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बाज़ार तत्ववाद से मात खाता सामान्य ज्ञान: बिजली बाज़ारों का मिथक

कथित बिजली सुधारों के नाम पर, बाज़ार तत्ववाद की इन दीवालिया नीतियों को फिर से थोपने की कोशिश क्यों हो रही है? इन कथित बाज़ार सुधारों से फ़ायदा किसे होगा? ज़ाहिर है कि इनसे न तो उपभोक्ताओं को फ़ायदा होगा और न राज्यों को।
बाज़ार तत्ववाद से मात खाता सामान्य ज्ञान: बिजली बाज़ारों का मिथक

पिछले दो साल में यूरोप में बिजली की क़ीमतें बेहिसाब बढ़ गयी हैं। ये क़ीमतें साल भर पहले के मुकाबले चार गुनी ज़्यादा हो गयी हैं और दो साल पहले के मुक़ाबले दस गुनी ज़्यादा। यूरोपीय यूनियन ने यह दावा करने की कोशिश की है कि बिजली के दामों में यह भारी बढ़ोतरी, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गैस के दाम में भारी बढ़ोतरी का और रूस द्वारा पर्याप्त गैस की आपूर्ति नहीं किए जाने का ही नतीजा है।

यूरोप में बिजली दरों में भारी बढ़ोतरी का संकट

इससे असली सवाल यह उठता है कि अगर वाक़ई ऐसा ही है तो क्या वजह है कि जर्मनी में बिजली के दाम में चार गुने की बढ़ोतरी हुई है, जबकि उसके कुल बिजली उत्पादन में, प्राकृतिक गैस से बिजली उत्पादन का हिस्सा तो सिर्फ़ दसवां है? और क्या वजह है कि यूके में भी, जोकि जितनी प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल करता है, उसका आधा हिस्सा तो ख़ुद ही पैदा करता है, बिजली के दाम में भारी बढ़ोतरी हुई है? रूस की आपूर्तियों की समस्या की यह सारी बहानेबाजी, वास्तव में इस सच्चाई को छुपाने के लिए ही है कि इस सब के बीच बिजली उत्पादक, अनाप-शनाप मुफ़्त के मुनाफ़े बटोर रहे हैं। अपेक्षाकृत ग़रीब उपभोक्ताओं को, जिन्हें महामारी ने पहले ही बदहाल कर रखा है, एक बहुत ही क्रूर दुविधा का सामना करना पड़ रहा है। सर्दियों में उनके घरेलू बजट का 20-30 फ़ीसद तो बिजली के बिल में ही चला जाएगा, तब उन्हें क्या करना चाहिए--घर को गर्म करें या पेट की आग को ठंडा करने के लिए भोजन ख़रीदें?

बिजली की क़ीमतों में यह भारी बढ़ोतरी, बिजली क्षेत्र में पिछले 30 साल में हुए तथाकथित बाज़ार सुधारों की कहानी का ही दूसरा पहलू है। दैनिक और घंटे-घंटे पर होने वाली बिजली की नीलामियों में, संबंधित ग्रिड में बिजली की सबसे महंगी आपूर्ति से बिजली का दाम लगाया जाता है। यह बाज़ार तत्ववाद का मामला है या उस सिद्घांत का जिसे नव-क्लासिकल अर्थशास्त्री, मार्जिनल यूटिलिटी का सिद्घांत कहते हैं। इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए बतातें चलें कि तानाशाह पिनोशे ने चिली में बिजली क्षेत्र में यही सुधार किए था। पिनोशे के इन सुधारों का गुरु था, मिल्टन फ्रीडमैन। बिजली की दरों को ‘मार्जिनल प्राइस’ पर आधारित होना चाहिए, इस सिद्घांत को तो चिली के पिनोशे के संविधान तक में रखा गया था। चिली में हुए इन सुधारों के फलस्वरूप वहां के बिजली क्षेत्र का निजीकरण हो गया था, जो कि इन सुधारों का मकसद था।

चिली के इस मॉडल की ही मार्गरेट थैचर ने यूके में नकल की थी। इसी के क्रम में यूके ने अपने केंद्रीय बिजली उत्पादन बोर्ड (सीईजीबी) को ध्वस्त कर दिया था, जोकि यूके के बिजली के पूरे मूल तंत्र को चलाता था--उत्पादन, ट्रांसमिशन और थोक वितरण। इसी क्रम में यूके को अपने ताप बिजलीघरों के लिए घरेलू तौर पर पैदा होने वाले कोयले से भी विमुख किया गया और इस तरह कोयला खनिकों की ताक़तवर यूनियन की कमर तोड़ दी गयी। ऐसे ही थे बिजली के वे खुले बाज़ार के ‘सुधार’, जो एनरॉन ने कैलीफोर्निया में किए थे और जिनके चलते 2000-01 की गर्मियों में कैलीफोर्निया का ग्रिड ही बैठ गया था।

भारत में बिजली सुधार का आत्मघाती खेल

हमें यह लग सकता है कि भारत में हम लोगों का इस सब से क्या लेना-देना है? आख़िरकार, हम तो अपनी बिजली मुख्यत: घरेलू कोयले से, नदियों से (पन बिजली) और अब नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पैदा करते हैं। फिर हमें इसकी फ़िक्र करने की क्या ज़रूरत है कि यूरोप में क्या हो रहा है और प्राकृतिक गैस की क़ीमतों के साथ क्या हो रहा है?

