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अदालतें क्यों नहीं कर सकतीं पीएसी अध्यक्ष की नियुक्ति के स्पीकर के फैसले की समीक्षा 

सदन में अध्यक्ष के कार्यों की न्यायिक समीक्षा बहुत ही खास और अतिवादी मामलों तक ही सीमित है। 
parliament

संसद या विधानसभाओं की लोक लेखा समिति (पीएसी) के अध्यक्ष के पद पर पीठासीन अध्यक्षों द्वारा की गई नियुक्तियों पर अदालतें पुनर्विचार क्यों नहीं कर सकती हैं? हालांकि सदन में अध्यक्ष के कार्यों की न्यायिक समीक्षा बहुत विशिष्ट और अतिवादी मामलों तक सीमित है। अधिवक्ता निखिल परीक्षित ने अपने इस आलेख में पश्चिम बंगाल विधानसभा में पीएसी के अध्यक्ष के रूप में मुकुल रॉय की नियुक्ति पर कलकत्ता उच्च न्यायालय के हालिया फैसले की बाबत दल-बदल विरोधी कानून की जांच-पड़ताल की है। 

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हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल विधानसभा अध्यक्ष को निर्देशित किया कि वे दल-बदल के आधार पर अयोग्यता से संबंधित संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधानों के तहत मुकुल रॉय के खिलाफ लंबित याचिका पर शीघ्र निर्णय लें। 

मुकुल रॉय 2021 में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कृष्णानगर क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर विधायक चुने गए थे। लेकिन परिणाम घोषित होने के बाद, वे कथित तौर पर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (AITC) में शामिल हो गए थे। 

सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल विधानसभा अध्यक्ष द्वारा तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल की अध्यक्षता वाली कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के फैसले के खिलाफ दायर एक विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई करते हुए यह नियमन दिया। यह याचिका भाजपा विधायक अंबिका रॉय द्वारा यथा वारंटो के (जनहित याचिका (पीआइएल) की शैली के) रूप में दायर की गई थी। इस जनहित याचिका में न्यायालय से मांगी गई राहत केवल लोक लेखा समिति (पीएसी) के अध्यक्ष के रूप में मुकुल रॉय की नियुक्ति तक ही सीमित थी। कहा गया था कि उनकी नियुक्ति विधानसभा के स्पीकर ने सदन के पटल पर की थी और इसलिए वह विधानसभा की एक 'कार्यवाही' के अंतर्गत आती है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि विधानसभा में विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी द्वारा मुकुल रॉय के खिलाफ दायर (दल-बदल के आधार पर प्रतिनिधि के रूप में अयोग्य ठहराने वाली) याचिका कलकत्ता उच्च न्यायालय के विचार का विषय नहीं थी। 

हालांकि, कलकत्ता उच्च न्यायालय इस मामले में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मुकुल रॉय का एआइटीसी में कथित दलबदल "वास्तव में" हुआ था और अध्यक्ष ने अपने पहले के निर्णय (पीएसी के अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति) को जारी रखा था। तद्नुसार, उच्च न्यायालय ने  अध्यक्ष को निर्देश दिया कि वे मुकुल राय के खिलाफ लंबित अयोग्यता याचिका में पारित आदेशों को पीठ के समक्ष पेश करें। अयोग्यता याचिका पर फैसला करने के लिए स्पीकर को दिया गया खंडपीठ का यह निर्देश एक मायने में विधानसभा अध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र में किया गया एक बलात हस्तक्षेप (मैंडेटरी इंजक्शन) था, और वह भी एक विशेष तरीके से। 

न्यायालय के इस निर्देशात्मक दृष्टिकोण के पीछे तर्क यह था कि विधायक के रूप में मुकुल रॉय के कथित दल-बदल किए जाने के कारण पीएसी अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति का मुद्दा विधानसभा के सदस्य के रूप में उनकी अयोग्यता से जुड़ा था। उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक और तर्क यह था कि विधानसभा अध्यक्ष मुकुल रॉय के खिलाफ अयोग्यता याचिका पर तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेने में विफल रहे थे। यह अवधि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ द्वारा केईशाम मेघचंद्र सिंह बनाम विधानसभा अध्यक्ष मामले में दिए गए फैसले में तय की गई थी।

