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किसानों को किस हद तक न्याय दे पाएगी छत्तीसगढ़ की ‘राजीव गांधी किसान न्याय योजना’

केवल छत्तीसगढ़ सरकार अकेली नहीं है, जिसने इस तरह के कदम उठाए हैं। इसके पहले तेलंगाना और उड़ीसा में किसानों की मदद के लिए इस तरह की योजनाएं घोषित की गईं थी।
राजीव गांधी किसान न्याय योजना
Image Courtesy: Business Standard

छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने 21 मई को राजीव गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर राजीव गांधी किसान न्याय योजना शुरू की है। इस योजना के तहत किसानों को धान और मक्का की फसलों पर 10,000 रुपये प्रति एकड़ और गन्ने की खेती करने वाले किसानों को 13,000 रुपये प्रति एकड़ का लाभ दिया जाएगा। यह रकम सीधे किसानों के बैंक खातों में भेजी जाएगी। राज्य सरकार का दावा है कि इस योजना से 19 लाख से ज्यादा किसानों को लाभ होगा। आगे दूसरी फसलों के किसानों और भूमिहीनों को इसके दायरे में लाने की योजना अभी तैयार की जा रही है।

छत्तीसगढ़ सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए इस महत्वाकांक्षी योजना को लागू करने की घोषणा की है। योजना फसल उत्पादन से जुड़ी हुई है, इसलिए किसानों को उनकी फसलों का उचित लाभ भी मिलने की उम्मीद की जा रही है। इसके लिये 5750 करोड़ की रकम किसानों को चार किस्तों में दी जाएगी। भूपेश बघेल ने सत्ता में आने से पहले किसानों को धान का मूल्य 2500 रुपये प्रति क्विंटल देने का वादा किया था। राज्य सरकार किसानों को केंद्र सरकार का समर्थन मूल्य पहले ही उपलब्ध करा दिया था और अब बकाया मूल्य को उनके खातों में सीधे भेजा जाएगा।

इस योजना पर भी सवाल उठाए गए हैं क्योंकि इससे तो सरकारी एजेंसियों को धान, मक्का और मिलों को गन्ना बेचने वाले किसानों को ही लाभ होगा। जिन लोगों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलें बेची हैं, उन्हीं के खाते में यह पैसा भेजा जाएगा। यह पैसा हर एक आम किसान को नहीं मिलेगा। इसके जवाब में छत्तीसगढ़ सरकार ने कहा कि इस योजना से लाभान्वित होने वाले 90% किसान लघु एवं सीमांत श्रेणी में हैं।

केवल छत्तीसगढ़ सरकार अकेली नहीं है, जिसने इस तरह के कदम उठाए हैं। इसके पहले तेलंगाना और उड़ीसा में किसानों की मदद के लिए इस तरह की योजनाएं घोषित की गईं थी। तेलंगाना ने किसानों के लिये रायतु बंधु नामक योजना घोषित की। जिसमें प्रति एकड़ 8,000 रुपये सालाना बेशर्त अनुदान की रकम किसानों को दो किस्तों में उपलब्ध कराई जाती है। रबी और खरीफ की फसलों के समय यह पैसा किसानों को दिया जाता है, जिससे वे बुवाई के काम में मदद कर ले सकते हैं। 

उड़ीसा सरकार ने 21 दिसंबर 2018 को कालिया योजना का शुभारंभ किया। इसके तहत लघु, सीमांत किसानों और खेतिहर मजदूरों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। जिससे वे अपनी आजीविका का उचित प्रबंध कर सकें। कालिया योजना के तहत कुल 10,000 करोड़ रुपये खर्च करने का वादा किया गया। इसके तहत एक वर्ष में रबी और खरीफ की फसलों में 30 लाख छोटे और सीमांत किसान परिवारों को 10,000 रुपये प्रति परिवार के हिसाब से अनुदान दिया जाता है। आजीविका सहायता के लिए भूमिहीन ग्रामीण परिवारों को 12,500 रुपये की मदद करने का वादा किया गया। इसके अलावा इन किसानों और मजदूरों को जीवन बीमा और ब्याज मुक्त फसली ऋण की भी सुविधा उपलब्ध कराई गई है।

