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वाद-विवाद : सरकार की प्रवक्ता नहीं बन सकती सेना

सेना और सरकार में तालमेल होना आवश्यक है किंतु यह तालमेल जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्धारित सीमाओं और मर्यादाओं में घालमेल की स्थिति बना दे तो चिंता स्वाभाविक है।
सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत एवं अन्य।
Image Courtesy: Moneycontrol (File Photo)

पिछले दिनों कुछ हैरान करने वाले दृश्य देखने को मिले। सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने सरकार समर्थक समझे जाने वाले एक निजी चैनल के (कई बार नकारात्मक कारणों से) चर्चित पत्रकार को एक विस्तृत साक्षात्कार दिया। इसके बाद एयर चीफ मार्शल बी एस धनोवा एक पत्रकार वार्ता में राफेल सौदे की पेचीदगियों पर सेना की ओर से स्पष्टीकरण सा देते नजर आए।

सेना प्रमुख के साक्षात्कार के दौरान चर्चा उन मुद्दों के आसपास घूमती रही जो आज देश की राजनीति को आंदोलित किए हुए हैं। देश के सेना प्रमुख के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह सेना की गोपनीय रणनीतियों की सार्वजनिक चर्चा करेंगे और साक्षात्कार में ऐसा कुछ हुआ भी नहीं। जनरल बिपिन रावत पूरे साक्षात्कार में बहुत संयत और मर्यादित रहे। किन्तु उनका अपने विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के लिए एक निजी चैनल का चयन करना और साक्षात्कार में संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दों का समावेश कई सवाल छोड़ जाता है। 

सेना अब तक सार्वजनिक बयानबाजी से परहेज करती रही है। सैनिक अनुशासन इसके लिए इजाजत भी नहीं देता। सैनिकों की कंडीशनिंग कुछ इस प्रकार से की जाती है कि वह भावनाओं पर विजय प्राप्त कर एवं उचित-अनुचित तथा न्यायोचित-अन्यायपूर्ण जैसे नैतिक प्रश्नों को दरकिनार कर यंत्रवत अपनी गतिविधियों को संपादित कर सकें। रेजिमेंटेशन शब्द की उत्पत्ति ही सेना के ऐसे प्रशिक्षण के कारण हुई है जो सैनिकों की वैयक्तिक पहचान की समाप्ति कर उन्हें किसी यंत्र के कल पुर्जों की भांति कार्य कराने में सहायक होता है। यदि अन्य सैन्य अधिकारी और सामान्य सैनिक भी सेना प्रमुख की भांति संवेदनशील विषयों पर अपने विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति मीडिया के माध्यम से करने की चेष्टा करें तो यह निश्चित ही अनुशासनहीनता की परिधि में आएगा और शायद वे अपनी अभिव्यक्ति में सेना प्रमुख की भांति संयत भी न रह पाएंगे। 

जैसे ही सेना अपने शौर्य, पराक्रम, रणनीति और इरादों को सार्वजनिक विमर्श में स्वयं ले आती है वैसे ही वह खुद को जनता की उन्मुक्त प्रतिक्रियाओं के लिए प्रस्तुत कर देती है। आवश्यक नहीं है कि यह प्रतिक्रियाएं प्रशंसात्मक ही हों। संभव है कि किसी रणनीतिक या राजनीतिक कारण से सेना द्वारा बरते गए संयम को आम जनता का एक भाग कायरता के रूप में देखे और उसकी आलोचना करे। इन आलोचनाओं पर सेना की प्रतिक्रिया क्या होगी? क्या वह जनता और मीडिया के साथ निरर्थक वाद-विवाद में उलझ जाएगी? या वह पब्लिक डिमांड के आधार पर अपनी युद्ध नीति तय करेगी? क्रिकेट मैच में भी खिलाड़ी जनता की हूटिंग की परवाह किए बिना टीम मीटिंग में तय की गई रणनीति पर अमल करते हैं यह तो फिर सैन्य संघर्ष है जिस पर देश की सुरक्षा निर्भर है।