कलकत्ता उच्च न्यायालय के इस फैसले से जो बात सामने आती है, वह यह है कि यह अध्यक्ष के दो अलग-अलग कार्यों से संबंधित है-एक विधायक मुकुल रॉय की पीएसी के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति का, जो सदन के पटल पर किया गया एक विधायी कार्य है, और दूसरे, विधायक के विरुद्ध अयोग्यता की बाबत अपेक्षित कार्यवाही का, जिसे कानून के तहत सदन के बाहर के अधिनिर्णय का विषय माना जाता है, और इसलिए ही वह विधानसभा की कार्यवाही का हिस्सा नहीं होता है।

मुकुल रॉय को पीएसी के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करने की स्पीकर की कार्रवाई को भी "संवैधानिक परम्परा" (कॉंस्टिट्यूशनल कन्वेंशन) का उल्लंघन माना गया क्योंकि उच्च न्यायालय का विचार था कि पश्चिम बंगाल विधान सभा के अंतर्गत लोकलेखा समिति के अध्यक्ष पद पर विपक्ष के किसी विधायक को ही नियुक्त किए जाने की एक प्रथा चली आ रही है। पीठ के अनुसार, इस मामले में पिछली संवैधानिक परंपरा का पालन नहीं किया गया है, जो विधानसभा के कार्यव्यवहार में एक संस्थागत रूप ले चुकी है। न्यायालय के मुताबिक, इसने "पर्याप्त अवैधता" पैदा किया है, और इस तरह सदन के पटल पर किए गए अध्यक्ष के कार्य को न्यायिक समीक्षा का विषय हो गया है। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय का यह निर्णय (जिसके विरुद्ध अब सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई की जा रही है।) सदन के पटल पर अध्यक्ष के कार्यों की न्यायिक समीक्षा के लिए नए रास्ते खोलता है क्योंकि यह विधायी कार्यवाही में संवैधानिक परंपराओं का पालन करना विधानसभा अध्यक्ष के पद का कर्तव्य करार देता है। 

जैसा कि आज का कानून कहता है, सदन के पटल पर किए गए अध्यक्ष के कार्यों की न्यायिक समीक्षा की अनुमति दो आधारों पर निर्भर है :(i)  क्या संबद्ध शिकायत "संसद की कार्यवाही" के दौरान या "राज्य विधानमंडल में होने वाली कार्यवाहियों" (इनमें जिससे भी संबंधित हो) के दौरान हुई थी, और (ii) यदि ऐसा है, तो क्या जिस कार्रवाई की शिकायत की गई है, वह "वास्तविक अवैधता" के विपरीत "प्रक्रिया की अनियमितता" से संबंधित है। यदि वास्तविक अवैधतता का मामला है तो फिर वह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। 

हालांकि, राजा राम पाल मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विवेचित "वास्तविक अवैधता" का मानक व्यापक प्रतीत होता है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर, "वास्तविक अवैधता" का यह मानक अब विस्तारित हो गया है और संवैधानिक परंपराओं का अनुपालन न किए जाने के मामलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे में ला दिया है। 

स्पीकर की स्थिति

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 122 और अनुच्छेद 212 के उप-अनुच्छेद (1) जो कि समसामयिक हैं, उसका प्रावधान है कि विधायिका के अंदर की गई 'किसी भी' कार्यवाही को "प्रक्रिया की किसी भी कथित अनियमितता" के आधार पर सवाल नहीं किया जा सकता है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 122 और अनुच्छेद 212 के उप-अनुच्छेदों (2) ​किसी सक्षम (पीठासीन)अधिकारी या संसद सदस्य या राज्य विधानमंडल (जैसा भी मामला हो)  के सदस्य द्वारा प्रक्रिया को विनियमित करने या व्यवसाय के संचालन या व्यवस्था बनाए रखने से संबंधित निहित और प्रयोग की जाने वाली शक्तियों के मामले किसी भी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के दायरे में नहीं आते।

