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वेनेज़ुएला : क्या ट्रम्प के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?

वेनेज़ुएला की राजधानी कराकास से कोई 13858 किलोमीटर दूर बैठे हम हिन्दुस्तानियों को इत्ती दूर के घटनाविकास पर क्यों चिंतित होना चाहिये? बता रहे हैं बादल सरोज
फाइल फोटो। साभार

चलिये, दो काल्पनिक दृष्टांतों से शुरु करते हैं।

#प्रमेय_एक ; 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 सीट जीतने के बाद चांदनी चौक की एक आमसभा में राहुल गांधी चुनाव नतीजों को न मानने की घोषणा करते हैं, या 2019 की धुलाई के बाद ब्रह्मा जी हेडगेवार भवन से ऐसा ही करते हैं : खुद को असली प्रधानमन्त्री घोषित कर देते हैं और शब्दशः सात समंदर पार बैठा अमरीकी राष्ट्रपति उन्हें मान्यता प्रदान कर देता है।

#प्रमेय_दो : 2018 के पाकिस्तान के चुनाव में हारने के बाद लाहौर के अनारकली स्क्वायर पर खड़े होकर नवाज शरीफ इमरान खान की पार्टी की जीत को मानने से इनकार कर देते हैं और ट्रम्प उसे मान्यता प्रदान कर देता है।

दोनों ही मामलों में अमरीकी ठकुरसुहाती वाले कुछ देश आनन फानन में ट्रम्प की हाँ में हाँ में मिलाते हैं। यह धतकरम, जिसे आमभाषा में तख्तापलट कहते है, कैसा लगेगा आपको ??

ट्रम्प ठीक यही काम वेनेज़ुएला के लोकतांत्रिक तरीके से विधिवत निर्वाचित राष्ट्रपति के साथ कर रहा है। हाल में हुए चुनाव में वेनेज़ुएला की जनता ने 67.6 प्रतिशत वोटों के विशाल समर्थन से निकोलस मादुरो को दोबारा राष्ट्रपति निर्वाचित किया था। 10 जनवरी को मादुरो ने अपना पदभार ग्रहण किया और दो सप्ताह भी नहीं गुजरे थे कि निर्णायक रूप से हारे हुए बन्दे ने अमरीकी इशारे पर कराकास के चौराहे पर खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया और पहले ट्रम्प और उसके बाद उसके लगुओं-भगुओं ने उसे मान्यता प्रदान कर दी।

अब दुनिया भर का पूँजी नियंत्रित मीडिया अमरीकी सफ़ेद झूठ की जुगाली करेगा, मादुरो और उनकी पार्टी के बारे में कहानियां गढ़ी जायेंगी। (हमारा मीडिया अंतर्राष्ट्रीय खबरों के लिए अमरीकी झूठ फैक्ट्री की एजेंसियों पर सौ फीसद निर्भर है।) सेना के किसी दुष्ट जनरल के कंधे पर रखकर बन्दूक चलेगीं और - अगर उनकी चली तो - वेनेज़ुएला पर अमेरिकी कॉर्पोरेट की तानाशाही कायम हो जायेगी।

दुनिया भर को लूटने के यही ढंग-ढौर हैँ लोकतंत्र के स्वयंभू थानेदार और असलियत में पृथ्वी के सबसे दुष्ट राष्ट्र संयुक्त राज्य अमरीका के; यही है जो सऊदी अरब सहित दुनिया की सारी बर्बर राजशाहियों का संरक्षक और सैनिक तानाशाहियों का पिता है।

अरे किस देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री कौन होगा ये कौन तय करेगा? उसी देश की जनता !! तू कौन मैं खामखां गिरी काहे किये पड़े हो बुरबक?

वेनेज़ुएला के जनमत से इसकी चिढ़ की वजह क्या है ?

कोई डेढ़ दशक पहले तक एक अकेले क्यूबा को छोड़कर बाकी पूरा लैटिन अमरीका महाद्वीप इस संयुक्त राज्य अमरीका (यूएसए) के चंगुल में हुआ करता था। वाशिंगटन वाले इसे अपना बैकयार्ड - पिछ्वाड़ा - कहा करते थे। ताँबा, अभ्रक, तेल, खेती, जमीन, अफीम खेती सब पर अमरीकी कॉर्पोरेट के कब्जे थे। कभी कहीं किसी ने - जैसे चिली ने - कोई बदलाव का रास्ता चुना तो उसके चुने हुए राष्ट्रपति को राष्ट्रपति पैलेस में ही गोलियों से भुनवा दिया गया।

ह्यूगो चावेज़ की रहनुमाई में वेनेज़ुएला ने साम्राज्यवादी गुंडई के इस वर्चस्व तोड़ा और देखते देखते चिली, बोलीविया, अर्जेंटीना, ब्राज़ील, पेरूग्वे, उरुग्वे, सहित (एक कोलंबिया को छोड़कर जहां वाम उम्मीदवार मात्र आधा प्रतिशत वोट से हार गया था) सभी लातिनी अमरीकी देशों में जनहितैषी सरकारें आ गयी। जो अँधेरे में डूबा बैकयार्ड था वो अब वामोन्मुखी नीतियों की गुलाबी आभा से आलोकित हो उठा।

