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क्यों 14 अगस्त बंटवारे की विभीषिका को याद करने का सही दिन नहीं है?

विभाजन एक औपनिवेशिक शासन की ओर से दी गई दुखद भेेंट या कहें कि त्रासदी थी। शांति और सौहार्द बनाये रखने के लिए, भारत सरकार को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस ऐतिहासिक तथ्य को स्वीकारना होगा।
क्यों 14 अगस्त बंटवारे की विभीषिका को याद करने का सही दिन नहीं है?
चित्र साभार: एपी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा 14 अगस्त के दिन को विभाजन दिवस के तौर पर चुना जाना स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भारत और पाकिस्तान के कटु विभाजन को एकमात्र प्रलयंकारी घटना में तब्दील कर देता है। बंटवारा विनाशकारी था और अपेक्षाकृत कम अवधि में सामने आया, लेकिन यह कोई अचानक से हुई घटना नहीं थी, बल्कि एक सतत प्रक्रिया का परिणाम था।

लेकिन इतना ही सब कुछ नहीं है। 14 अगस्त के दिन को चुनना, जिसे पाकिस्तान अपने स्वतंत्रता दिवस के रूप में चिह्नित करता है, कटु सांप्रदायिक विभाजनकारी औपनिवेशिक खुमारी की मानसिकता को भी हवा देता है। यह बड़े महीन तरीके से सुझाता है कि भाजपा के नेतृत्त्व वाली सरकार विभाजन के लिए मुसलमानों को सामूहिक तौर पर जिम्मेदार ठहरा रही है।

14 अगस्त के चयन के पीछे, कई लोग इसे कोविड-19 महामारी और आर्थिक समस्याओं के प्रबंधन में विफल रहने से ध्यान भटकाने के प्रयास के तौर पर देख रहे हैं। उनके आरोप तर्कसंगत प्रतीत होते हैं, क्योंकि मोदी सरकार ने बहुसंख्यकवादी भावनाओं को अपने पक्ष में मजबूत करने के लिए अक्सर इतिहास को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। सरकार के द्वारा इस तारीख के चयन के पीछे, शुद्ध अवसरवाद और वोटों के गणित-भाग की सनक सबसे अहम है। क्योंकि सनद रहे, विभाजन के दौरान हिंसा का चक्र 14 अगस्त से नहीं बल्कि 17 अगस्त से शुरू हुआ था।

कलह को भड़काने की इसकी संभाव्यता को देखते हुए, हमें विभाजन और इसकी वजहों के बारे में अपनी समझ को एक बार फिर से नवीकृत करने की आवश्यकता है। एक प्रभावशाली स्तंभकार ने हाल ही में विभाजन के लिए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को अपने पाकिस्तानी समकक्ष जिन्ना के समान ही दोषी ठहराया है। यह अति-सरलीकरण का एक जीता-जागता नमूना है, क्योंकि इन दिनों कुछ नेक-नीयत और सांप्रदायिक नागरिक, मुस्लिम और हिन्दू दोनों ही समान रूप से, ऐसे विचारों को स्वीकार्यता देना पसंद करते हैं।

इतिहासकारों के लिए विचारणीय प्रश्न शायद यह है कि उनके लिए विभाजन के कारण आज उससे होने वाले दुष्परिणामों की तुलना से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं। इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडे ने बंटवारे की याद: भारत में हिंसा और राष्ट्रवाद का इतिहास (2001) में लिखा है कि विभाजन आखिरकार क्यों हुआ के कारकों के निर्धारण के पीछे आम तौर पर यह इच्छा काम करती है कि इसके लिए किसी को दोषी ठहराया जाए और किसी को इसके लिए दोषमुक्त किया जाए। इसके बजाय, वे इस बात पर जोर देते हैं कि हमें विभाजन के भयावह दुष्परिणामों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, जो अभी भी बरकरार हैं। वे इसके लिए मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर को प्रतिध्वनित करते हैं, “जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा/कुरेद-ते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है”।

इस बात को दोहराना कभी भी गैर-मुनासिब नहीं होगा कि विभाजन, प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता का नतीजा था, जिसे औपनिवेशिक राज्य और सांप्रदायिक संगठनों में उसके पिट्ठुओं, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा-आरएसएस के द्वारा समर्थन देने, उकसाने और फलने-फूलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। इस बात में कोई संदेह नहीं कि 1947 तक मुस्लिम लीग एक ज्यादा शक्तिशाली ताकत थी, और उसके बाद महासभा-आरएसएस लगातार मजबूत होती गई, विशेषकर हाल के दशकों में।