संविधान के प्रावधान के तहत, अध्यक्ष पद एक उच्च संवैधानिक दर्जा प्राप्त पद है, क्योंकि संविधान में इस कार्यालय में अत्यधिक आस्था व्यक्त की गई है। किसी भी विधानमंडल या संसदीय सदन के अध्यक्ष-पद को लेकर ऐसी धारणा है, हालांकि इसमें थोड़े संशोधन की गुंजाइश है, कि यह उच्चस्तरीय स्वतंत्रता, त्रुटिहीन निष्पक्षता और सबसे बढ़कर, पूर्ण निष्पक्षता की भावना रखता है। हालांकि, हाल के उदाहरणों से पता चलता है कि अध्यक्ष-पद पर यह विश्वास दिनानुदिन कम होता गया है। मणिपुर इसका एक बड़ा उदाहरण है, जिसमें विधानसभा के अध्यक्ष तीन साल से अधिक समय तक 10वीं अनुसूची के तहत सदस्य की अयोग्यता याचिका पर निर्णय लेने में विफल रहे थे। इस कारण ही मणिपुर के कांग्रेस विधायक केईशाम मेघचंद्र सिंह बनाम विधानसभा अध्यक्ष मामले में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति नरीमन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ को किसी सदस्य की अयोग्यता के मामलों में निर्णय लेने के लिए पीठासीन अध्यक्षों के लिए तीन महीने की मियाद तय करनी पड़ी। हालाँकि, उनके उक्त निर्णय को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह तीन महीने की बाहरी सीमा कोई पत्थर की लकीर नहीं है, और वास्तविकता में, अध्यक्ष से यह अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसी याचिकाओं पर एक उचित समय सीमा के भीतर ही निर्णय ले लें। 

संविधान के ​122​​ तथा ​​212​​ अनुच्छेदों में वर्णित उद्देश्यों के लिए सदन का अध्यक्ष संविधान के ही 93 एवं 178 अनुच्छेदों के आधार पर बहुत बड़ा अधिकारी है, क्योंकि वह सदन का पीठासीन अधिकारी होता है। इसलिए, संसद या राज्य के विधानमंडलों में विधायी प्रक्रिया को विनियमित करने या कामकाज के संचालन से संबंधित मामलों में या व्यवस्था बनाए रखने के लिए उसके द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियां, शब्दशः पठन के आधार पर, न्यायिक समीक्षा के दायरे से परे हैं। 

मोहम्मद सईद सिद्दीकी मामले में सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ के दिए फैसले में संविधान के अनुच्छेद 122 में दायरे में "संसद में कार्यवाही" की अभिव्यक्ति के दायरे में "संसदीय कामकाज के तहत की जाने वाली हर बात और काम को शामिल करना" माना था। उड़ीसा उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ के समक्ष गोदावरी मिश्रा मामले में यह सवाल विचारणीय था कि क्या सदन का सत्र वास्तव में शुरू होने से पहले सदस्यों द्वारा प्रश्नों की सूचना देना और अध्यक्ष द्वारा इसकी अनुमति देना या अस्वीकृत करने को 'संसदीय कार्यवाही' की प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है। इस मामले में उच्च न्यायालय ने "मे के संसदीय आचरणों" (थॉमस एर्स्किन मे ब्रिटिश संसदीय नियम-कायदों के सिद्धांतकार हैं, जिनकी लिखित किताबों को इस क्षेत्र में बाइबिल माना जाता है।) पर भरोसा करते हुए कहा कि यह अभिव्यक्ति संसद के वास्तविक सत्र के दौरान होने वाली कार्यवाही तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें इसके पहले के उठाए गए कुछ कदम भी शामिल हैं, जैसे पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची या सूचना देना या प्रस्तावों की सूचना देना आदि। 

इसलिए, "संसद या किसी राज्य की विधायिका में कार्यवाही" की अभिव्यक्ति में संबद्ध सदनों के पीठासीन अध्यक्ष द्वारा "विनियमन प्रक्रिया" या "कार्य संचालन" या "व्यवस्था बनाए रखने के लिए" से संबंधित मामलों पर उठाए गए सभी कदम शामिल हैं। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय के इस फैसले से जो बात सामने आती है, वह यह है कि यह अध्यक्ष के दो अलग-अलग कार्यों से संबंधित है-एक विधायक की पीएसी के अध्यक्ष के रूप में की गई नियुक्ति, जो सदन के पटल पर किया गया एक कार्य है, और दूसरा, विधायक के विरुद्ध अयोग्यता की विचाराधीन कार्यवाही जिसे कानून के तहत सदन के बाहर का अधिनिर्णय माना जाता है, और इसलिए यह विधानसभा के अंदर की कार्यवाही नहीं मानी जाती है। 

