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यूपी चुनाव और दलित: फिर पकाई और खाई जाने लगी सियासी खिचड़ी

चुनाव आते ही दलित समुदाय राजनीतिक दलों के लिए अहम हो जाता है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। उनके साथ बैठकर खाना खाने की राजनीति भी शुरू हो गई है। अब देखना होगा कि दलित वोटर अपनी पसंद किसे बनाते हैं, तो चलिए जानते हैं कि कहां-कितने दलित वोटर...
यूपी चुनाव और दलित: फिर पकाई और खाई जाने लगी सियासी खिचड़ी

देश का सबसे बड़ा सियासी कुनबा उत्तर प्रदेश.. जहां राजनीतिक दिग्गजों ने अपने-अपने मोहरे तैनात कर दिए हैं। सही मायने में इन मोहरों के हाथ में प्रदेश के लिए विकास का खाका होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। कोई हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांग रहा है, तो कोई ओबीसी के नाम पर, कोई दलित के नाम पर। हालांकि गठबंधन के जरिये अलग-अलग सामाजिक समीकरण साधने की भी कोशिश की जा रही है। देखना होगा इसमें किसको कितनी सफलता मिलती है।

1990 तक 8 बार ब्राह्मण, 3 बार राजपूत मुख्यमंत्री

मोटा-माटी नज़र डालें तो 1990 से पहले के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर राजपूत और ब्राह्मण जातियों का खासा प्रभाव हुआ करता था। आजादी से लेकर 1990 तक यूपी में 8 बार ब्राह्मण और तीन बार राजपूत मुख्यमंत्री हुए हैं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद राजनीति में पिछड़ा और दलित समुदाय का दबदबा बढ़ गया। राजनीति में फिर जिस जाति की जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का फॉर्मूला लागू हो गया।

दलित वोट के लिए मुख्यमंत्री का खिचड़ी भोज

उत्तर प्रदेश में 2022 विधानसभा चुनावों की घोषणा होते ही हाल ही में हमने बहुत दुर्लभ तस्वीरें देखी, जिसमें एक तस्वीर गोरखपुर से थी, जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक दलित के घर बैठकर खिचड़ी खा रहे थे, एक लिहाज़ से देखा जाए तो आज के दौर में दलित को दलित कहकर उसके घर खिचड़ी खाना, अपमान जैसा मालूम होता है, लेकिन ये उत्तर प्रदेश की राजनीति है, यहां जातियां ही देखी जाती हैं। यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को वहां जाने पर मजबूर होना पड़ा। जैसे 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले प्रयागराज कुंभ के दौरान प्रधानमंत्री ने सफाईकर्मियों के पांव धोए थे।

अखिलेश यादव के साथ स्वामी प्रसाद मौर्य

वहीं दूसरी तस्वीर देखने को मिली लखनऊ में सपा कार्यालय के बाहर से, जहां अखिलेश यादव के साथ एक मंच पर बीजेपी छोड़ने वाले तमाम दलित नेता मौजूद थे, इसमें स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी भी शामिल थे... कुल मिलाकर सभी राजनीतिक पार्टियां सिर्फ धर्म के आधार पर ही नहीं बल्कि ज़ातियों के आधार पर भी वोट बैंक तैयार कर रही हैं।

जब सुरक्षित सीटों से जीतकर पूर्ण बहुमत से बनी सरकार

उत्तर प्रदेश में 21 फीसदी दलित वोटरों ने जिस पार्टी का दामन थामा है, चुनावों में उसका बेड़ा पार हुआ ही है। यानी दलित साइलेंट वोटर ज़रूर है, लेकिन निर्णायक है।

2007 में बीएसपी ने सबसे ज्यादा सुरक्षित सीटों पर जीत हासिल की वो पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई, 2012 में सुरक्षित सीटों पर समाजवादी पार्टी का दबदबा रहा और वो भी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई, यही हाल 2017 में हुआ जब बीजेपी ने सुरक्षित सीटों पर ऐतिहासिक जीत हासिल की।

आंकड़ों के लिहाज़ से समझें तो प्रदेश की 403 सीटों में करीब 300 सीटें ऐसी हैं जहां दलित असरदार भूमिका में होता है, 20 जिलों में तो 25 प्रतिशत से ज्यादा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी है।

