भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व ने नए सीएम के तौर पर पूर्व-कांग्रेसी, प्रोफेसर और दंत चिकित्सक माणिक साहा को चुना है। 
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चित्र साभार: वनइंडिया 

कोलकाता: 60-सदस्यीय त्रिपुरा विधानसभा के लिए चुनावों में जाने से पहले, जो अगले नौ महीनों में होने वाले हैं, राज्य में 23 जून को चार विधानसभा सीटों के लिए उप-चुनाव होने जा रहे हैं। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के आलाकमान द्वारा हाल ही में मुख्यमंत्री पद में किये गये बदलावों को देखते हुए इन उप-चुनावों का अपना राजनीतिक महत्व है। हाई प्रोफाइल सीएम बिप्लब कुमार देब को पद से हटाकर, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इस पद के लिए पूर्व-कांग्रेसी, प्रोफेसर एवं दंत चिकित्सक माणिक साहा को नियुक्त किया है, जो अभी तक बीजेपी की राज्य ईकाई के प्रमुख और पूर्व राज्य सभा सदस्य रहे हैं। 

फिलहाल के लिए साहा राज्य भाजपा प्रमुख बने रहने वाले हैं।  उन्होंने दावा किया है कि “उनकी देब के साथ काफी अच्छी केमिस्ट्री है। न्यूज़क्लिक के द्वारा संपर्क में आये सूत्रों के अनुसार, अगले विधानसभा चुनावों से नौ महीने पहले अचानक से मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाना, “राजनीतिक हलकों, आम लोगों सहित खुद देब के लिए” पूरी तरह से आश्चर्यचकित करने वाला फैसला रहा है। एक सूत्र का कहना था, “वे अब अपनी अगली पोस्टिंग की प्रतीक्षा कर रहे होंगे, लेकिन पार्टी आलाकमान उन्हें दरकिनार नहीं कर सकता है; क्योंकि उन्होंने पूर्व में भाजपा राज्य प्रमुख के रूप में पार्टी की पहली जीत को सफल बनाने के लिए कड़ी मेहनत की थी, और उनकी इस भूमिका को देखते हुए शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से नवाजा था।” इसके साथ ही देब ने सरकार में जूनियर पार्टनर - इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (आईपीऍफ़टी) को भी मन्त्रिमंडल में अच्छे से प्रबंधित कर रखा था।  

नए मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के 40 दिनों के भीतर ही होने वाले चार विधानसभा उपचुनाव साहा के लिए एक गंभीर चुनौती हैं। इन चार सीटों में, एक सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीआई(एम)] के दिग्गज और उप-सभापति रामेन्द्र चंद्र देबनाथ की मृत्यु के चलते खाली हुई है।   

इसके अलावा, तीन भाजपा विधायकों के द्वारा पार्टी का दामन छोड़ दिया गया था। इनमें से दो - सुदीप रॉय बर्मन और आशीष कुमार साहा ने विधानसभा से इस्तीफ़ा देने के बाद कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी।  तीसरे सदस्य, आशीष दास पिछले साल अक्टूबर में पाला बदलकर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गये थे, जिन्हें सभापति द्वारा अयोग्य घोषित कर दिया गया था।  27 मई को दास ने टीएमसी पर यह आरोप लगाते हुए नाता त्तोड़ दिया कि इसका उद्द्येश्य कांग्रेस को कमजोर करना और भाजपा को फायदा पहुंचाना है।  

जिन विधानसभा सीटों में उपचुनाव होना है, वे हैं जुबराजनगर (सामान्य), अगरतला (सामान्य), बोर्दोवाली (सामान्य), और सुरमा (एससी)। दलबदल के चलते भाजपा की विधानसभा में ताकत 36 से घटकर 33 हो चुकी है।  मुख्यमंत्री के सामने चुनौती इस संख्या को एक बार फिर से 36 तक पहुंचाने की है। काफी कुछ “नए मुख्यमंत्री के द्वारा अपने पूर्ववर्ती के साथ की मजबूत केमिस्ट्री होने के दावे” पर देब के रुख पर निर्भर करता है। 

