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मिन्स्क समझौते और रूस-यूक्रेन संकट में उनकी भूमिका 

अति-राष्ट्रवादियों और रूसोफोब्स के दबाव में, यूक्रेन में एक के बाद एक आने वाली सरकारें डोनबास क्षेत्र में रूसी बोलने वाली बड़ी आबादी की शिकायतों को दूर करने में विफल रही हैं। इसके साथ ही, वह इस क्षेत्र में संघर्ष को समाप्त करने के लिए 2015 में किए गए मिन्स्क समझौते के प्रावधानों को लागू नहीं कर सकी हैं।
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सोमवार 12 फरवरी ​को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यूक्रेन के डोनेट्स्क और लुहान्स्क गणराज्यों की स्वतंत्रता को रूसी मान्यता देने की घोषणा की। उन्होंने इस तर्क का खंडन किया कि इस कदम से वहां शांति की संभावनाओं को नुकसान पहुंचेगा और संघर्ष समाप्त करने के लिए किए गए मिन्स्क समझौते के प्रावधानों का उल्लंघन होगा। इसके विपरीत, पुतिन ने किया कि उनके इस ताजा फैसले का मकसद क्षेत्र में अमन कायम करना है। 

रूसी संसद के ऊपरी सदन, फेडरेशन काउंसिल की अध्यक्ष वेलेंटीना मतविएन्को के मुताबिक, डोनबास में "मानवीय आपदा और नरसंहार" की स्थिति है और रूस के इस कदम से वहां की स्थिति को सामान्य बनाने में मदद मिलेगी। उन्होंने दावा किया कि क्षेत्र में रक्तपात को रोकने के लिए रूस के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था क्योंकि पिछले आठ वर्षों से कोई भी इस मसले के राजनयिक एवं राजनीतिक हल निकालने के लिए उसकी सुनने को तैयार ही नहीं था। 

रूस का यह कदम कुछ तथ्यों और बढ़ती अटकलों पर आधारित है, जब इस क्षेत्र में अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों द्वारा युद्ध उन्माद को बढ़ावा दिया जा रहा है। आर्गनाइजेशन फॉर सिक्युरिटी एंड कोऑपरेशन (ओएससीई) के अनुसार, यूक्रेन की सरकार ने पिछले सप्ताह में युद्धविराम समझौते का कई बार उल्लंघन किया है। इस संगठन को ही मिन्स्क समझौते के तहत युद्धविराम की निगरानी करने की भूमिका सौंपी गई थी। पिछले कुछ हफ़्तों में मिन्स्क समझौते के पक्षकारों के बीच कई दौरों की बातचीत फिर से शुरू हुई, लेकिन यह रूसी चिंताओं को दूर करने में भी विफल रही है। इसी स्थिति ने लुहान्स्क और डोनेट्स्क के नेताओं को पुतिन से यह अपील करने के लिए मजबूर किया कि वे तत्काल कार्रवाई करें। 

मिन्स्क समझौता

यूक्रेन में आज की स्थिति के लिए अति-राष्ट्रवादी और रूसीफोब समूहों का उदय जिम्मेदार है, जिसने फरवरी 2014 में यूरोमैडन विरोध के दौरान यूक्रेन के तात्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को अपने पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था। इन्ही प्रदर्शनकारियों ने यानुकोविच को रूस के साथ यूक्रेन के पारंपरिक संबंधों को नुकसान पहुंचाने की कीमत पर भी यूरोपीय संघ और नाटो के साथ तालमेल एवं एकीकरण के लिए अनुकूल नीतियां बनाने एवं उनका अनुसरण करने का आह्वान किया। अति राष्ट्रवादी और रूसीफोब राजनीतिक समूहों का यही धड़ा मिन्स्क समझौते के कार्यान्वयन में यूक्रेनी सरकारों के प्रयासों में लगातार अडंगा लगा रहा है। 

इस संदर्भ में मिन्स्क समझौते की पृष्ठभूमि को समझना लाजिमी है। यूक्रेन में यूरोपीय संघ और नाटो समर्थक नीतियों के विरोध में जब विरोध प्रदर्शन होने लगे थे तो यूरोमैडन सरकार ने उसको कुचलने के लिए दमन का सहारा लिया था, जिससे गृहयुद्ध छिड़ गया था। यूक्रेनी सेना ने क्रीमिया पर रूस के कब्जे के बाद प्रदर्शनकारियों के साथ युद्ध का ऐलान किया था। यह युद्ध महीनों तक चला था, जिसमें 14,000 लोगों की मौत हुई थी और 2.5 मिलियन लोग विस्थापित हो गए थे, इनमें से आधे लोग रूस में शरण की मांग रहे हैं। इन्हीं परिस्थितियों में 13 सूत्री मिन्स्क समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। 

