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किसान आंदोलन का अब तक का हासिल

इस आंदोलन की बड़ी जीत में भारत सरकार की प्रकृति को उजागर करना और हाशिये पर बैठे लोगों को सुनने और देखने का मौक़ा देना शामिल है।
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फ़ाइल फ़ोटो

जब से सिंघू बॉर्डर विरोध स्थल पर एक जघन्य हत्या का पता चला है, तब से कई लोग किसानों के विरोध को ख़त्म करने को लेकर शोर मचा रहे हैं। लेकिन इससे होने वाले कई उपलब्धियों को जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत इस समय एक भीषण सत्तावादी शैली की सरकार के तहत डरा-सहमा है। ऐसे में किसानों का यह विरोध एक ऐसी सरकार के ख़िलाफ़ आम एकता की शक्ति का प्रतीक बन गया है, जो असहमति की थोड़ी गुंज़ाइश भी देने से इनकार करती है।

प्रदर्शनकारियों ने विरोध की एक नई शब्दावली तैयार करने के लिए उस नागरिकता विरोधी संशोधन अधिनियम आंदोलन से धरना की शैली उधार ली है, जिसने भारतीय राजनीति के केंद्र में असंतोष को रख दिया है। आंदोलनकारियों ने 2014 में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सत्ता में आने के बाद बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के दिन लद जाने की भविष्यवाणी करने वालों को ग़लत साबित कर दिया है। किसानों ने अब तक का सबसे लंबा सरकार विरोधी आंदोलन चलाया है, जिसके बारे में कहा गया था कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता है। भले ही यह आंदोलन मध्यवर्गीय भारत के साथ-साथ उनके ख़ुद के "अस्तित्व" का सवाल उठाता रहा है, मगर सरकार इन विरोध प्रदर्शनों की सूई को पीछे की ओर नहीं मोड़ सकती।

टीवी देखने वाले शहरी लोगों के उलट किसानों ने दिखा दिया है कि वे राज्य की सत्ता से ख़ौफ़ नहीं खाते हैं। उन्होंने शत्रुतापूर्ण किये गये पुलिस मुकदमों, सरकार के दमन और अति का बड़ी निडरता से सामना किया है। इस तरह, वे भारत सरकार की प्रकृति को उजागर कर सके हैं। उन्होंने इस बात को सरेआम कर दिया है कि केंद्र सरकार कितनी हठी है, जो उन क़ानूनों को भी वापस लेने से इनकार करती है, जिन्हें उसने जल्दबाज़ी और अलोकतांत्रिक तरीक़े से बिना बहस या चर्चा के पारित कर दिया था। किसानों ने यह भी दिखा दिया है कि सरकार अपनी नीतियों से असहमत लोगों को शिकार बनाने के लिए किस हद तक जा सकती है।

इस किसान आंदोलन को टीवी के बहुत सारे दर्शकों को मुख्यधारा के समाचार घरानों से दूर करने का भी श्रेय दिया जा सकता है। इस आंदोलन ने लोगों को समाचार और सूचना के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित किया है। यह विरोध बना हुआ है और ख़ासकर ग्रामीण उत्तर भारत में मीडिया को लेकर बदलते रवैये का यह एक वसीयतनामा बन गया है। जब ज़्यादतर मीडिया ने किसानों और उनके समर्थकों को देशद्रोही के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया, तो किसानों ने अपनी ही एक पत्रिका शुरू कर दी, सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, और अक्सर विरोध स्थलों से "गोदी मीडिया" पर रोक लगाना शुरू कर दिया। बीतते समय के साथ कई लोगों ने महसूस किया कि राजनीतिक और कॉर्पोरेट हितों ने मीडिया को हड़प लिया है। किसान अपने सार्वजनिक मंचों से मीडिया के स्वामित्व का अहम सवाल भी उठाते रहे हैं।