वहीं दूसरी तरफ, माकपा के राज्य सचिव जितेन्द्र चौधरी ने घोषणा की है कि पार्टी सभी चार सीटों पर “पूरी गंभीरता के साथ” चुनाव लड़ने जा रही है।  पार्टी के दिग्गज माणिक सरकार, जिन्होंने मार्च 1998 से लेकर मार्च 2018 तक मुख्यमंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला था, ने न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में चौधरी के कथन को पुष्ट किया। सरकार ने कहा, “हमारे लिए, आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के अस्तित्व के लिए जरुरी मुद्दों को उठाना और संघर्ष में उन्हें साथ लेकर चलने की लड़ाई हमेशा की तरह बनी हुई है।” कांग्रेस रॉय बर्मन और आशीष साहा को क्रमशः अगरतला और बोर्दोवाली से चुनावी मैदान में उतार सकती है। 

जबकि 26 जून को होने जा रहे उप-चुनावों के परिणाम आगामी फरवरी 2023 को होने वाले नियमित विधानसभा चुनावों के लिए कुछ आवश्यक संकेत दे सकते हैं, वहीं यह कहना पर्याप्त होगा कि राज्य के छोटे आकार के बावजूद यह एक जटिल कवायद होने जा रही है। 

एक नया दल तिप्राहा इंडिजेनस प्रोग्रेसिव अलायन्स (टीआईपीआरए) इस मुकाबले में शामिल होने जा रहा है, जिसकी कमान राज्य के शाही वंशज प्रद्योत किशोर देबबर्मन के हाथ में है।  ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), जिसने 2018 में कुछ दलबदलुओं को नामित किया था, वह भी अपना छाप छोड़ने की कोशिश में जुटी हुई है। इसके लिए सुबाल भौमिक की अध्यक्षता में एक राज्य कमेटी का गठन किया गया है, और जिन लोगों को इसका कार्यभार सौंपा गया हैं उनमें असम की पूर्व कांग्रेस सांसद, सुष्मिता देव और पश्चिम बंगाल के पूर्व टीएमसी मंत्री राजीब बनर्जी शामिल हैं।  

इस बीच, भाजपा की सहयोगी आईपीएफटी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। ऐसा जान पड़ता है कि 80 साल के वयोवृद्ध नेता नरेंद्र चंद्र देबबर्मा के द्वारा बेहद कुशलता से पैंतरेबाजी के सहारे फिलहाल के लिए विभाजन की संभावना को टाल दिया गया है, जिन्होंने न केवल साहा मंत्रिमंडल में अपने स्थान को सुनिश्चित बनाये रखा है, बल्कि प्रभावशाली मेवार जमातिया के स्थान पर प्रेम कुमार रियांग को स्थानापन्न कराने में सफल रहे हैं। हालाँकि, जमातिया जो कि अब आईपीएफटी के महासचिव हैं और देब के मंत्रालय में मंत्री थे, के द्वारा क्या कदम लिया जाता है, को राजनीतिक हलकों में बेहद उत्सुकता के साथ देखा जाने वाला है। उनकी कोशिश आईपीएफटी को शाही वंशज वाले टीआईपीआरए के साथ विलय की चल रही थी; जिसने नरेंद्र को पूरी तरह से नाराज कर दिया था, जिन्होंने घोषणा की है कि आईपीएफटी अपनी पहचान को कायम रखेगा और भाजपा का सहयोगी दल बना रहेगा। 

न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में जहाँ प्रद्योत किशोर ने जमातिया के इस दांव के बारे में जानकारी होने से इंकार तो नहीं किया लेकिन साथ ही वयोवृद्ध नेता और जमातिया के बीच की हालिया कलह को “पार्टी के भीतर का आंतरिक मामला” बताया। त्रिपुरा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बिराजित सिन्हा ने संकेत किया है कि उनकी पार्टी 2018 की हताशा से उबर चुकी है, जब वह राज्य में अपना खाता खोल पाने में विफल रही थी। भाजपा से पाला बदलकर कांग्रेस में आने वाले रॉय सिन्हा और आशीष साहा के बारे में उधृत करते हुए सिन्हा ने न्यूज़क्लिक से कहा, “इंतजार कीजिये और देखते रहिये; यह प्रवृति अभी और बढ़ने जा रही है।”