दूसरा, भारत का बंटवारा सिर्फ अंग्रेजों की मौजूदगी में ही हो पाना संभव था। यह अंग्रेज ही थे जिनके हाथों में राज्य-सत्ता का नियंत्रण था, न कि कांग्रेस पार्टी के। तीसरा, कांग्रेस ने विभाजन को रोकने के लिए अपनी तरफ से पूरी कोशिश की। यह भारत के लिए जितना अधिक संभव हो सकता था, उतने क्षेत्रों को हासिल कर पाने में सफल रही। हाँ यह सच है कि कांग्रेस की निचली इकाईयों में बहुसंख्यकवादी मनोदशा मौजूद थी, जो समय-समय पर सामने उभर आती थी। हालाँकि, आल इंडिया कांग्रेस कमेटी और कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने कभी भी सांप्रदायिक आधार पर विभाजन के प्रस्ताव को नहीं अपनाया था। इतिहासकार सुचेता महाजन ने अपनी 2001 में प्रकाशित पुस्तक, स्वतंत्रता एवं विभाजन: भारत में औपनिवेशिक सत्ता का क्षरण में इस विषय पर रौशनी डाली है।

भारत के विभाजन के मूल, 1987 में, अनीता इंदर सिंह ने रेखांकित किया है कि कैसे अंग्रेजों ने हिन्दुओं, मुस्लिमों और सिखों के सामजिक और राजनीतिक आधार पर “एकजुट” होने की हर संभव कोशिश को एक तुच्छ विफलता में तब्दील कर दिया था। औपनिवेशिक सत्ता द्वारा भड़काए गये विभाजन की आंच आज भी समूचे दक्षिण एशिया में कायम है। इस सबके बावजूद, हमारे वर्तमान शासक इस इतिहास से सबक लेने से इंकार कर रहे हैं।

कुछ भारतीय “राष्ट्रवादी” इतिहास लेखन में विभाजन के लिए सिर्फ मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराकर भगवा रूढ़िवादिता को मजबूत किया गया है। उन्होंने मुस्लिम लीग के द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के प्रति मुस्लिम प्रतिरोध को पर्याप्त मात्रा में या स्पष्ट तौर पर उच्चारित नहीं किया है।

भारत में मुस्लिमों के प्रति समकालीन संगठित घृणा भी इसी सनक और प्रेरित इतिहास लेखन से उपजी है जो विभाजन के विचार के खिलाफ मुस्लिम प्रतिरोध को नजरअंदाज करता है। हालाँकि, इस विषय पर हाल के दिनों में कुछ अपेक्षाकृत नवीनतम शोध हुए हैं। एक उदारवादी पत्रकार ने हाल ही में सोशल मीडिया पर एक ऐसी ही सूची जारी की थी, जिसमें लोगों से अपील की गई थी कि वे विभाजन को लेकर राजनेताओं के बहकावे में न आयें। इसके बावजूद, यह लीग की सांप्रदायिक-विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ मुस्लिम प्रतिरोध के कई अध्यायों को उजागर कर पाने से चूक गया है। इसमें लेखक द्वारा लिखित बिहार में मुस्लिम राजनीति: बदलती रूप-रेखा, 2014,  वेंकट धूलिपाला की (उत्तर प्रदेश पर) एक नए मदीने का निर्माण: राज्य सत्ता, इस्लाम और उत्तर-औपनिवेशिक उत्तर भारत में पाकिस्तान की चाहत, 2016; अली उस्मान कासमी और मेगन ई. रॉब की  मुस्लिम लीग के खिलाफ मुसलमान: पाकिस्तान की अवधारणा की आलोचना, 2017 को प्रमुख रूप से शामिल किया जा सकता है।

बंगाल पर जोया चटर्जी की 1995 और 2009 में प्रकाशित पुस्तकों में विभाजन की मांग के पीछे हिन्दू महासभा की भूमिका को दर्शाया गया है। पंजाब पर नीति नायर का 2011 का काम और उत्तर प्रदेश पर विलियम गौल्ड का 2005 का काम भी प्रासंगिक है। हेमंती रॉय द्वारा लिखित भारत का विभाजन (2018 में प्रकाशित) एक जरुरी संदर्भित पुस्तक है। रॉय की इस पतली पुस्तिका विभाजन के “इतिहास, यादों और विरासतों” एक एकल आख्यान से परे जाकत इसके विविध अनुभवों और राजनीतिक प्रक्षेपवक्रों की ओर ले जाने का सुझाव देती है।