इसके अलावा केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना तो है ही। जिसमें छोटे किसानों को साल में 6000 रुपये तीन किस्तों में दिए जाने की घोषणा की गई। 9 करोड़ किसानों को इसका लाभ देने का दावा किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल सरकार किसानों को दो किस्तों में 10,000 रुपये देने की योजना घोषित कर चुकी है। तेलंगाना और ओडिशा के किसान तो केंद्र और राज्यों दोनों की योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। गुजरात सरकार भी प्रति हेक्टेयर 6800 रुपये की मदद किसानों को दे रही है। यह मदद केवल 2 हेक्टेयर की भूमि सीमा तक दी जा रही है। इन सभी सरकारी उपायों के बावजूद किसानों की आय सरकार के समूह-4 के कर्मचारियों की 18,000 रुपये की मासिक आय के बराबर भी नहीं पहुंच रही है।

इन सभी योजनाओं में कहीं न कहीं बटाईदार किसान बहुत नुकसान झेल रहे हैं, क्योंकि उनको लाभ पहुंचाने का कोई प्रयास अभी तक नहीं किया गया है। एनएसएसओ के 70वें राउंड के आंकड़ों के अनुसार पूरे देश में कुल कृषि जोत का 10.4% बटाईदार किसानों के हाथ में है। इनमें राज्यों के अनुसार भिन्नता है। अविभाजित आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा 35.7 प्रतिशत बटाईदार किसान थे। बिहार में बटाईदार किसानों की संख्या 22.67  प्रतिशत है। पंजाब, हरियाणा, बंगाल और उड़ीसा में भी बटाईदार किसानों की संख्या राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। ये बटाईदार किसान वास्तव में भूमिहीन हैं। जो अपने गांव या इलाके के किसानों से खेती करने के लिये जमीन सालाना किराये पर लेते हैं। 

एनएसएसओ के 2013 के सर्वे के अनुसार भारत के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले 57.8% लोगों के पास भू स्वामित्व है, यानी बाकी लोग भूमिहीन हैं। बड़े राज्यों में राजस्थान में सबसे अधिक 78.4 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या के पास भू स्वामित्व है। इसके बाद उत्तर प्रदेश में 74.8 प्रतिशत के पास भू स्वामित्व है। मध्य प्रदेश में 70.8% लोगों के पास भू स्वामित्व है। केरल में सबसे कम 27.3% ग्रामीणों के पास भू-स्वामित्व है, जबकि तमिलनाडु में 34.7% और अविभाजित आंध्र प्रदेश में 41. 5% लोगों के पास भू-स्वामित्व है। बंटाई पर खेती करने के अलावा भूमिहीनों की आय का एकमात्र साधन मजदूरी है। 

कोरोनावायरस के कारण लॉकडाउन ने भले ही किसानों को चोट पहुंचाई है, लेकिन उससे ज्यादा चोट सरकारी नीतियां किसानों को हमेशा से पहुंचती रही हैं और उनको गरीबी की ओर धकेल रही हैं। किसानों को गरीब रखने और कृषि अर्थव्यवस्था को तबाह करने का सबसे प्राथमिक उद्देश्य लोगों को शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर करना है। जिससे वहां सस्ते श्रमिकों की भीड़ के कारण उद्योगपतियों को मुनाफा ज्यादा हो। एक अनुमान के अनुसार पूरे देश में 14 करोड़ों लोग गांवों से पलायन करके शहरों में सस्ते श्रमिक के रूप में काम करते हैं।  

कोरोनावायरस लॉकडाउन के दौरान यही लोग पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों के लिए निकल पड़े। इनके लिए न गांव में कोई रोजगार है, न शहरों में कोई समुचित प्रबंध। ये दैनिक कमाई से अपना जीवन चलाते हैं और जब उस पर भी संकट खड़ा हुआ तो पूरे देश में साफ देखा गया कि उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? दरअसल सरकार की उद्योग समर्थक नीतियों ने करोड़ों लोगों को गांव से बाहर धकेल दिया है, जो मजबूरी में शहरों में छोटे-मोटे काम धंधा खोजते रहते हैं। किसान खुद आर्थिक तौर इतने कमजोर हो चुके हैं कि ग्रामीण भूमिहीनों को रोजगार उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं। 

किसानों की सबसे बड़ी समस्या लागत का बढ़ना और खेती में मुनाफे का दिन-प्रतिदिन घटते जाना है। उदाहरण के लिए 2013-14 में सोयाबीन की खेती की मुनाफा दर 74% थी, जो 2015-16 में घटकर केवल 16% रह गई। इसी तरह कपास में 2009-10 में  मुनाफे की दर 95% से घर-घर घटकर 2015-16 में केवल 37% रह गई। मुनाफा और दूसरी बड़ी फसलों में भी घटा है। ज्वार में मुनाफा 54% से गिरकर 25% रह गया है। धान, मूंगफली आदि की खेती में भी लागत के हिसाब से लाभ घटा ही है।