अमरीकी पिट्ठू सत्ता से बाहर हुए। अमरीकी कॉर्पोरेट खदानों-तेल के कुओं-उद्योग धंधों और वित्तीय संस्थाओं से खदेड़े गए। जमीन कंपनियों से छीन कर किसानों में बंटी। सारा मुनाफ़ा स्कूल अस्पताल खोलने और घर बनाने में लगाया जाने लगा।

इतना ही नहीं तकरीबन सभी दक्षिण अमरीकी देशों ने मिलकर एक साझा वैकल्पिक रास्ता चुना और इसे अपने 500 साल पुराने उपनिवेशवाद विरोधी योद्धा साइमन द बोलिवर के नाम पर बोलिवेरियन ऑल्टरनेटिव कहा। विश्व बैंक और आईएमएफ के मुकाबले आपस में मदद देने के लिए अपनी खुद की एक बैंक बनाई।

हालात यहां तक पहुंचे कि दक्षिण अमरीकी देशो के संगठन आर्गेनाईजेशन ऑफ़ अमेरिकन स्टेट्स से संयुक्त राज्य अमरीका (यूएसए) को बाहर कर दिया गया ।

दुनिया में पेट्रोलियम का 5वां सबसे बड़ा भण्डार होने के चलते वेनेज़ुएला की वामोन्मुखी सरकार हमेशा अमरीका की आँखों में चुभती रही। ह्यूगो चावेज़ की मौत के बाद तकरीबन हर महीने ट्रम्प और उससे पहले ओबामा की देखरेख में वेनेज़ुएला के खिलाफ साजिशें रची जाती रहीं, हर बार जनता उसे असफल करती रही। हाल में हुए ब्राजील के चुनाव में एक धुर दक्षिणपंथी पगले के जीत जाने के बाद से ट्रम्प कुछ ज्यादा ही ट्रम्पियाये हुए हैं।

वेनेज़ुएला की राजधानी कराकास से कोई 13858 किलोमीटर दूर बैठे हम हिन्दुस्तानियों को इत्ती दूर के घटनाविकास पर क्यों चिंतित होना चाहिये? वेनेज़ुएला की जनता का साथ देने के लिए। हाँ, बिल्कुल। मगर जिन्हें यह दूर की कौड़ी लगती है उन्हें अपने स्वार्थ के लिए ही इसका संज्ञान ले लेना चाहिये। इसलिये कि अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर यदि जोर जबरई से खेल के नियम बदलते हैं तो उसके सांघातिक असर से हम भी नहीं बचेंगे। दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में टांग अड़ाने से खूनखराबा कराने तक की अमरीकी दुष्टई की विश्वव्यापी निंदा भर्त्सना नहीं हुयी तो उसकी पिपासा से कोई नहीं बचेगा ; भारत भी नहीं। और यह सिर्फ आशंका भर नहीं है ।

इस लिहाज से भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया बोदी और लचर है। इसमें कमजोर सी चिंता है, मेलमिलाप की तटस्थ सद्भावना है और कूटनीति की भाषा के घिसे-घिसाये बेमतलब शब्द हैं। किसी सम्प्रभु राष्ट्र के घरेलू मामलो में अमरीकी हस्तक्षेप की निंदा तो दूर उसके अनौचित्य पर खिन्नता तक नहीं है। यह एक जमाने में दुनिया के 108 देशों के गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अध्यक्ष और उसके शिल्पी के रूप में विश्वव्यापी आदर वाले भारत देश की प्रतिक्रिया नहीं हैं। यह एक डरे हुए देश की हकलाती सरकार की रिरियाहट है।

प्रेमचन्द होते तो पूछते ; क्या ट्रम्प के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे ? सो भी उस अमरीका के खिलाफ जो कश्मीर में आग भड़काने की हर हरकत के पीछे है, जो हिन्दुस्तान को अफगानिस्तान की भट्टी में झोंकने को तत्पर है !!

सरकारें जब अपनी विदेशनीति को कुछ धंधों के मुनाफों से जोड़ दें तब अवाम का जिम्मा होता है कि वह उन्हें वापस पटरी पर लाये । रोजमर्रा की तकलीफों से लड़ते जूझते हुए ही/भी अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर भी सोचे विचारे बोले ।

क्योंकि भेड़िया जब शिकार पर आमादा हो कर निकलता है, नरभक्षी हो जाता है तो किसी को नहीं बख्शता । वेनेज़ुएला में यही भेड़िया नाखून फैला रहा है।

(ये लेख बादल सरोज के फेसबुक वॉल से लिया गया है। ये उनके निजी विचार हैं।)

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