मिन्स्क समझौते पर फरवरी 2015 में ओएससीई, फ्रांस, जर्मनी, रूस और यूक्रेन सहित नॉर्मंडी प्रारूप बनाने वाले देशों और समूहों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। ​इस समझौते को बाद में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने भी अनुमोदित किया था। समझौते के प्रावधानों के अनुसार, डोनबास क्षेत्र में तत्काल युद्धविराम स्थापित करने के अलावा, यूक्रेन सरकार विद्रोह के केंद्र डोनेट्स्क और लुहान्स्क ओब्लास्ट को पहले स्व-सरकार के उनके अधिकार को मान्यता देकर अधिक स्वायत्तता देने और फिर संसद में भी इन क्षेत्रों के लिए विशेष दर्जा भी प्रदान करने पर सहमत हुई थी। इसके अलावा, समझौते की एक आवश्यक शर्त थी कि वे यूक्रेन की सीमा के भीतर ही रहेंगे और रूस सीमा पर अपना नियंत्रण यूक्रेन सरकार को सौंप देगा, जिसको कि उसने युद्ध फैलने के बाद अपने कब्जे में ले लिया था। इस युद्धविराम समझौते के कार्यान्वयन को देखने की भूमिका ओएससीई को सौंपी गई थी। समझौते में यूक्रेन में व्यापक संवैधानिक सुधारों के बारे में भी बात की गई थी।

मिन्स्क समझौते का गैर-कार्यान्वयन

रूसी दावों के अनुसार डोनबास क्षेत्र की कुल 6 मिलियन आबादी में से 1.2 मिलियन से अधिक लोगों ने रूसी नागरिकता के लिए पहले से ही आवेदन कर रखा है। दोनों स्व-घोषित गणराज्यों में रूसी भाषी लोगों का भारी बहुमत है। उन्हें डर है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उनके सरोकारों पर खास ध्यान नहीं दिया तो उन्हें यूक्रेनी राज्य द्वारा किए जाने वाले एक और युद्ध तथा जातीय विनाश का सामना करना पड़ेगा। 

कीव में काबिज होने वाली सरकारों ने डोनबास क्षेत्र के मुद्दे को संबोधित करने की दिशा में अधिक ध्यान नहीं दिया है और मिन्स्क समझौते को लागू करने के लिए कदम उठाने में विफल रही हैं। नवनिर्वाचित वलोडिमिर ज़ेलेंस्की का इस दिशा में 2019 में किया गया एक प्रयास विफल हो गया था जब उनके इस कदम के विरोध में देश में बड़े पैमाने पर अति राष्ट्रवादियों द्वारा विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया गया था। इन प्रदर्शनकारियों ने ज़ेलेंस्की पर रूसी दबाव के सामने घुटने टेक देने का आरोप लगाया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने की धमकी दी। जनता में अपना समर्थन खोने के डर से ज़ेलेंस्की ने रूस के प्रति "कटु" वक्तव्य देने लगे और वास्तविक मुद्दे को हल करने की बजाय डोनबास की समस्याओं के लिए मास्को को दोषी ठहराने लगे। 

रूस ने कई मौकों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर डोनबास के मुद्दे को उठाया है, जैसे कि उसने इस स्थिति पर चर्चा करने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा फरवरी की शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बुलाई गई बैठक में भी अपना पक्ष रखा था। 

संयुक्त राष्ट्र में रूसी प्रतिनिधि, वसीली नेबेंज्या ने इस बैठक में जोर देकर कहा कि यूक्रेन को मिन्स्क समझौते के प्रावधानों का सम्मान करना चाहिए, जिस पर 2014 तथा 2015 में हस्ताक्षर किए गए थे। ​​उन्होंने कहा कि अगर पश्चिमी शक्तियां कीव को "मिन्स्क समझौते को तोड़ने" के लिए उकसाती हैं, तो यूक्रेन आत्म विनाश के रास्ते पर चल पड़ेगा। 

साभार : पीपल्स डिस्पैच

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