एक तरफ तो किहोतो होलोहन मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले में अवधारणात्मक अंतर पर ध्यान दिया जा सकता है (जिसका उल्लेख पहले किया गया था)। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत सदन के पटल पर की गई कार्यवाही और अध्यक्ष के समक्ष की जाने वाली कार्यवाही के बीच अंतर किया था। इसमें माना गया कि 10वीं अनुसूची के मुताबिक अध्यक्ष का पद एक 'ट्रिब्यूनल' के समान है, और इसलिए वह सदन को स्वतंत्र रूप से संचालित करता है, इस प्रकार दल-बदल विरोधी कानून के तहत किए गए उसके कार्यों को न्यायिक समीक्षा के लिए उत्तरदायी बनाता है। इस अंतर को जे. नरीमन ने केईशाम मेघचंद्र सिंह बनाम विधानसभाध्यक्ष मामले में दिए गए अपने मौलिक निर्णय में उजागर किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अपने फैसले में इस वैचारिक अंतर को खत्म कर दिया था। 

​​"प्रक्रियात्मक अनियमितता" बनाम "मूल अवैधता"

राजा राम पाल के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने अनुच्छेद 122 एवं 212 के प्रयोजनों के लिए "प्रक्रियात्मक अनियमितता" और "पर्याप्त अवैधता" के बीच अंतर किया है। 

संविधान पीठ के इस निर्णय में कहा गया कि विधायिका में कार्यवाही जो "वास्तविक या घोर अवैधता या असंवैधानिकता" के कारण दोषपूर्ण हो सकती है, वह न्यायिक समीक्षा के दायरे से अलग नहीं है। 

"प्रक्रिया की अनियमितता" और "पर्याप्त अवैधता" के बीच के इस वैचारिक अंतर पर संविधान पीठ ने आधार मामले (पुट्टस्वामी II) में भरोसा किया था, जिसमें विवाद के कई मुद्दों में से एक मुद्दा यह भी था कि क्या लोकसभा अध्यक्ष का द्वारा आधार विधयेक, 2016 को धन विधेयक मानने का निर्णय न्यायिक समीक्षा का विषय हो सकता है। पीठ इस विचार पर एकमत थी कि यदि आधार विधेयक संविधान के अनुच्छेद 110 (​​संविधान के "धन विधेयक" की परिभाषा) के तहत निहित शर्तों को पूरा नहीं करता है, तो अध्यक्ष की वह कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के लिए उत्तरदायी है। आगे यह माना गया कि राज्य सभा की संस्था, जो कि संघवाद के वैशिष्ट्य को दर्शाने वाली एक महत्त्वपूर्ण संस्था है, के अध्यक्ष द्वारा मनमाने ढंग से किसी विधेयक को धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करके संस्था को कमजोर नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, अध्यक्ष द्वारा विधेयक को धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करने के निर्णय को विधायी प्रक्रिया के अंतर्गत का विषय नहीं माना गया; और यदि संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन के कारण इस निर्णय में कोई अवैधता हुई है, तो यह माना गया कि अध्यक्ष का वह निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में आएगा। 

संविधान के अनुच्छेद 122 एवं अनुच्छेद 212 के प्रयोजनों के लिए किसी सदन के अध्यक्ष को अनुच्छेद 93 एवं अनुच्छेद 178 के प्रावधानों के आधार पर बहुत सक्षम अधिकारी बनाया गया है, क्योंकि वह सदन का पीठासीन अधिकारी होता है। 

न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने अपनी प्रसिद्ध असहमति में विधायी कार्यवाही में अध्यक्ष के कार्यों की न्यायिक समीक्षा के दायरे पर बहुमत की राय से सहमति तो जताई पर उन्होंने इसके आगे जा कर कहा कि अध्यक्ष ने आधार विधेयक को गलत तरीके से "धन विधेयक" के रूप में प्रमाणित किया था। अपनी असहमति में,  न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने नियमों-शर्तों में कुछ स्पष्टता की पेशकश की कि किस तरह के मामले ऐसी "प्रक्रिया" के दायरे में आते हुए माने जाएंगे। उन्होंने गौर किया कि संविधान के अनुच्छेद 118 और अनुच्छेद ​122​ और उसमें परिकल्पित की गई प्रक्रियाओं में "मूल संवैधानिक आवश्यकताओं" के आधार पर अंतर किया जा सकता है। उनका विचार था कि यदि अध्यक्ष के कार्यों में कोई "संवैधानिक दोष" नहीं है, तो इस पर अदालतें सवाल नहीं कर सकती हैं। 