सरकारी नीतियों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को किस कदर नुकसान पहुंचाया है, इसका स्पष्ट उदाहरण ओईसीडी-आईसीआरआईईआर का एक अध्ययन है। जिसमें कहा गया है कि 2001 से 2017 के बीच भारतीय किसानों को सरकारी नीतियों से 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। पर आज तक किसी भी सरकार ने इसको लेकर चिंता जाहिर नहीं की। यानी हर साल किसानों को 2.64 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता रहा और सरकारों ने इस पर आंख मूंद लिया या फिर जानबूझकर इसे बढ़ावा दिया। अगर इस नुकसान को रोक दिया गया होता तो निश्चित रूप से ग्रामीण शरणार्थियों की संख्या शहरों में बहुत कम होती। उनके पास अपने स्थानीय इलाके में ही कामकाज की बेहतर संभावनाएं हो सकती थीं। मजदूरों का गांव की ओर उल्टा पलायन इस बात का साफ संकेत है कि ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था को आर्थिक रूप से व्यवहार्य और लाभदायक बनाने की तत्काल जरूरत है।

ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो भारत में किसानों की गरीबी का सबसे बड़ा कारण कम उत्पादकता या तकनीकी साधनों का कम प्रयोग या कार्य कुशलता के अभाव को मानते हैं। ऐसे लोग दरअसल कृषि या उसकी वास्तविक समस्याओं के बारे में कुछ नहीं जानते या जानबूझकर गलत धारणाएं फैलाने की कोशिश करते हैं। अगर पंजाब का उदाहरण लें तो वहां 99% जमीन सुनिश्चित सिंचाई व्यवस्था के दायरे में है। पंजाब में धान, गेहूं और मक्का जैसी फसलों की उपज  दुनिया में सर्वाधिक उपज के बराबर है। लेकिन वहां पर भी किसान कर्ज से बहुत परेशान हैं। 2000 से 2015 के बीच वहां 16,600 किसानों ने आत्महत्या की है।

अमेरिका में तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने 1930 में शुरू हुई मंदी के असर से कृषि क्षेत्र को तबाह होने से बचाने के लिये एक कानून तैयार करवाया, जिसे एग्रीकल्चर एडजस्टमेंट एक्ट कहा गया। इसके द्वारा एग्रीकल्चर एडजस्टमेंट एडमिनिस्ट्रेशन (एएए) बनाया गया। इसने कई सुधारों से अमेरिका में कृषि उत्पादों की मांग से ज्यादा आपूर्ति को घटाने में मदद की। इसमें मक्का, गेहूं, कपास, चावल, तंबाकू, दूध और मूंगफली के उत्पादन पर कुछ नियंत्रण लगाए गए। कांग्रेस को यह अधिकार दिया गया कि आपूर्ति और मांग को संतुलित करने के लिए वह किसानों को कुछ भुगतान करके उनकी कुछ जमीनों को खाली छोड़ने के लिए सहमत करे। जिससे कि बाजार में कृषि उपजों की मांग की तुलना में आपूर्ति की अधिकता न हो और उनके दाम बढ़ते रहें। कांग्रेस ने यह माना कि कृषि उत्पादों का दाम बढ़ते रहना जरूरी है और इसके लिए उनकी आपूर्ति को सीमित किया जाना चाहिए।  

इसके विपरीत भारत में अभी तक किसी भी सरकार ने इस तरह का कदम नहीं उठाया है। भारत में तो अधिक से अधिक उत्पादन पर ही जोर दिया जाता है। जिससे कि कृषि उत्पादों के दाम गिरते ही जाएं और किसानों को नुकसान होता रहे। यह सब गरीबों और देश की खाद्य सुरक्षा के नाम पर किया जाता है। किसानों की गरीबी का सबसे बड़ा कारण गरीबों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के नाम पर फसलों के दामों में उचित वृद्धि नहीं किया जाना है। लेकिन हक़क़ीत ये है कि न तो गरीबों को पूरा खाद्यान्न मिला और न किसानों की गरीबी गई। 1970 के बाद से पिछले 50 सालों में विभिन्न वेतन आयोगों ने सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह को 120 से 170 गुना तक बढ़ा दिया है। जबकि इन 50 सालों में गेहूं का दाम केवल 19 गुना बढ़ा है। अगर गेहूं और दूसरी फसलों का दाम भी 1970 के दाम की तुलना में 100 गुना या 150 गुना बढ़ गए होते और पैसा वास्तव में किसानों की जेब में जाता तो आज उसकी ये बुरी दशा न होती।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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