वे लिखती हैं, “भारत के विभाजन को हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखों के बीच की सदियों पुरानी दुश्मनी के प्रतीकात्मक परिणिति के तौर पर देखना काफी आसान है... हालाँकि, वह लोकप्रियता, सांप्रदायिक एकता और इंसानी रिश्तों, जिसने उन रास्तों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है, उन आख्यानों को मिटा देता है।

कट्टर बहुसंख्यकवादी ताकतें, जो आज राज्य सत्ता से लैस हैं, का 1947 से पहले और बाद के नरसंहारों के लिए किसी भी दोषारोपण से खुद को बरी रखने में निहित स्वार्थ छुपा हुआ है। वे आज जिस हिंसा को अंजाम दे रहे हैं, उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हैं, क्योंकि इसे उन्हें सत्ता में बनाये रखने के हिसाब से गढ़ा गया है। इस वजह से, वे अपने खतरनाक रूप से चयनात्मक भूलने वाली बीमारी के साथ, बगैर-पश्चाताप के ढीठ बने हुए हैं। उनके विचारक अपने लेखन में, जो वे कहते हैं और अक्सर अंजाम देते हैं, उन नरसंहारों को न्यायोचित ठहराते रहते हैं।

इतना ही परेशान करने वाला उल्लास “अल्पसंख्यकवादियों” के कुछ वर्गों के बीच में भी देखने को मिलता है, जिन्होंने अब 15 अगस्त के दिन को काबुल के तालिबान के हाथों पतन के जश्न के रूप में मनाने का बहाना तलाश लिया है। कुछ लोग यह दावा करने के लिए बचकानी कहानी पेश कर कर रहे हैं कि यह एक “अच्छा तालिबान” है।

कुछ महीने पहले, एक व्हाट्सऐप ग्रुप के एक सदस्य ने जिसमें मैं भी हूँ, ने मोरक्को की एक इस्लामी नारीवादी महिला फातिमा मेरिन्नसी की महिलाएं एवं इस्लाम: एक ऐतिहासिक और धार्मिक परीक्षण का एक अंश साझा किया। इसमें एक वाक्य था: “पैगंबर ने हिजाब के लिए जोर दिए जाने पर सहमति नहीं दी थी... अगर महिलाओं के अधिकार कुछ मुस्लिम पुरुषों के लिए एक समस्या हैं, तो इसका कारण न तो कुरान है और न ही पैगंबर, और न ही इस्लामी परंपरा इसके लिए जिम्मेदार हैं। बल्कि सीधे तौर पर इसका कारण वे अधिकार हैं जो पुरुष अभिजात्य वर्ग के हितों से टकराते हैं।”

इसके प्रतिउत्तर में, ग्रुप के कुछ सदस्यों ने साझा करने वाले को जान से मार देने की धमकी दी, जबकि बाकियों ने इसे “ईश निंदा” करार दिया। इस ग्रुप में 300 की संख्या में सदस्य हैं, जिसमें कई सरकारी कर्मचारी और राज्य द्वारा वित्त पोषित मदरसों में काम करने वाले कर्मचारी शामिल हैं। ग्रुप के एडमिन ने इसे साझा करने वाले को ग्रुप से निकाल दिया, जबकि जिसने जान से मार देने की धमकी जारी की थी, वह अभी भी ग्रुप में बना हुआ है।

अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता और स्त्री द्वेष को नकारना भी उतना ही खतरनाक है जितना कि विभाजन को लेकर गाल बजाना, जैसा कि भाजपा चाहती है। भारत में प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता इस उप-महाद्वीप के बहुसंख्यकवाद को दर्शाती है। दोनों विषबेल की तरह फल-फूल रहे हैं, लेकिन पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियाँ इसे किस तरह से हवा देने में शामिल हैं, इस रहस्य पर पर्दा पड़ा हुआ है। जब तक इस रहस्य की परतें नहीं खुलतीं, आइये हम इतिहास से सबक सीख सकते हैं, और देखते हैं इस बारे में रॉय क्या लिखते हैं: “राजनीतिक मतभेदों की बजाय साझे क्षेत्रीय चिंताओं की वकालत करना और 1947 के [एकीकृत] साझा पूर्व-इतिहास को स्वीकार करना एक बेहतर क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में अग्रसर कर सकता है और विभाजन के आघात से आगे बढ़ने में सहायक सिद्ध हो सकता है।”

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक एवं समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पड़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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