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व्यवस्था के खिलाफ बोलने वाले लेखक-बुद्धिजीवी सत्ता को पसंद नहीं

ऐसे में जब कवि-लेखक, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, मजदूरों, किसानों पर दमनात्मक कार्रवाई की जा रही है तो क्या सबकुछ पुलिस, सरकार पर छोड़कर निश्चिंत हुआ जा सकता है?
anshu malviya

पिछले चार साल में जबसे भाजपा सरकार सत्ता में आई है तबसे राज्य अपनी आम जनता और बुद्धिजीवियों के प्रति कहीं अधिक असहिष्णुअसंवेदनशील और क्रूर हो चुका है। वर्तमान में सत्ता के फासीवादी चरित्र के खिलाफ बोलने वाला कोई भी भारतीय नागरिक आसानी से देशद्रोही घोषित किया जा सकता है।

गुरुवार, 7 फरवरी को जब देश के कोने-कोने से हज़ारों छात्र भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ दिल्ली में जंतर-मंतर पर 'यंग इंडिया अधिकार मार्च' में शामिल हुए तभी शाम को इलाहाबाद से खबर आती है कि सामाजिक कार्यकर्ता और कवि अंशु मालवीय व सफाई कर्मचारी नेता दिनेश को क्राइम ब्रांच ने कुम्भ मेला क्षेत्र से गिरफ़्तार कर लिया है। अंशु मालवीय कुम्भ क्षेत्र में सफाई मजदूरों को उचित दिहाड़ी देने की मांग कर रहे थे। मेलाधिकारी विजय करन ने इससे पहले अंशु मालवीय पर NSA लगाने की धमकी दी थी। 

मोदी सरकार का सफाई कर्मचारियों के प्रति असंवेदनशील रवैया कुम्भ मेले में इससे पहले भी उजागर हुआ है। प्रशासन की लापहरवाही के कारण अब तक कई सफाई कर्मचारियों की मौत हो चुकी है।  

ऐसे में प्रशासन के खिलाफ अंशु मालवीय जैसे  आवाज उठाने वाले बुद्धिजीवियों की मुखरता सत्ता व्यवस्था को सुहा नहीं रही है। 

आखिर किस तर्क से सत्ता व्यवस्था, सरकार और प्रशासन की आलोचना करना गुनाह है? आज जब भाजपा सरकार स्वच्छता अभियान, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया और अनेक लोकलुभावन वादों के नाम पर जनता को बरगलाने की कोशिश में है, ऐसे में कुम्भ मेला जिसमें सरकार 4300 करोड़ रुपये ख़र्च होने का दावा कर रही है उसमें सफाई कर्मचारियों के ये हालात और उनके पक्ष में आवाज़ उठाने वाले लोगों पर दमनात्मक कार्यवाई भाजपा सरकार के गणतंत्र विरोधी चरित्र को बखूबी उज़ागर करता है।

ऐसे में जब अंशु मालवीय जैसे सामाजिक कार्यकर्ता सत्ता व्यवस्था के खिलाफ बोलते है तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाता है। हालांकि अंशु मालवीय को कुछ घण्टों बाद  रिहा कर दिया गया। लेकिन ऐसे में  जब कवि-लेखक, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, मजदूरों, किसानों पर दमनात्मक कार्रवाई की जा रही है तो  क्या सबकुछ  पुलिस, सरकार  पर छोड़कर निश्चिंत हुआ जा सकता है? हमें यह समझना होगा कि  सामाजिक कार्यकर्ताओं पर संकट देश पर भी संकट है और इस संकट से मुक्त होने के लिए इस फासिस्ट सत्ता व्यवस्था के ख़िलाफ़ लेखक संगठनों  बुद्धिजीवियों, छात्रों का एकजुट होकर सक्रिय रहना आवश्यक है।

(लेखिका संस्कृतिकर्मी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष हैं।)

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