राजनीतिज्ञों के विभिन्न समूहों के साथ हुई न्यूज़क्लिक की बातचीत से पता चलता है कि 2023 में बड़ी लड़ाई से पहले राज्य में बड़े पैमाने पर दल-बदल होने की संभावना बनी हुई है। दृश्यता का अभाव और पार्टी के भीतर प्रमुख स्थानीय चेहरों की अनुपस्थिति टीएमसी को दलबदलुओं के आसरे पर रहने के लिए निर्भर बना देती है। ऐसों का ख्याल रखने के लिए उसके पास आवश्यक संसाधन मौजूद हैं। जानकार सूत्रों के अनुसार, टीएमसी के द्वारा किराये पर कोलकाता-अगरतला-कोलकाता के लिए चार्टर्ड उड़ानें लेना बेहद आम बात हैं। वहीं दूसरी तरफ, 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले स्वंयसेवकों के द्वारा किये गये गहन जमीनी काम और एक कार्यकाल के शासन के कारण भाजपा इस बार दलबदल पर कम निर्भर है। 2023 के लिए इसकी प्रमुख चिंता उम्मीदवारों की सूची को अंतिम रूप देने के बाद असंतुष्ट तत्वों को शांत रखने की रहने वाली है। राजनीति के दिग्गजों का कहना है कि टिकट न मिलने पर वे लोग टीएमसी अथवा कांग्रेस में अपने लिए स्थान की तलाश करेंगे।    

इस बारे में, माकपा को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। इसके पास अपने समर्पित नेता हैं और सालों साल राजनीतिक गतिविधियों में शामिल रहने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं का समूह मौजूद है।  हालाँकि माकपा के लिए चिंता की एक वजह अवश्य है। वाम मोर्चा का पश्चिम बंगाल मॉडल त्रिपुरा में भी अपने वजूद में है, लेकिन उसके साझीदार - सीपीआई, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थिति पहले से कमजोर हुई है। सीट बंटवारे के फार्मूले के तहत, उन्हें चुनाव लड़ने के लिए तीन-चार सीटें मिलती हैं (चार तब जब आरएसपी दो सीटों पर लड़ती है); लेकिन 60-सदस्यीय सदन में सीटों की मामूली संख्या भी काफी मायने रखती है। 2018 में भाजपा के पक्ष में भारी बदलाव इसी वजह से हुआ था, जिसमें इसे माकपा के 16 के मुकाबले 36 सीटें प्राप्त हुई थीं। लेकिन, वोट शेयर के मामले में माकपा का वोट प्रतिशत 44.3% था जो भाजपा के 41.4 फीसदी से अधिक था। आरएसपी के 0.7% और सीपीआई के 0.4% के साथ, वाम मोर्चे का मत प्रतिशत 45% से अधिक था। कांग्रेस को जहाँ 1.9% के साथ संतोष करना पड़ा था, वहीं टीएमसी के खाते में सिर्फ 0.3% वोट ही आये थे। 

यह पूछे जाने पर कि क्या अचानक से देब को हटाने की वजह से राज्य के भाजपा कार्यकताओं के बीच में प्रतिकूल प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है, पर महासचिव टिंकू रॉय ने न्यूज़क्लिक को बताया, “भाजपा कोई एक स्वामित्व वाली संस्था नहीं है; उनके द्वारा संपन्न किये गये कामों को उनके उत्तराधिकारी के द्वारा आगे बढ़ाया जायेगा। मुख्यालय नेतृत्व को महसूस हुआ कि देब को नई जिम्मेदारी दी जानी चाहिए और एक नए नेता को मंत्रालय का नेतृत्व सौंपना चाहिए; बस इतनी सी बात है। देब सहित सभी भाजपा नेता, सत्ता को बरकरार रखने और बचाए रखने के लिए मिलकर लड़ेंगे।”

माकपा के राज्य सचिव चौधरी ने कहा कि भाजपा ने आम लोगों की उम्मीदों को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचा दिया था, लेकिन उन्हें पूरा कर पाने में वह विफल साबित हुई है। इस बारे में पूछे जाने पर कि क्या उनकी पार्टी एक बार फिर से सत्ता हासिल कर पाने को लेकर आश्वस्त है, पर चौधरी ने कहा, “सत्ता हासिल करने के प्रयास में सता पर काबिज होने के लिए बल प्रयोग के इस्तेमाल की संभावना छुपी हो सकती है। हम अपने सुपरिभाषित कार्यक्रमों के जरिये लोगों की बेहतरी के लिए काम करते हैं और इसमें सभी वर्गों के लोगों को शामिल करते हैं। हम आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच कोई भेद नहीं करते हैं।” कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने की संभावना के बारे में पूछने पर, जिस पर कांग्रेस का आलाकमान हाल के वर्षों में वामपंथियों के साथ गठजोड़ करने की संभावनाओं के प्रति ग्रहणशील रहा है, पर उनका कहना था: “हमारे पास इस लाइन पर सोचने के लिए कोई अवसर नहीं है। यदि ऐसा कुछ होता है तो कांग्रेस को मतदाताओं को बताना होगा कि वह वामपंथियों के साथ गठबंधन क्यों करना चाहती है। “