संविधान के अनुच्छेद ​​118​​ जो अनुच्छेद 208 के समान है, उपयुक्त विधायिका को अपनी प्रक्रिया और अपने कामकाज के संचालन को विनियमित करने के लिए नियम बनाने में सक्षम बनाते हैं। इस नियम बनाने की शक्ति की एकमात्र सीमा यह है कि वे संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध नहीं हो सकते, उनके खिलाफ नहीं जा सकते। इन दोनों अनुच्छेदों के तहत बनाए गए नियम प्रक्रियात्मक प्रकृति के हैं और यदि नियमों की वैधता पर कोई सवाल नहीं है, तो फिर अध्यक्ष द्वारा लिया गया कोई भी निर्णय या की गई व्याख्या अपने आदर्श रूप में न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं आ सकती है। 

आधार मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की राय से यह निष्कर्ष निकलता है कि विधायिका के प्रक्रियात्मक नियमों के तहत अध्यक्ष द्वारा की गई कार्रवाई (जैसा भी मामला हो) संविधान के अनुच्छेद 122 एवं अनुच्छेद 212 के तहत संरक्षित-सुरक्षित मानी जाती है। 

यह हमें उस मूल मुद्दे पर वापस लाता है, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष निर्णय देने के लिए लाया गया था: संविधान के किसी भी मूल अनुच्छेद का उल्लंघन न किए जाने के अभाव में एक "संवैधानिक प्रतिबद्दता" को संविधान के अनुच्छेद 118 एवं अनुच्छेद 208 के अंतर्गत संसद या राज्य की विधायी प्रक्रिया के नियमों के तहत में पढ़ा जा सकता है? और क्या अध्यक्ष इस तरह की प्रतिबद्धता-परंपरा से बंधे हैं?

विधायिका की प्रक्रिया से संबंधित पहलुओं में एक संवैधानिक परम्परा का विस्तार

ताजा मामले में, इसके कुछ तथ्यों पर गौर किया जा सकता है-मुकुल रॉय की पीएसी के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा पश्चिम बंगाल विधानसभा के कामकाज के नियम संविधान के अनुच्छेद 208 के तहत की गई थी। यह नियम ऐसी किसी शर्त को निर्धारित नहीं करता है कि विपक्ष के किसी विधायक को ही पीएसी का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। हालांकि, कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि पश्चिम बंगाल विधानसभा में एक पुरानी प्रथा प्रचलित थी, जिसके तहत पीएसी अध्यक्ष-पद पर नियुक्तियां विपक्षी दल से की जाती थीं। खंड पीठ ने इस दस्तूर का विस्तार एक "संवैधानिक परिपाटी" तक कर दिया था और तदनुसार, उसका यह विचार था कि इस तरह की प्रथा के उल्लंघन से "वास्तविक अवैधता" हुई है, जिसने अध्यक्ष के कार्यों को न्यायिक समीक्षा के दायरे में ला दिया है। 

के. लक्ष्मीनारायणन मामले में दिए गए एक निर्णय में "संवैधानिक प्रथा" की अवधारणा पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्याप्त गहराई से विचार किया गया था। इस अवधारणा को हमारे संवैधानिक कानून में कैसे शामिल किया गया, इसकी खोजबीन करने के बाद, खंडपीठ ने इस अवधारणा की एक अपनी एक संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित शब्दों में दी है: 

​"​​संवैधानिक परंपराएं संविधान के कामकाज में पैदा होती हैं और उसके द्वारा मान्य होती हैं। संवैधानिक परम्पराओं का अभिप्राय एवं उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संविधान का कानूनी ढांचा संवैधानिक मूल्यों और संवैधानिक नैतिकता के अनुसार संचालित हो। संवैधानिक परंपरा या परिपाटी का उद्देश्य हमेशा संविधान में निहित उच्च मूल्यों और आदर्शों को प्राप्त करना होता है। परंपराएं स्थिर नहीं हैं, उन्हें संवैधानिक मूल्यों और संवैधानिक व्याख्याओं में बदलावों के साथ बदला जा सकता है। ऐसी किसी भी संवैधानिक परिपाटी की मान्यता नहीं दी जा सकती है या उसे लागू नहीं किया जा सकता है,जो व्यक्त संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत हो या रेखांकित संवैधानिक उद्देश्यों और अभिप्रायों के विपरीत चलता है, जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है।” [जोर देते हुए] 