लेकिन, हमें अपनी इस धारणा पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है और उसकी वजह इस प्रकार है। हमारे देश में केंद्र सरकार अब बिजली वितरण के जो ‘सुधार’ लाने की कोशिश कर रही है, यूके और अमरीका में जो कुछ किया जा चुका है, उसी की नक़ल हैं। 2003 के बिजली क़ानून ने, इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के लिए दरवाज़े खोले थे और इन निजी कंपनियों ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से अंधाधुंध ऋण लेकर, बड़ी संख्या में बिजलीघर लगाए थे। इसका नतीजा यह हुआ कि बिजली की आपूर्त ने मांग को पीछे छोड़ दिया। आख़िरकार, उन्हें ऋण देने वाले बैंकों तथा संस्थाओं को भारी घाटे उठाने पड़े और इन निजी कंपनियों के डूबे हुए ऋण माफ़ ही करने पड़ गए।

इन निजी कंपनियों के बिजली के क्षेत्र में लाए जाने का एक और पहलू यह था कि इस तरह से, ऊंचे दाम की यह निजी बिजली ख़रीदने का बोझ, सरकारी बिजली वितरण कंपनियों पर डाल दिया गया। यही अतिरिक्त बोझ सरकारी बिजली वितरण कंपनियों के भारी घाटों के रूप में सामने आता है। चूंकि राज्यों की सरकारों को अपनी जनता को सामना करना पड़ता है, उन्हें मजबूरन बिजली ख़रीद कर और यहां तक कि असामान्य रूप से महंगी बिजली भी ख़रीदकर, किसानों तथा घरेलू बिजली उपभोक्ताओं की मांग पूरी करनी पड़ती है। हां! बिजली के दाम में कुछ स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए, ये सरकारी बिजली वितरण कंपनियां इतना ज़रूर करती हैं कि अपनी ज़्यादातर मांग पूरी करने के लिए बिजली, दीर्घावधि सौदों के ज़रिए ख़रीदती हैं और अपेक्षाकृत थोड़ी मात्रा में ही बिजली अगले दिन के लिए और हर रोज़ की बिजली की नीलामियों में से ख़रीदती हैं।

बहरहाल, हमारे यहां अब प्रस्तावित, बिजली क़ानून का नया संशोधन तो, जिसे अब छानबीन के लिए संसदीय स्थायी समिति को भेज दिया गया है, वह करना चाहता है, जो करने की अब तक किसी और देश ने कोशिश तक नहीं की है। यह संशोधन, बिजली की मिल्कियत को, उन बिजली के तारों से भी अलग करना चाहता है, जिनसे होकर यह बिजली प्रवाहित होती है। ऐसी व्यवस्था खड़ी की जानी है जिसमें, बिजली के वितरण के सारे ताने-बाने का रख-रखाव की ज़िम्मेदारी तो राज्य सरकारों को संभालनी होगी, लेकिन इस ताने-बाने प्रवाहित होने वाली बिजली निजी कारोबारियों की मिल्कियत होगी, जो खुले ‘बाज़ार’ में बिजली बेचने और ख़रीदने का धंधा करेंगे। बेशक, इस व्यवस्था में जनता के सामने सारी ज़िम्मेदारी तो राज्य सरकारों पर ही आएगी और उन पर ही लोगों को बिजली मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी भी होगी, लेकिन उनके पास न तो बिजली की दरों को नियंत्रित करने की कोई शक्ति होगी और न अपनी जनता को बिजली की आपूर्ति करने की।

निजीकरण और बिजली बाज़ारों में क़ीमतों का खेल

और इन बाज़ारों में बिजली की क़ीमतें कैसे तय होंगी? बिजली की क़ीमतें तय होंगी, इन नीलामियों से तय होने वाली, बिजली की मार्जिनल क़ीमत के आधार पर। याद रहे कि मार्जिनल क़ीमत से बिजली की दरों के तय होने की इसी व्यवस्था ने, यूरोपीय यूनियन तथा यूके में बिजली का मौजूदा संकट पैदा किया है।

