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पश्चिम बंगाल चुनाव: पहाड़ी में स्थानीय संगठनों के निर्णय को निर्देशित करतीं बाध्यताएं

एक वरिष्ठ सीपीआई (एम) नेता ने कहा कि बिमल गुरुंग मौजूदा विधानसभा चुनावों में अपनी प्रासंगिकता की लड़ाई लड़ रहे हैं। 
पश्चिम बंगाल चुनाव: पहाड़ी में स्थानीय संगठनों के निर्णय को निर्देशित करतीं बाध्यताएं
प्रतीकात्मक चित्र : पीटीआई के सौजन्य से।

कोलकाता : ऐसा मालूम होता है कि दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र, जिसमें दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और कुर्सियांग के विधानसभा शामिल हैं, वहाँ राजनीतिक इकाइयां दबाव में काम कर रही हैं। यह दबाव उन्हें उनकी राजनीतिक पहचान का दावा करने से भी रोकने वाला है।

यह स्थिति धड़ों में बंटी इकाइयों के  दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जाने की वजह से है। ऐसा मालूम पड़ता है कि उनके पास  भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) एवं तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के झंडे के नीचे शरण लेने के सिवा अब और कोई विकल्प नहीं रह गया है। आश्चर्यजनक रूप से, कलिम्पोंग  के  टीएमसी प्रमुख के समर्थन के मसले पर राज्यसभा सांसद शांता छेत्री  ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, चुनाव परामर्शक “प्रशांत किशोर के आई-पैक (I-PAC) ने भी कामों पर पानी डाला है। 

इसमें अपवाद केवल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) और कांग्रेस हैँ।  दोनों अभी संयुक्त मोर्चा में  भागीदार हैं। ये दोनों अपनी तरह से चुनाव लड़ रहे हैं और अपने-अपने झंडों के तले चुनाव मैदान में हैं तथा लोगों को प्रभावित करने वाले आर्थिक मुद्दों को उजागर कर रहे हैं।  न्यूज़क्लिक  ने अनेक राजनीतिक नेताओं के साथ कई बार बातचीत की,  जो एक समान  निष्कर्ष देते प्रतीत होते थे।  वे संकेत दे रहे हैं कि संबद्ध कारकों के मिश्रण ने हिल एरिया में स्थिति को पहेलीनुमा बना दिया है। 

गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ),  जिसने 1980 के दशक के मध्य में सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में एक अलग गोरखालैंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन छेड़ रखा था, उनकी पार्टी परिस्थितियों के दबाव में 2016 के विधानसभा चुनाव से ही मैदान से बाहर हो गई थी। इस समय वह मैदान में है लेकिन केवल अपरोक्ष रूप से। इसके मौजूदा प्रमुख जीएनएलएफ के संस्थापक सुभाष घीसिंग के बेटे मान घीसिंग हैं, जो दो या तीन सीटों पर अपने फ्रंट को चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपना समर्थन देने के लिए राजी कर लिया। हालांकि बीजेपी ने  जीएनएलएफ को एक मायने में छूट दी कि उसके नेता नीरज जिंबा को एक उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर लिया लेकिन उन्हें बीजेपी के चिह्न पर चुनाव लड़ने की शर्त रख दी। संगठन को उसकी यह शर्त माननी पड़ी।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ रिवॉल्यूशनरी मार्क्सिस्ट (सीपीआरएम)  का मुख्यालय दार्जिलिंग में है।  इसका गठन उन सदस्यों द्वारा 1996 में किया गया था, जो मूल रूप से सीपीआई (एम) के सदस्य थे। आखिरकार इस संगठन ने मौजूदा विधानसभा चुनाव में भी अपनी किस्मत न आजमाने का फैसला किया है।  गौरतलब है कि सीपीआरएम बीजेपी को ही अपना समर्थन दे रही है। 

इस हिल एरिया घाटी में सबसे पुरानी पार्टी अखिल भारतीय गोरखा लीग है, जो अब तीन धड़ों में बंट गई है।  इसके एक धड़े ने बीजेपी को समर्थन देने का फैसला किया है। बाकी दोनों धड़ों ने एक दूसरे के विरुद्ध अपने उम्मीदवार मैदान में उतार रखे हैं।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) की स्थापना बिमल गुरुंग द्वारा 7 अक्टूबर 2007 को की गई थी।  विमल गुरुंग लंबे समय तक स्वर्गीय सुभाष घीसिंग के विश्वसनीय सहयोगी रहे थे।  आज से 4 साल पहले जीजेएम भी  दो धड़ों  विभाजित हो गया है।  इनमें पहले का नेतृत्व स्वयं विमल गुरुंग करते हैं  और दूसरे का नेतृत्व बिनय तमांग-अमित थापा करते हैं।  इनमें दूसरे धड़े अपनी कथनी और करनी को लेकर काफी चर्चा में रहता है, जबकि गुरुंग को अब एक ‘दलबदलू’ के रूप में देखा जा रहा है। 2009 से लेकर विगत तीन लोकसभा चुनावों में बीजेपी का समर्थन करने के बाद, वह कहते हैं कि एक अलग गोरखालैंड बनाने की मांग पर पार्टी गोरखा को मूर्ख बनाती रही है।  इसलिए उन्होंने “ममता बनर्जी और उनकी उनकी टीएमसी” के समर्थन का फैसला किया है क्योंकि उनका सी.एम. में विश्वास है। उन्होंने “स्थायी राजनीतिक समाधान”(PPS) के लक्ष्य की दिशा में काम करने का आश्वासन दिया है। इस पीपीएस का इस चुनाव के मौसम में खूब उपयोग किया जा रहा है। 