इस मामले में, यह तर्क दिया गया था कि पुडुचेरी सरकार के परामर्श के बिना पुडुचेरी विधानसभा में सदस्यों को नामित करने का केंद्र सरकार का निर्णय इस तथ्य के बल पर एक संवैधानिक सम्मेलन का उल्लंघन था कि पहले छह मौकों पर परामर्श किया गया था। ऐसा कोई भी नामांकन करने से पहले किया गया। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस दलील को नहीं माना। 

राजा राम पाल मामले में दिए निर्णय में कहा गया कि विधायिका में कार्यवाही जो "वास्तविक या घोर अवैधता या असंवैधानिकता" के कारण कलंकित हो सकती है, न्यायिक जांच से सुरक्षित नहीं है। 

इस मामले के तथ्यों से जो बात सामने आती है, वह यह है कि यह सदन के पटल पर की जाने वाले किसी कार्रवाई से संबद्ध नहीं है। वास्तव में, यूएनआर राव बनाम इंदिरा गांधी और SCAORA मामले में न्यायालय के पिछले निर्णय, जिन्होंने संवैधानिक परंपरा के पालन को एक बढ़ावा दिया था, वे फैसले संविधान के मूल प्रावधानों की व्याख्या के संदर्भ में और पूरी तरह से भिन्न तथ्यात्मक परिदृश्यों में प्रस्तुत किए गए थे। इनमें से किसी भी निर्णय ने संसद या राज्य की विधायिका की प्रक्रिया के मामलों पर एक संवैधानिक परम्परा या परिपाटी के परिपालन का यह मान कर अनुमोदन नहीं किया था कि यह मौजूदा रुझान जारी रहेगा या भविष्य में इसी तरह के तौर-तरीके ऐसे ही लागू किया जाना बाध्यकारी होगा। दिलचस्प बात यह है कि उपभोक्ता शिक्षा और अनुसंधान सोसायटी से संबंधित के. लक्ष्मीनारायणन मामले में पीठ ने सर्वोच्च न्यायालय के पहले के एक फैसले पर निर्भर किया, जिसने एक संवैधानिक परम्परा को संसदीय चलन मानने से इनकार कर दिया था। 

कंज्यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सोसाइटी के मामले में, यह तर्क दिया गया था कि एक संवैधानिक परंपरा विकसित हुई थी जिसमें "लाभ के पदों" की पहचान करने और उनका वर्गीकरण करने के उद्देश्य से प्रत्येक लोकसभा में एक संयुक्त समिति बनाई गई थी। इस मामले में यह तर्क दिया गया था कि जब भी किसी विशेष 'पद' को अनुच्छेद 191 के तहत अयोग्यता नियम से छूट दी जानी थी तो ​इस प्रश्न पर संयुक्त समिति की राय मांगी गई थी कि क्या उक्त पद "लाभ का पद" था या नहीं और क्या किसी सांसद द्वारा ऐसे पद को धारण किया जाना उसके कर्तव्यों के विपरीत होगा, और क्या किसी पद को ऐसी छूट दी जानी चाहिए या नहीं। यह तर्क दिया गया था कि संयुक्त समिति द्वारा ऐसी सिफारिश करने वाली रिपोर्ट के बाद किसी विशेष "पद" को कोई छूट दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और इस चलन को "संवैधानिक परम्परा" के रूप में मानने से इनकार कर दिया क्योंकि यह "संसदीय प्रक्रिया" से संबंधित था। 

अध्यक्ष को सदन की प्रक्रिया के नियमों का अंतिम व्याख्याकार होने के नाते उसको कानूनी कार्यवाही के खतरे से डरे बिना अपने विवेकाधिकार से अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए। न्यायालयों को केवल तभी दखल देना चाहिए जब अध्यक्ष की तरफ से नियमों का पूरी तरह या जबर्दस्त तरीके से उल्लंघन किया गया हो। ऐसे मामलों में वे कार्य शामिल होंगे, जो एक मौलिक संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन करने के समान हैं या जो संविधान की किसी भी बुनियादी विशेषताओं जैसे कि संघवाद या लोकतंत्र के सिद्धांतों को कमजोर करने वाले हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय यह अच्छी तरह से तय कर सकता है कि क्या मुकुल रॉय का पीएसी के अध्यक्ष पद पर बनाए रखने का मामला, उस कोटि का ही एक मामला है। 

(​​निखिल परीक्षित भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

साभार: द लीफलेट 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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