युद्ध की चर्चा और युद्ध का भय राजनीतिज्ञों की वोट बटोरने की रणनीति का एक अपरिहार्य हिस्सा हो सकता है और यह 24x7 प्रसारण की दिक़्क़तों का सामना करते मीडिया को बड़ी राहत और अच्छी टीआरपी भी दे सकता है किंतु सच्चाई यह है कि युद्ध किसी भी सरकार की (और विशेषकर लोकतांत्रिक सरकार की) प्राथमिकता नहीं होता। सीमा पर जारी तनाव और सरहद पार से जारी आतंकवाद के बावजूद सरकारें यह अच्छी तरह जानती हैं कि युद्ध से यह समस्या हल होने वाली नहीं है। युद्ध की हिंसा और इसके फलस्वरूप होने वाली जनहानि के पक्ष को यदि विमर्श में न भी लाया जाए तब भी युद्ध हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान तो पहुंचाएगा ही। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों आदि के दीर्घकालिक प्रभाव देश को दशकों पीछे ले जाने वाले होंगे। यही कारण है कि आज सेना की भूमिका आक्रामक से अधिक रक्षात्मक लगती है। यह जानते हुए भी कि आक्रामक रणनीति सैन्य विजय दिला सकती है, राजनीतिक और कूटनीतिक विजय प्राप्त करने के लिए सेना को रक्षात्मक भी होना पड़ता है और इस कारण सैनिकों को अपना प्राणोत्सर्ग भी करना होता है। यदि हल्के राजनीतिक विमर्श में हिस्सा लेने वाले राजनीतिक दलों के देशभक्त प्रवक्ताओं, रोजगार की तलाश में भटक रहे सैन्य विशेषज्ञों और भाषा के उग्रवाद में विश्वास करने वाले एंकरों की ललकार और सहानुभूति से प्रभावित होकर सेना के अधिकारी सरकार से युद्ध की मांग करने लगें तो विषम परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

सेना प्रमुख ने साक्षात्कार के दौरान  संतुलित उत्तर दिए और उनका अभिमत हमेशा एक सेना प्रमुख जैसा ही रहा एक राजनीतिज्ञ जैसा नहीं। राष्ट्रवाद के संदर्भ में उन्होंने विविधता में एकता को हमारी शक्ति बताया और भारत को एक सेकुलर राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने कहा आजादी के बाद सत्तर सालों में राष्ट्रीय एकता की भावना बढ़ी है और हम एक इकाई के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बना रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने कही वह यह थी कि भारत लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा संचालित है और सेना इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत कार्य करती है। यह सेना का दायित्व है कि वह निर्वाचित सरकार की नीतियों के अनुसार कार्य करे भले ही निर्वाचित सरकार किसी भी दल की हो या उसकी विचारधारा जो भी हो।

सेना प्रमुख विपिन रावत ने सेना में खरीद की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया इतनी व्यापक और बहुस्तरीय होती है कि गड़बड़ी की संभावना नहीं होती। उन्होंने राफेल डील के संबंध में कहा कि सच सामने आ जाएगा। जबकि बी एस धनोवा ने अपनी पत्रकार वार्ता में राफेल सौदे का खुलकर बचाव किया। उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड पूर्व में हुए अनुबंध के अनुसार निर्धारित समय सीमा में युद्धक विमानों की आपूर्ति करने में असफल रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि दसॉल्ट एविएशन द्वारा स्वयं अपना ऑफसेट पार्टनर चुना गया एवं इसमें भारत सरकार तथा वायु सेना की कोई भूमिका नहीं थी। उन्होंने रेखांकित किया कि राफेल सौदे में हमें अच्छा पैकेज मिला जो अनेक प्रकार से फायदेमंद था। उन्होंने राफेल को एक बेहतरीन विमान बताते हुए इसे भारतीय उपमहाद्वीप की सामरिक परिस्थितियों के अनुकूल बताया। उन्होंने इस इमरजेंसी परचेस को सरकार का साहसिक कदम बताया और कहा कि इस गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट डील में भ्रष्टाचार की गुंजाइश नहीं है।

इस पूरे राफेल विवाद में सेना की भूमिका कभी संदेह के घेरे में नहीं रही। जिन गड़बड़ियों की आशंका व्यक्त की जा रही है उनके लिए विपक्ष सरकार के शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहरा रहा है। इसके बावजूद सर्वोच्च सैन्य अधिकारियों द्वारा इस विवाद में हस्तक्षेप आम जनता को यह संदेश तो देता ही है कि सेना सरकार के बचाव में सामने आई है। सरकार के निर्वाचित जन प्रतिनिधि जनता के समक्ष उत्तरदायी हैं और इसलिए वे जनता को इस सौदे के संबंध में सफाई देने हेतु विवश हैं। किंतु सेना के सम्मुख तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। सेना और सरकार में तालमेल होना आवश्यक है किंतु यह तालमेल जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्धारित सीमाओं और मर्यादाओं में घालमेल की स्थिति बना दे तो चिंता स्वाभाविक है। राफेल सौदे की सच्चाई सामने लाने के लिए अनेक तरीके अपनाए जा सकते हैं। अंत में न्यायपालिका का दरवाजा भी खटखटाया जा सकता है। न्यायपालिका या ऐसी ही किसी उपयुक्त एवं अधिकृत संस्था के सम्मुख सेना, मांगे जाने पर अपना पक्ष रख सकती है किंतु बिना मांगे मीडिया के जरिए अपनी बात रखकर सेना न केवल अपने मीडिया ट्रायल को आमंत्रण दे रही है बल्कि अपने आचरण को जन प्रतिक्रियाओं का विषय भी बना रही है।