यूरोपीय यूनियन में हुए बिजली सुधारों का मक़सद कोई बिजली क्षेत्र की कार्यक्षमता बढ़ाना नहीं था बल्कि बिजली उपयोगिताओं का निजीकरण करना था। यूरोपीय यूनियन के इन सुधारों से पहले तक तो फ्रांस, जर्मनी आदि सभी प्रमुख यूरोपीय देशों में, एकीकृत बिजली ग्रिड हुआ करता था, जिसके हिस्से के तौर पर प्रमुख सरकारी संस्थान बिजली के उत्पादन, पारेषण और वितरण की ज़िम्मेदारियां संभाला करते थे। ये प्रमुख सरकारी खिलाड़ी ही ग्रिड के नियम आदि तय किया करते थे। लेकिन, यूरोपीय यूनियन को तो बिजली क्षेत्र का निजीकरण करना था और इसलिए कथित सुधारों के जरिए बिजली उत्पादन, पारेषण तथा वितरण को, अलग-अलग कर दिया गया। अब जहां बिजली के पारेषण तथा वितरण को स्वाभाविक इजारेदारियां मानते हुए, शासन के ही हाथों में रहने दिया गया, बिजली उत्पादन का निजीकरण कर दिया गया और समूचे यूरोपीय ग्रिड में उन्हें एक-दूसरे से होड़ करने के लिए छोड़ दिया गया।

लेकिन, बिजली की उत्पादक आपस में होड़ कैसे करते रह सकते हैं, जबकि बिजली के उत्पादन और आपूर्ति में बराबर संतुलन का बना रहना ज़रूरी होता है और इसलिए, इन दोनों बाजुओं का बराबर आपसी तालमेल से काम करना ज़रूरी है। पहले तो ग्रिड ही बिजली के लोड तथा मांग में संतुलन बनाए रखता था, जब बिजली की आपूर्ति मांग से नीचे होती थी, इस अंतर को भरने के लिए बिजली के सबसे कार्यक्षम स्रोतों से उत्पादन का सहारा लिया जाता था और अब आपूर्ति, मांग से ऊपर हो जाती थी, सबसे कम कार्यक्षम स्रोतों को बंद कर दिया जाता था।

बहरहाल, यूरोपीय यूनियन के नियामकों ने तब तक चली आती व्यवस्था की जगह पर, तथाकथित बाज़ार सुधारों के नाम पर बिजली का एक कृत्रिम बाज़ार खड़ा कर दिया। यह बाज़ार इस तरह से गढ़ा गया है जिससे कोई भी बिजली उत्पादक किसी ख़ास काल खंड में बिजली बेचने के लिए अग्रिम बोली लगा सके। मान लीजिए कि हरे एक दिन में एक-एक घंटे के ऐसे 24 काल खंड हैं। अब कोई भी बिजली उत्पादक इनमें से किसी ख़ास या किन्हीं ख़ास काल खंडों में निश्चित मात्रा में बिजली की आपूर्ति करने के लिए अपने दाम की बोली लगा सकता है। संबंधित काल खंड की बिजली की मांग पूरी होने तक, इन बोलियों में जो सबसे ऊंचा दाम आएगा, वही दाम उस तक आने वाली सभी बोलियों के लिए बिजली का दाम मान लिया जाएगा।

पर तब क्या होगा जब विभिन्न स्रोतों से बिजली उत्पादन की लागतों में उल्लेखनीय रूप से ज़्यादा अंतर हो और बिजली की पूरी मांग को पूर्ति करने के लिए बिजली उत्पादन के महंगे स्रोत की बिजली का सहारा लेना ज़रूरी हो? उस सूरत में मिसाल के तौर पर सौर या वायु से बनायी जाने वाली बिजली के लिए भी, जिसकी उत्पादन बढ़ाने की फालतू लागत क़रीब-क़रीब शून्य ही होती है, उतना ही दाम लगाया जाएगा, जितना दाम मांग में रह जाने वाली कसर पूरी करने के लिए द्रवीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) की महंगी बिजली का आएगा।