पूर्व मुख्यमंत्री सरकार के विचार में 2018 के चुनाव में त्रिपुरा की राजनीति में जिस प्रकार का वैचारिक विचलन देखने को मिला था, वह “जनकेंद्रित सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के बजाय उनकी ध्रुवीकरण की राजनीति की वजह से न तो अभी तक अपनी जडें जमा सका है, और न आगे भी जमा सकता है”। माकपा ने भाजपा के केंद्र में आठ वर्षों के शासन और त्रिपुरा में चार साल के प्रदर्शन के असर का मूल्यांकन किया है। पार्टी के मुताबिक, उनके लिए, सांप्रदायिक-कॉर्पोरेट गठजोड़ ही मायने रखता है, लेकिन त्रिपुरा में इसका दायरा काफी सीमित है, और यहाँ पर उनकी कोशिश आदिवासी-गैरआदिवासी के बीच में विभाजन करने की है।  

कांग्रेस के साथ गठबंधन की संभावना पर, सरकार ने कहा, “कुछ सप्ताह पहले हुई पार्टी कांग्रेस में राजनीतिक लाइन को स्पष्ट किया गया था; हम उसके मुतबिक चलेंगे और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने स्वंय के बल पर इसे सफलतापूर्वक लड़ने के प्रति आश्वस्त हैं।”

पीसीसी प्रमुख सिन्हा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि कांग्रेस एक नई मांग को उठाने जा रही है- जिसमें आम लोगों के जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए एक केंद्रित दृष्टिकोण के साथ 50 विकास परिषदों के जरिये त्रिपुरा का शासन चलाने का प्रश्न है। लंबे समय से चली आ रही मंत्रालय की अवधारणा, जैसा कि संविधान में उल्लिखित है, त्रिपुरा के मामले में कारगर नहीं रही है। इस मांग को प्रमुखता से उठाने और इसके समर्थन में द्लीतों को सूचीबद्ध करते हुए एक ज्ञापन राज्यपाल के कार्यालय को सौंपा जा चुका है। 

टीआईपीआरए के प्रद्योत किशोर ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, वे किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन में जाने पर विचार कर सकते हैं, जो दशकों से गरिमा के साथ गुणवत्तापूर्ण जीवन से वंचित कर दिए हमारे लोगों के आर्थिक उत्थान के लिए संवैधानिक गारंटी की हमारी मांग का समर्थन करेगा और उसके लिए लड़ने के लिए तैयार है। यदि हमारी शर्त मंजूर नहीं है तो हम विधानसभा के भीतर अपनी उपस्थिति के लिए टीआईपीआरए की पहली लड़ाई के लिए अकेले ही इसमें उतरेंगे, और इस प्रकार राज्य की राजनीति में अपनी छाप छोड़ेंगे।

ट्वीप्रा स्टूडेंट्स फेडरेशन (टीएसऍफ़) के सलाहकार, उपेन्द्र देबबर्मा से जब संगठन की राजनीतिक प्राथमिकताओं और इससे जुड़े प्रिय मुद्दों के बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “देखिये, हम गैर-राजनीतिक लोग हैं; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। हम अपने घोषणापत्र के साथ इसे जोड़कर देखते हैं, और जब  हम पाते हैं कि यह मांग लोगों और हमारे लिए लाभकारी है तो हम उसका समर्थन करते हैं। दूसरी स्थिति में हम उसे नजरअंदाज कर देते हैं। अवैध घुसपैठ अभी भी चिंता का विषय बना हुआ है।” 

उन्होंने आगे कहा, “बांग्लादेश के साथ तीन तरफ से त्रिपुरा की सीमा लगती है। हालांकि, बाड़बंदी से एक अच्छीखासी दूरी को सुरक्षित कर लिया गया है, इसके बावजूद सीमा छिद्रपूर्ण बनी हुई है, जिसके चलते अवैध घुसपैठ का अवसर मिल जाता है। हम नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 का भी पुरजोर विरोध करते हैं। “

जहाँ तक 2023 में होने वाले विधानसभा चुनावों के संदर्भ में प्राथमिकता का प्रश्न है, टीएसएफ नेता का इस बारे में कहना था कि, “संगठन ने अभी इस मामले में विचार नहीं किया है। हालाँकि, अच्छा होगा यदि आईपीएफटी और टीआईपीआरए के बीच में एकता हो जाये।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Tripura: CPI (M) Gears up for Bypolls, BJP Feels CM Change not a Setback

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