सेना के शौर्य,पराक्रम और कार्यप्रणाली पर सार्वजनिक चर्चा और राजनीतिक विवाद सर्जिकल स्ट्राइक के बाद शुरू हुआ। सरकार ने सैनिकों के पराक्रम का श्रेय स्वयं लेने की कोशिश की। जब विपक्ष को ऐसा लगा कि सरकार को सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिक लाभ मिल रहा है तो उसने यह दर्शाने का प्रयास किया कि एक रूटीन कार्रवाई को सरकार अपनी विशिष्ट उपलब्धि बता रही है। इसके बाद जो निम्नस्तरीय राजनीतिक वाद विवाद प्रारंभ हुआ उसमें सेना के विषय में भी अनेक अशोभनीय टिप्पणियां की गईं और सेना ने इन टिप्पणियों पर अपनी सफाई देकर जाने अनजाने यह संकेत दे दिया कि वह जन प्रतिक्रियाओं और राजनीतिक वाद विवाद से निर्लिप्त नहीं रह सकती। अपने साक्षात्कार में भी जनरल रावत ने कहा कि भारतीय सेना कभी झूठ नहीं बोलती और लोगों को उस पर विश्वास करना चाहिए, हमेशा हर ऑपेरशन के सबूत एकत्रित करना सेना के लिए संभव नहीं होता। यद्यपि उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे विवादों से सेना के मनोबल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। किंतु ऐसे प्रश्नों को प्रतिक्रिया देने योग्य मानकर वे स्वयं दर्शा रहे हैं कि सेना इनके प्रति संवेदनशील है।

लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता परिवर्तनशील होती है, जो कल सत्ता में थे आज विपक्ष में हैं और जो आज सत्ता में हैं कभी न कभी विपक्ष में चले जाएंगे। किंतु यह कल्पना करना ही भयावह है कि इनमें से कोई दल अधिक राष्ट्रभक्त और सैनिकों के प्रति अधिक प्रेम और सम्मान रखने वाला है और कोई दल कम राष्ट्र भक्त या सेना का कम आदर करने वाला है। इस विचार का उत्पन्न होना ही घातक है किंतु उससे भी चिंताजनक है इस परसेप्शन को पुष्ट करने के लिए सैन्य अधिकारियों के कथनों का उपयोग किया जाए। क्या सैनिक और उनके परिजन महज एक वोट बैंक हैं और उनकी कुर्बानी सस्ती सुर्खियां बटोरने वाली कोई मामूली घटना? यह प्रश्न हम सबके लिए विचारणीय है।

जन भावनाएं अराजक होती हैं। जब शहीदों के परिजन विलाप करते हुए एक के बदले दस सर लाने की मांग करते हैं तो यह अपना बेटा या पति या भाई या पिता खो चुके आहत मन की आर्त पुकार होती है। किंतु यदि वह शहीद यदि अपने परिजनों से संवाद कर पाता तो यही कहता कि हां! यदि मैं सैनिक अनुशासन तोड़ता तो शायद एक दो शत्रु सैनिकों को और मार गिराता किंतु मैंने वही किया जो मेरे देश के हित में तथा देश की गरिमा और मर्यादा तथा कूटनीतिक हितों के अनुकूल था। सैनिकों की राष्ट्र भक्ति और वीरता फार्मूला फिल्मों के दृश्यों की तरह नाटकीय नहीं होती। सैनिकों के लिए राष्ट्र हित सर्वोपरि होता है और तदनुकूल एक सुविचारित रणनीति के तहत वे कार्य करते हैं। जनता और मीडिया को इस अंतर को समझना होगा। सैन्य अधिकारियों को भी राजनीतिक आरोपों और जन दबावों के प्रति निर्लिप्तता दिखानी होगी तभी देश का प्रजातांत्रिक स्वरूप अक्षुण्ण रहेगा और निखर कर सामने आएगा।

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