यूरोप का प्राकृतिक गैस का संकट

यूरोपीय यूनियन ने ग्रीन हाउस गैसों के अपने उत्सर्जन कम करने के लिए, पसंदीदा ईंधन के रूप में प्राकृतिक गैस पर ही भरोसा किया था तथा इसके साथ ही अक्षय ऊर्जा यानी पवन तथा सौर ऊर्जा की क्षमताओं का विस्तार किया था और दूसरी ओर लिग्नाइट तथा कोयले से बिजली उत्पादन से हाथ खींचा था। बहरहाल, अब उसने रूस के ख़िलाफ़ अनेक आर्थिक पाबंदियां लगा दी हैं तथा उसके ख़िलाफ़ आगे और ज़्यादा पाबंदियां लगाने के अपने मंसूबों का एलान किया है। इसके अलावा उसने यूरोपीय यूनियन के बैंकों में जमा रूस का क़रीब 150 अरब यूरो का कोष भी ज़ब्त कर लिया है। यूरोपीय यूनियन ने इसका भी एलान कर दिया है कि वह रूस से तेल व गैस का आयात घटाने जा रहा है। अचरज की बात नहीं है कि इन हालात में रूस ने यूरोपीय यूनियन के लिए अपनी गैस की आपूर्ति में ख़ासी कटौती कर दी है। अगर पश्चिम को यह लगता है कि वह अपनी वित्तीय शक्ति को रूस के ख़िलाफ़ हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है, तो उसे इतना तो पता होना ही चाहिए था कि रूस भी यूरोपीय यूनियन के लिए अपनी गैस-आपूर्ति को हथियार बनाकर इसका जवाब दे सकता है।

पश्चिमी यूरोप के लिए रूस की प्राकृतिक गैस की आपूर्ति घटने के साथ, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में द्रवीकृत प्राकृतिक गैस की क़ीमतें तेज़ी से बढ़ गयी हैं। इससे भी बदतर यह कि बाज़ार में एलएनजी की इतनी आपूर्ति उपलब्ध ही नहीं है, जो पाइपलाइनों के ज़रिए रूस द्वारा यूरोपीय यूनियन के लिए अब तक की जाती रही गैस की आपूर्ति की जगह ले सकती हो।

पिछले कुछ महीनों में ही गैस की क़ीमतें 4 से 6 गुनी तक बढ़ गयी हैं और इसके चलते बिजली के दाम भी तेज़ी से बढ़ गए हैं। लेकिन, वहां बिजली की आपूर्ति का एक छोटा सा हिस्सा ही ईंधन गैस से बनी बिजली से आता है। लेकिन, इसके सहारे पवन, सौर, नाभिकीय, जल विद्युत और यहां तक कि सबसे ज़्यादा उत्सर्जनकारी कोयले से चलने वाले बिजलीघर तक, अनाप-शनाप फ़ायदा बटोर रहे हैं। अब कहीं जाकर यूरोपीय यूनियन तथा यूके में इस पर चर्चा शुरू हुई है कि उपभोक्ताओं पर पड़ रहे बिजली के अनाप-शनाप दाम के बोझ और बिजली उत्पादकों द्वारा बटोरे जा रहे बेहिसाब फालतू मुनाफ़ों के मुद्दे से कैसे निपटा जाए।

यह नहीं समझना चाहिए कि यूरोपीय यूनियन तथा यूके में आम उपभोक्ताओं को ही बिजली की बेहिसाब बढ़ी हुई दरों की मार झेलनी पड़ रही है। यूरोप के तथा यूके के उद्योगों पर भी, इसकी मार पड़ रही है। स्टेनलेस स्टील, उर्वरक, कांच निर्माण, एल्युमीनियम तथा इंजीनियरिंग उद्योग, सभी पर लागत सामग्री की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव का ख़ासा असर पड़ता है। इसका नतीजा यह है कि यूरोपीय यूनियन तथा यूके में ये कारखाने बंद होते जा रहे हैं।

मोदी सरकार की उल्टी चाल

ग्रीस के पूर्व वित्त मंत्री, यानिस वरोफकिस ने प्रोजेक्ट सिंडीकेट वैबसाइट पर, 29 अगस्त 2022 को प्रकाशित अपने लेख, ‘टाइम टु ब्लो अप इलेक्ट्रिसिटी मार्केट्स’ में लिखा है कि, ‘‘यूरोपीय यूनियन का बिजली क्षेत्र इसका एक उम्दा उदाहरण है कि बाज़ार तत्ववाद ने दुनिया भर में बिजली के ताने-बानों के साथ क्या किया है...इसका वक़्त आ गया है कि सिमुलेटेड बाज़ारों को शांत किया जाए।’’

तब मोदी सरकार क्यों इस खाई में गिरने के लिए दौड़ रही है? क्या उसने पिछले साल के अनुभव से भी कुछ नहीं सीखा है, जब बिजली के स्पॉट बाज़ार में क़ीमतें 20 रुपये प्रति यूनिट तक चली गयी थीं, जिसके बाद जनता के बीच उठे भारी शोर के बाद, इसके लिए 12 रुपये की हदबंदी करनी पड़ी थी। फिर कथित बिजली सुधारों के नाम पर, बाज़ार तत्ववाद की इन दीवालिया नीतियों को फिर से थोपने की कोशिश क्यों हो रही है? इन कथित बाज़ार सुधारों से फ़ायदा किसे होगा? ज़ाहिर है कि इनसे न तो उपभोक्ताओं को फ़ायदा होगा और न राज्यों को।

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