2013 में सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित क्षेत्र उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में किसानों ने हिंदू-मुस्लिम मेलजोल को संभव बना दिया है। यह अभी तक नहीं मालूम है कि 2022 में मतदान का स्वरूप कैसा होगा, लेकिन किसान आंदोलन के सकारात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता। जनसभाओं में किसान नेता हरियाणा, राजस्थान और पंजाब जैसे उन राज्यों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द और एकता और भाईचारे (एकता, भाईचारा) की बात करते हैं, जो राज्य अक्सर पानी के बंटवारे और अन्य मुद्दों पर एक दूसरे के आमने-सामने हुआ करते थे।। किसान नेताओं ने ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को धर्म और जाति के नाम पर बांटने वाली राजनीति के ख़िलाफ़ बार-बार चेतावनी दी है। सीएए विरोधी आंदोलन की तरह, इसने भी लोगों को एक साथ लाया है, जिसका मतलब है कि इसने वह काम कर दिया है जिसे राजनीति और नेताओं को करना होता है। हैरान करने वाली बात है कि जिन राज्यों से उन्हें समर्थन की उम्मीद तक नहीं थी, वहां से भी किसानों को समर्थन मिला है। ऐसे ही राज्यों में गुजरात और हिमाचल प्रदेश है, जहां के किसान, देश के किसानों की मांगों की व्यापक अपील की गवाही देते हुए इस आंदोलन साथ हो गये।

किसान आंदोलन ने 26 जनवरी की उस नाकामी पर भी काबू पा लिया, जब कई प्रदर्शनकारी दिल्ली में एक ट्रैक्टर रैली के लिए निर्धारित मार्ग से भटक गये और लाल क़िले पर हुई झड़पों में फंस गये। मीडिया इसे धर्म और अलगाववाद से प्रेरित एक जानबूझकर किया गया हमला बताता रहा। इन सब के बावजूद किसान फिर से इसलिए संगठित हो सके क्योंकि उनके आंदोलन ने लोगों को कहीं ज़्यादा संशयवादी और मीडिया का इस्तेमाल करने के लिहाज़ से समझदार दर्शक बनने के लिए प्रोत्साहित किया था। उन्होंने लोगों को सिखाया कि सरकार समर्थक उन ख़बरों की पहचान प्रचार-प्रसार करने वाली ख़बर के तौर पर कैसे की जाये, जिन्होंने टीवी एंकरों के ज़रिये किसानों को 'आतंकवादी' या 'ख़ालिस्तानी' कहते हुए देखा।

इस महीने की शुरुआत में भाजपा नेता और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के स्वामित्व वाली गाड़ी ने उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में तीन किसानों और एक पत्रकार को कुचल दिया था। सबसे पहले तो सत्ताधारी दल ने इसे अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर किसानों के हमले के रूप में पेश करने की कोशिश की। जल्द ही उस घटना का वीडियो वायरल हो गया, जिसमें किसानों पर गाड़ी के चढ़ाने के दृश्य दिखायी दिये। ज़मीनी कहानी बदल गयी और भाजपा, जिसके लोगों ने कथित तौर पर गाड़ी चढ़ाये थे, अब ग्रामीण उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में अहंकार और उत्पीड़न का प्रतीक बन गयी है। यह पहले से कहीं ज़्यादा अहम बदलाव लेकर आया है क्योंकि जो दावे भाजपा नेता कर रहे थे, उसके ठीक उलट सुबूत सामने आया।

किसानों ने किसानी से जुड़ी तमाम गड़बड़ियों के साथ-साथ खेती-बाड़ी को भी सबसे आगे रख दिया है। वे समझते हैं कि खेतों के साथ-साथ देश को भी कॉर्पोरेट के हाथों में डाला जा रहा है और सरकार पर कृषि और आर्थिक ढांचे को बदलने के लिए दबाव डाला जा रहा है। वे फ़सलों की कहीं ज़्यादा विविधता, बेहतर जल प्रबंधन, कृषि मशीनरी पर कम से कम निर्भरता, ज़्यादा मज़बूत सार्वजनिक सेवायें और नौजवानों के लिए रोज़गार और शिक्षा के बेहतर अवसर चाहते हैं।