प्रदेश में दलितों का वोट प्रतिशत

उत्तर प्रदेश का करीब 21 प्रतिशत दलित वोटर जाटव और गैर जाटव में बंटा हुआ है, अगर जाटव दलित की बात करें तो वो 11.70 प्रतिशत है, जो की बीएसपी का कोर वोटर माना जाता है, उसके बाद 3.3 प्रतिशत पासी हैं। बात अगर कोरी, वाल्मीकि की करें तो वो 3.15 प्रतिशत हैं, वहीं धानक गोंड और खटीक 1.05 प्रतिशत हैं। अन्य दलित जातियां भी 1.57 प्रतिशत हैं। उत्तर प्रदेश की कुल 403 सीटों में 84 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित विधानसभा सीटें हैं।

उत्तर प्रदेश के कुछ दलित आबादी वाले जिलों पर नज़र डालें:

सोनभद्र में 41.92%, कौशाम्बी में 36.10%, सीतापुर में 31.87%, हरदोई में 31.36% उन्नाव में 30.64%, रायबरेली में 29.83%, औरैया में 29.69%, झांसी में 28.07%, जालौन में 27.04%, बहराइच में 26.89%, चित्रकूट में 26.34%, महोबा में 25.78%, मिर्जापुर में 25.76%, आजमगढ़ में 25.73%, लखीमपुर-खीरी में 25.58%, हाथरस में 25.20%, फतेहपुर में 25.04%, ललितपुर में 25.01%, कानपुर देहात में 25.08%अम्बेडकर नगर में 25.14%

इन वोट प्रतिशत के जरिए साल 2007 में मायावती ने 206 सीटों और 30.43 प्रतिशत वोट बैंक के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, हालांकि साल 2012 में उनका जादू फीका पड़ा गया और लगातार वोट बैंक गिरने लगा, वजह साफ थी, बीजेपी की सेंधमारी।

राजनीति में वोट बैंक के रूप में मुस्लिम का हुआ प्रयोग

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय भी पिछड़ा है, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के लिहाज से मुस्लिमों की आबादी लगभग 20 फ़ीसदी है, 1990 से पहले जहां मुस्लिमों के वोट बैंक पर कांग्रेस पार्टी की मजबूत पकड़ हुआ करती थी लेकिन 1990 के बाद सपा और बसपा ने इस जाति पर मजबूत पकड़ बना ली। वहीं प्रदेश में आजादी के बाद से ही इस जाति को केवल वोट बैंक समझा जाता रहा है।

चंद्रशेखर की नहीं बनी अखिलेश से बात

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भले ही स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्म सिंह सैनी को सफलता पूर्वक अपने साथ जोड़ लिया है, लेकिन आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद उनके साथ नहीं जुड़ पाए। हालांकि अंत समय तक बात चली, लेकिन बन नहीं पाई। चंद्रशेखर ने ये आरोप लगाया है कि अखिलेश यादव को दलित वोटरों का ज़रूरत नहीं है। जबकि दूसरी ओर अखिलेश यादव 80 और 15 का गेम समझाने में लगे हुए हैं।

भीम आर्मी प्रमुख और आज़ाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद की बात करें तो वे भी पश्चिम उत्तर प्रदेश के दलितों में अच्छी पकड़ रखते हैं, यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर उनका अखिलेश से गठबंधन होता तो बीजेपी के लिए और बड़ी चुनौती होती।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का समीकरण

साल 2017 विधानसभा चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुल 136 सीटों में से 109 पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, जबकि 20 सीटें सपा के खाते में आई थीं, वहीं कांग्रेस को 2 और बसपा को 3 सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार माहौल अलग है, क्योंकि किसान आंदोलन के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी का रुतबा बढ़ा है, और वो सपा के साथ हैं, लेकिन इसी बीच चंद्रशेखर की भीम आर्मी के सदस्यों ने भी इलाकों में घूम-घूमकर खुद को स्थापित करने की कोशिश की है।

आपको बता दें कि पश्चिमी यूपी में 136 में 95 सीटें ऐसी हैं, जहां जाट-मुस्लिम-दलित को मिलाकर 60 फीसदी से ज्यादा का आंकड़ा तैयार होता है। जिस पर हर पार्टी की नज़र है।

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