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उत्तराखंड चुनाव: ‘बीजेपी-कांग्रेस दोनों को पता है कि विकल्प तो हम दो ही हैं’

उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद उत्तराखंड में 2000, 2007 और 2017 में भाजपा सत्ता में आई। जबकि 2002 और 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनाई। भाजपा और कांग्रेस ही बारी-बारी से यहां शासन करते आ रहे हैं।
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मामूली वेतन वाली नौकरी के लिए पहाड़ के अपने गांव को छोड़कर महानगर की ओर जाते युवा। जंगली जानवरों की मुश्किल के चलते खेत बंजर छोड़ते किसान। घर से खेत और खेत से जंगल के फेरे लगाती महिला। पहाड़ के अस्पताल से मैदान के अस्पताल को भागते मरीज। सीमा पर चौड़ी होती सड़कों के बीच गांव की सड़कों के लिए आंदोलन करते ग्रामीण। ज़रा सी बारिश में ढहते पहाड़ और आपदा से दरकते गांवों के बीच पहाड़ के जल-जंगल-ज़मीन का मुद्दा। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के इन सवालों पर इस विधानसभा चुनाव में और उत्तराखंड की राजनीति में लंबी चुप्पी ही सुनाई देती है।बीजेपी से 6 साल के लिए निष्कासित होकर कांग्रेस में आए हरक सिंह रावत

दलदलीय राजनीति

नामांकन शुरू हो चुके हैं। कई नेता जो पिछली बार भाजपा से चुनाव लड़ रहे थे इस बार कांग्रेस से पर्चा भर रहे हैं। तो कई कांग्रेसी इस बार भाजपाई हुए। दल-बदल का उद्देश्य एक ही है कि सत्ता में बने रहना है।

कुछ गौर करने लायक नामों में से हैं, डॉ हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य, सरिता आर्य। इन नेताओं की राजनीतिक यात्रा, उत्तराखंड की राजनीतिक यात्रा का प्रतीक कही जा सकती है।

2012 के विधानसभा चुनाव में डॉ हरक कांग्रेसी थे, 2017 में भाजपाई बने, 2022 में फिर कांग्रेसी। अपनी बहू अनुकृति गुंसाई रावत को लैंसडाउन से टिकट दिलाने के लिए उन्होंने कांग्रेस के दरवाजे से चुनाव में एंट्री ले ली।

नैनीताल से भाजपा प्रत्याशी सरिता आर्य ने चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया। वे कांग्रेस के महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष थीं। राजनीतिक परिवार से जुड़ी सरिता 2012 में कांग्रेसी विधायक बनीं। इस बार अपना टिकट कटता देख उन्होंने भाजपा का दामन पकड़ लिया।कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाली भाजपा उत्तराखंड की अपनी राजनीति में परिवारवाद के अच्छे उदाहरण देख सकती है।  

धर्म-राष्ट्र

पिछले 5 वर्षों में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों उत्तरकाशी, मसूरी, सतपुली में हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव की खबरें आईं।मुख्यमंत्री धामी ने पर्वतीय क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय बदलाव को लेकर ज़िला प्रशासनों से रिपोर्ट तलब की।रुड़की में हिंदूवादी संगठन के सदस्यों ने चर्च पर हमला किया।हरिद्वार में दिसंबर 2021 में धर्म संसद के नाम पर साधु-संतों की हेट स्पीच सोशल मीडिया पर ख़ूब सुनी गई।देवभूमि और सैन्य प्रदेश के रूप में पहचान रखने वाले उत्तराखंड के लोगों में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की भावना है। जिसका राजनीति लाभ चुनाव में वोटों में तब्दील होता है।

भाजपा ने सैन्य धाम बनाने के लिए शहीदों के आंगन की मिट्टी जुटाने की राजनीतिक यात्रा की।दिसंबर में देहरादून आए राहुल गांधी की जनसभा में स्वर्गीय जनरल बिपिन रावत के पोस्टर प्रमुखता से लगाए गए। पूर्व सैनिकों और शहीद सैनिकों के परिजनों को सम्मानित किया गया।