गुरुंग और तमांग-थापा दोनों धड़ों ने  एक दूसरे के विरुद्ध उम्मीदवार उतार रखे हैं।  हालांकि शांता छेत्री  ने कलिम्पोंग से न्यूज़क्लिक  को बताया कि टीएमसी I-PAC की सलाह पर गुरुंग धड़े के उम्मीदवार को अपना समर्थन देगी। यह पूछने पर कि टीएमसी की स्थानीय इकाई के फैसले पर क्या ममता बनर्जी ने अपनी मुहर लगाई है,शांता ने कहा: “हमने I-PAC की सलाह का पालन किया है।”

दार्जिलिंग में, जून 2017 में,  झड़पों और हड़तालों के दौरान अनेक लोगों की जानें  जाने,  व्यापक स्तर पर उनकी परिसंपत्तियों के नुकसान होने तथा इसके चलते आर्थिक गतिविधियों के ठप पड़ जाने के बाद  बिमल गुरुंग कहीं छिप गए थे,  तब टीएमसी ने तमांग-थापा धड़े को अपना समर्थन देना शुरू किया था।  लेकिन इसके तीन वर्ष बाद अक्टूबर 2020 में बिमल गुरुंग के कोलकाता में अचानक फिर से नमूदार होने के बाद,सरकार का उनके प्रति रवैया धीरे-धीरे बदलने लगा।  टीएमसी सरकार की भाव-भंगिमा बिमल गुरुंग के खिलाफ दर्ज मामले को लेकर भी शिथिल पड़ गई,  जिनमें से कुछ मामले तो गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत दर्ज किए गए थे। दार्जिलिंग में सरकारी वकील, प्रणय राय ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में इसकी पुष्टि की कि बिमल गुरुंग के खिलाफ कई मामले वापस ले लिए गए हैं। हालांकि राय ने स्पष्ट किया कि “हत्या का मामला वापस नहीं किया गया है।”

I-PAC के इशारे पर टीएमसी की स्थानीय इकाइयां, गुरुंग धड़े के उम्मीदवार को अपना समर्थन दे रही हैं। इस फायरब्रांड नेता के प्रकट होने के बाद से ममता बनर्जी की पार्टी का उसके प्रति रुख में क्रमश: बदलाव आया है। गुरुंग को लेकर टीएमसी के इस नये चाव ने तमांग-थापा धड़े को चकित कर दिया है।  तमांग ने न्यूज़क्लिक से कहा कि घाटी की जनता ने उन तीन सालों में कायम रही शांति और स्थिरता को बड़े गौर से देखा है और वे इसे खोना नहीं चाहेंगे। “यह हमें हमारे चुनावी समर को लेकर आशावादी बनाता है,” उन्होंने कहा।

दिलचस्प है कि पीपीएस को जितना टीएमसी नेता और गुरुंग उछाल रहे हैं, उतना ही बीजेपी समर्थित इकाइयां भी इसे दोहरा रही हैं।  यह पूछे जाने पर कि  सीपीआरएम जैसी एक कट्टर मार्क्सवादी इकाई विधानसभा चुनाव में बीजेपी का समर्थन कर रही है,  पार्टी के सचिव और प्रवक्ता गोविंद छेत्री ने  दार्जिलिंग से न्यूज़क्लिक से कहा: “हमने बीजेपी के संकल्प पत्र पर गौर किया है, जिसमें स्थायी राजनीतिक समाधान (पीपीएस) की बात की गई है। गोरखा अपनी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने और उसका पोषण करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उनका गौरव जो उनकी संस्कृति में है, उसे प्रतिष्ठा दी जाए। हमें यह बहुत बुरा लगता है, जब नई दिल्ली और दूसरी जगहों पर लोग हमें नेपाल का बताते हैं। (भारत में) हमारा कई दशकों का लम्बा इतिहास रहा है। हम बीजेपी के संकल्प पत्र के प्रावधानों को पूरा किए जाने के लिए उसका 2024 तक इंतजार करेंगे। अगर यह नहीं होता है, तो हम आगे के कदम के बारे में कोई फैसला करेंगे। इस हिल एरिया में लंबे समय तक हड़ताल होने, क्षेत्र में अशांति बने रहने और राज्य पुलिस  गोलियों से जानें जाने के कारण गुरुंग को लेकर लोगों का मोहभंग हो गया है।”