भाजपा ने अक्सर किसानों के इस विरोध को अमीर और कुलीन किसानों के आंदोलन के तौर पर पेश किया है। हालांकि, सबसे हाशिये की ताक़तों के बूते किसी भी जनांदोलन की शुरुआत नहीं की जा सकती है और यह कृषि आंदोलन भी इसका कोई अपवाद नहीं है। इस आंदोलन ने देश को मुख्यधारा से अलग-थलग कर दिये गये लोगों और हाशिये पर धकेल दिये गये वर्गों के बारे में बात करने पर मजबूर कर दिया है। यही वजह है कि हमें विरोध के इन मंचों से किसान-मज़दूर एकजुटता, दलित-जाट सिख एकता, कृषि श्रमिकों की समस्याओं आदि पर लगते नारों के साथ-साथ महिला नेताओं और उनके दोहरे बोझ को लेकर नारे भी सुनाई देते हैं। समाज के मुखर वर्ग के बीच उत्पीड़ित लोग बाहर सड़कों पर निकल आये हैं, जो मंज़र को सबसे ज़्यादा हाशिए के लोगों के रंग में रंगता नज़र आ रहा है। दशकों में पहली बार अपने विरोध के दायरे का विस्तार करने के साथ-साथ मंच से किसान की ओर से सांप्रदायिकता विरोधी और लोकतंत्र-समर्थक नारे सुने जा रहे हैं। अगर पंजाब के दलितों ने इस आंदोलन की पृष्ठभूमि से अपनी चिंता नहीं जतायी होती, तो क्या पंजाब को एक दलित मुख्यमंत्री मिल पाता? संभावना तो नहीं थी। कई स्तरों वाले इस भारतीय समाज में हाशिये पर खड़े लोगों को सुनने का मौक़ा मिला है।

एनएसएसओ का 77वां दौर आज कृषि की एक अलग ही तस्वीर पेश करता है। ग़ैर-कृषि गतिविधियों (ख़ास तौर पर शारीरिक श्रम) से आय का हिस्सा बढ़ रहा है। पहले तो ख़ास तौर पर 1-2 एकड़ ज़मीन वाले लोग ही अपने खेतों के बाहर श्रम करते थे, लेकिन अब 5 एकड़ या उससे ज़्यादा ज़मीन वाले किसान भी शारीरिक श्रम करने पर मजबूर हैं और इनका अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है। इस श्रम घटक मे हो रहा इज़ाफ़ा लोगों के कृषि से बेदखल होने का संकेत है। इसे समझ लेने से किसानों को एक कॉर्पोरेट-विरोधी, फ़ासीवाद-विरोधी माहौल बनाने में मदद मिली है। न सिर्फ़ तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त किया जाये,बल्कि वे चाहते हैं कि मानवाधिकारों का सम्मान किया जाये, ज़्यादा से ज़्यादा फ़सलों के लिए एमएसपी दिया जाये, और सांप्रदायिक राजनीति का विरोध किया जाये। वे अक्सर कई विशेषज्ञ टिप्पणीकारों के मुक़ाबले आर्थिक समस्याओं को कहीं ज़्यादा पहचानते हैं और असरदार ढंग से नवउदारवादी नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं। मिसाल के तौर पर वे बढ़ती ग़ैर-बराबरी और ग़रीबी के लिए ग्रामीण जीवन के निगमीकरण को ज़िम्मेदार मानते हैं। जैसे-जैसे किसान कृषि क्षेत्र पर मज़बूत कॉर्पोरेट पकड़ का पर्दाफ़ाश करते जा रहे हैं, वैसे-वैसे उनका विरोध करने वाले राजनीतिक वामपंथ के अस्तित्व पर सवाल उठा रहे हैं। हालांकि, संसद में कुछ कम्युनिस्ट सांसद हैं, लेकिन इसके बावजूद किसानों ने वामपंथी राजनीति की प्रासंगिकता का अहसास करा दिया है।

विरोध के इस माहौल में सरकार ने चार नये श्रम क़ानूनों को सामने लाने से परहेज़ किया है। यहां तक कि अवैध प्रवासियों को लेकर की जा रही बयानबाज़ी के बावजूद एनआरसी को शुरू नहीं किया गया है। इस किसान आंदोलन ने किसानों को बहुत कुछ दिया है, और इनमें से एक यह हो सकता है कि सत्ताधारी दल उनके साथ (अपने ही तरीक़े से) 'तालमेल' करने की कोशिश करे। आख़िर उत्तर प्रदेश में यह आंदोलन संकट की ऐसी तलवार बन गयी है, जो आगामी विधानसभा चुनाव और भाजपा के राजनीतिक भाग्य पर लटकी हुई है।

अपने साल भर के अस्तित्व में किसानों ने दिखा दिया है कि यह आंदोलन उनके बलिदान पर टिका हुआ है। भारत ने लंबे समय से चले आ रहे इस विरोध प्रदर्शन में उन 650 से ज़्यादा किसानों की क़ुर्बानी दी है, जिन्हें बचाया जा सकता था, अगर सरकार ने जल्दबाज़ी में पारित कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया होता।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 https://www.newsclick.in/what-farmers-movement-achieved-far

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