जातिवाद

उत्तराखंड में सवर्ण जातियां  78.3 %  हैं। इसलिए सवर्ण जातियां ही यहां निर्णायक मतदाता हैं।उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद उत्तराखंड में 2000, 2007 और 2017 में भाजपा सत्ता में आई। जबकि 2002 और 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनाई। भाजपा और कांग्रेस ही बारी-बारी से यहां शासन करते आ रहे हैं।2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 57 सीटें और 47% वोट शेयर मिला। जबकि कांग्रेस को 11 सीटें 33.8% वोट शेयर। अन्य 2 सीट और 10.1 % वोट शेयर।2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 32 सीटें 33.8% वोट शेयर, भाजपा को 31 सीटें 33.1% वोट शेयर मिला। जबकि निर्दलीय को 3 सीट, बीएसपी को 3 सीट और यूकेडी को एक सीट पर जीत मिली थी।वोट शेयर के लिहाज से देखें तो भाजपा यहां कांग्रेस के आसपास या अधिक ही रही है। बीएसपी, यूकेडी जैसे क्षेत्रीय दलों ने अपनी पहचान खोई है। आम आदमी पार्टी भी इस चुनाव में कुछ वोट प्रतिशत लेकर जाएगी। जिसका फायदा भाजपा को मिल सकता है।

 विरोधी लहर

रसोई गैस, सरसो-रिफाइंड तेल से लेकर पेट्रोल-डीज़ल तक बढ़ी महंगाई ने जनता को त्रस्त किया है। नौकरियां न मिलने और भर्ती परीक्षाएं न होने से युवाओं की भाजपा सरकार के प्रति निराशा झलकती है।भाजपा को इस चुनाव में विरोधी लहर का कुछ सामना भी करना पड़ेगा। इसी जद्दोजहद में, 4 साल तक मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को चुनावी वर्ष में हटा दिया गया। भाजपा ने उनकी जगह तीरथ सिंह रावत फिर पुष्कर धामी पर दांव लगाया।खटीमा से चुनाव लड़ने वाले युवा पुष्कर सिंह धामी हिट हो गये और भाजपा के पोस्टर ब्वॉय बन गए। अब वे कह रहे हैं कि मुझे काम करने के लिए सिर्फ 6 महीने मिले। इन 6 महीनों में उन्होंने घोषणाओं की झड़ी लगा दी। देवस्थानम बोर्ड वापस लेने जैसे चुनावी फैसले भी लिए।

उधर, त्रिवेंद्र सिंह रावत ने चुनाव न लड़ने का ऐलान किया।

त्रिवेंद्र के चार साल के कामकाज और भाजपा की उपलब्धियों के तौर पर चारधाम परियोजना, सीमांत क्षेत्र में बन रही सड़कें, बद्रीनाथ-केदारनाथ का पुनर्निर्माण, होम स्टे, स्वयं सहायता समूहों को मज़बूत बनाने की योजना, महिलाओं के लिए घसियारी योजना और पति की पैतृक संपत्ति में पत्नी को सहखातेदार बनाना, बंजर खेतों में सोलर फार्मिंग योजनाएं गिनाई जा रही है।जबकि भू-कानून में बदलाव को लेकर भाजपा सरकार के खिलाफ युवाओं ने रोष जताया है।

कमज़ोर विपक्ष

महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, गांव की सड़कों, धर्म संसद में हेट-स्पीच जैसे मुद्दों पर राज्य में मज़बूत विपक्ष की कमी खलती रही। चुनाव से ठीक पहले तक प्रदेश कांग्रेस एक तरफ और हरीश रावत एक तरफ नज़र आ रहे थे। ट्विटर पर हरीश रावत ने ट्वीट कर अपना दर्द उजागर भी किया। पार्टी की अंदरूनी कलह सार्वजनिक तौर पर दिखती रही .इस सबके बावजूद उत्तराखंड में कांग्रेस का सबसे मजबूत चेहरा 2017 में दो विधानसभा सीटों से चुनाव हारने वाले हरीश रावत ही हैं।चमोली जिले की तीन विधानसभा सीटों के लिए नामांकन करते हुए संयुक्त वाम के प्रत्याशी

अन्य विकल्प

इस विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की धीमी आवाज भी सुनाई दे रही है। मुफ्त बिजली, महिलाओं को एक हज़ार भत्ता से जैसे लुभावने वादों के साथ।वाम दल राज्य में स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बेरोजगारी, महंगाई, राजधानी और जल-जंगल-जमीन के सवालों को विधानसभा से लेकर सड़क तक उठाने और हल करने के लिए जनता के बीच चुनाव में मौजूद हैं।चमोली के जोशीमठ के एक्टिविस्ट अतुल सती का एक  ट्वीट है; “क्योंकि यह दोनों पार्टियों को पता है कि विकल्प तो हम दो ही हैं, इसलिए घोड़ा-गधा-खच्चर जो भी देंगे उनमें से ही चुनना पड़ेगा। बगैर इन दो विकल्पों को ठुकराए उत्तराखण्ड राज्य के भविष्य के बदलने की उम्मीद नहीं कर सकते”।

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(देहरादून से स्वतंत्र पत्रकार वर्षा सिंह)

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