जीएनएलएफ जनरल सेक्रेटरी महेंद्र छेत्री ने भी संगठन के बीजेपी समर्थित रुख की कैफियत देते हुए उसके मेनिफेस्टो में पीपीएस के प्रस्ताव का जिक्र किया। पीपीएस के बारे में अपनी इकाई की अवधारणा  स्पष्ट करते हुए छेत्री ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 244 (2) और 275 (1) के तहत  समाधान की बात कही गई है।

 अनुच्छेद 244(2) वृहत राजनीतिक  स्वायत्तता के लिए स्वास्थ्य परिषद के गठन किया जा सकता है और कुछ जनजातीय इलाकों में निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिए शासन का विकेंद्रीकरण किया जा सकता है। लेकिन स्वायत्त परिषदों का कानून और व्यवस्था में कोई दखल नहीं  होता।  अनुच्छेद 275 (1) के अंतर्गत केंद्रीय सहायता के अलावा, अतिरिक्त अनुदान दिया जाता है। ऐसी योजनाएं जिनमें अनुसूचित जनजातियों का कल्याण हो और अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के स्तर को बढ़ाने का लक्ष्य है, उन्हें अनुदान से वित्त पोषित किया जाएगा। इन स्कीमों को लोगों की आय बढ़ाने और उनके रोजगार के अवसरों का सृजन करने में उपयोग किया जाना चाहिए। इसके 30 फ़ीसदी लाभों को महिलाओं के लिए रखा जाना चाहिए।

लेकिन गुरुंग के नेतृत्व वाला जीजेएम धड़ा अनुच्छेद 244 (1) के तहत पीपीएस के पक्ष में है। इसके तहत, पूर्वनिर्धारित जनजातीय क्षेत्र के लिए एक राज्य के भीतर एक स्वायत्तशासी राज्य के गठन को संभव करता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत अनेक स्वायत्त शक्तियां  दी जानी संभव है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण का भी अधिकार उसमें समाहित है।  हाल के सप्ताहों में,  जीजेएम के महासचिव रोशन गिरि ने इस सुझाव को रिकॉर्ड  पर रखा है। 

पूर्व राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ सीपीआई (एम) नेता सुमन पाठक ने कहा कि गुरुंग इन चुनावों में,  हिल एरिया की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता को फिर से साबित करने की पूरी कोशिश करेंगे। बीजेपी के लिए सीतलकुची के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनावों जैसी पकड़ बनाये रखने का सबक है, जब उसने उत्तरी बंगाल की कुल 8 सीटों में से 7 सीटें जीत ली थीं। 

2017 में पुलिस फायरिंग में कई जानें गई थीं, और व्यापक रूप से यह माना गया था कि इसका चुनाव में टीएमसी को भारी खामियाजा उठाना पड़ेगा। दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में टीएमसी इस क्षेत्र से एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। इसलिए टीएमसी गुरुंग की मदद से इस क्षेत्र में अपना खोया हुआ जनाधार पाने की कोशिश कर रही है। निश्चित रूप से यह चुनाव परिणाम पर निर्भर करेगा।

बीजेपी और टीएमसी दोनों को  11 जनजातियों;  भुजेल, गुरुंग, मांगर, नेवार, जोगी, खस, राई, सुनुवर, थामी, यक्का (दीवान) और धिमल को अनुसूचित जनजाति के अनुसार दर्जा दिए जाने की उनकी चिर लंबित मांगों को पूरा किए जाने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना होगा।

पाठक के अनुसार,  माकपा और  कांग्रेस उम्मीदवारों द्वारा किया जा रहा चुनाव प्रचार अपने निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक है। लोग इस बात पर गौर कर रहे हैं कि  संयुक्त मोर्चा आर्थिक मसलों को उजागर कर रहा है जो आम लोगों के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते हैं, खासकर गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों के,  जबकि बीजेपी और टीएमसी एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगी रहती हैं। 

दिलचस्प है कि इन चुनावों में नागरिकता संबंधी विधेयक कोई गरमाहट नहीं पैदा कर रहे हैं। इसके बजाय 15 लाख के लगभग गोरखाओं और बड़ी तादाद में जनजाति वाले इस क्षेत्र में दो ही मसले ज्यादा महत्वपूर्ण लगते हैं- एक, पीपीएस के जरिए गोरखा पहचान और गौरव का संरक्षण, और  दूसरा, 11 जनजातियों को अनुसूचित जनजाति की हैसियत देने की मांग।  इस संदर्भ में दार्जिलिंग लोकसभा से बीजेपी सांसद राजू बिस्ता ने न्यूज़क्लिक को दिये एक वक्तव्य में स्पष्ट किया।  उन्होंने कहा, “यह अवधारणा बना दी गई है कि भारतीय गोरखा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 को लेकर किसी रूप में चिंतित हैं। हालांकि,  वास्तविकता यह है कि भारतीय गोरखा सीएए और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) का  सर्वाधिक समर्थन करते रहे हैं। कई लोगों द्वारा भारतीय गोरखा को जब तब बाहरी बता दिया जाता है। जहां तक एनआरसी की बात है तो गोरखा इसकी मांग करते रहे हैं क्योंकि हमारा क्षेत्र रोहिंग्याओं और बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों से भरा पड़ा है।” 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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