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किसानों ने सरकार के ‘प्रस्तावों’ को क्यों ख़ारिज किया?

किसानों की प्रमुख आशंकाओं को मोदी सरकार संबोधित नहीं कर पाई, जिसने किसानों को आंदोलन को तीव्र करने की योजना बनाने पर मजबूर कर दिया।
Farmers protest

जैसा कि कई लोगों ने आशंका जताई थी और कुछ वैसा ही हुआ,  नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों की शिकायतों को निपटाने के बजाय उनके साथ युद्ध का विकल्प चुना है। गृह मंत्री अमित शाह के साथ हुई अंतिम वार्ता के बाद, केंद्र सरकार ने किसानों के संगठनों को जो अंतिम और लिखित प्रस्ताव भेजे उनमें पाया गया कि प्रस्तावों में उन्ही बातों को दोहराया जा रहा है जिन्हे सरकार पहले से कह रही थी। 

प्रस्तावों का सार और सरकार की पेशकश निम्न है: लिखित आश्वासन कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रणाली जारी रहेगी; एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) मंडियों के बाहर काम करने वाले व्यापारियों का पंजीकरण होगा और राज्य सरकारें उन पर समान कर/उपकर लगा सकेंगी; विवाद समाधान प्रक्रिया को एसडीएम/डीएम स्तर से सिविल अदालतों में स्थानांतरित किया जाएगा; कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कॉरपोरेट या अन्य फर्म/संस्थाएं किसानों की जमीन के एवज़ में कर्ज़ नहीं ले सकेंगी या इसे संबद्ध नहीं कर सकेंगी; नए बिजली संशोधन विधेयक के तहत बिजली सब्सिडी को खत्म करने के बारे में आशंकाओं को दूर करने के लिए आश्वासन दिया  कि वर्तमान प्रणाली में कोई बदलाव नहीं होगा; और, पराली जलाने के खिलाफ कानून के प्रावधान पर आश्वासन दिया है कि एक उपयुक्त समाधान निकाला जाएगा। 

संयुक्त किसान मोर्चा, जो सामूहिक रूप से देश भर के 500 से अधिक किसान संगठनों का प्रतिनिधित्व करता है ने इन प्रस्तावों पर चर्चा की और उन्हें पूरी तरह से खारिज कर दिया। उन्होंने दिल्ली में दाखिल होने वाले सभी राजमार्गों की नाकाबंदी को मजबूत करने के लिए 12 दिसंबर को सभी टोल प्लाजा को टोल फ्री बनाने, देश के सभी जिला मुख्यालयों पर विरोध प्रदर्शन करने और अनिश्चितकालीन धरनों का आयोजन करने साथ ही सभी उत्तर भारतीय राज्यों के किसानों का आह्वान किया कि वे बदस्तूर विरोध के साथ दिल्ली की तरफ कूच करना शुरू करें। जाहिर है, यह सब काफी हद तक हठधर्मी सरकार के खिलाफ दबाव बनाने का आम करेगा। 

किसानों की केंद्रीय और सबसे महत्वपूर्ण मांग- जो इस आंदोलन का आधार भी है- वह तीन नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग है। सरकार जो पेशकश कर रही है, वे कुछ प्रावधानों में बदलाव की बात करते हैं, जो मात्र लिखित आश्वासन के पूरक के रूप में हैं। इसलिए, आगे बैठक करने का कोई आधार नहीं बचता है।

इस अव्यवस्था का एक कारण यह भी है कि सरकार सोच रही है (या दिखावा कर रही है) कि एमएसपी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसलिए, वे संभवतः सोच रहे हैं कि एक लिखित आश्वासन की पेशकश करने भर से कि पुरानी व्यवस्था जारी रहेगी, काफी नहीं है। इसी तरह, वे ये भी सोचते हैं, संभवतः, कि अगर यह प्रावधान रहता है कि ठेकेदार भूमि पर कब्जा नहीं कर पाएंगे तो निगमीकरण का उनका डर खत्म हो जाएगा। 

इस सोच को देखें तो सरकार या तो बहुत ही भोले बनने दिखावा कर रही है या फिर वह काफी ऊंचे स्तर का स्वांग रच रही है। जो भी ही, यह दिखाता है कि यह सरकार, जिसे लोगों के आंदोलनों से जुड़ने का कोई अनुभव या प्रेरणा नहीं है, अभी भी समाधान के लिए टकटकी लगाए हुए है, जबकि हर समय वे किसान विरोधी तीन कानूनों से चिपके नज़र आते हैं। यह भोलापन या घमंड है जिसने किसानों को दो सप्ताह से दिल्ली की सीमा पर डेरा डालने पर मजबूर किया है, और शायद भविष्य में इसके अनिश्चित समय तक चलाने की संभावना है। 

क्यों सरकार के प्रस्तावों को खारिज किया गया 

किसानों के बीच एमएसपी को लेकर चिंता इस बारे में नहीं है कि सरकार समय-समय पर एमएसपी की घोषणा करती है। यह केवल इतना भर है कृषि उत्पाद को अधिक नहीं तो कम से कम एमएसपी स्तरों पर बेचा जा सकता है। सिर्फ एमएसपी घोषित करना और फिर उस पर फसल की खरीद नहीं करना कोई समाधान नहीं है। नया कानून उस भयानक परिदृश्य की ओर बढ़ रहा है जिसमें निजी व्यापारियों को फसल खरीदना आसान होगा और तय मंडियों को "बाहर" कर देगा। यदि सरकार अपनी एजेंसियों के माध्यम से खरीद नहीं करती है, तो किसानों को अपनी फसल को निजी व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा। वे एमएसपी पर खरीदने के लिए मजबूर नहीं होंगे- केवल सरकार एमएसपी पर खरीदने के लिए बाध्य है। यही कारण है कि निजी व्यापारियों के प्रवेश की आशंका खरीद को नष्ट कर देगी और इसलिए एमएसपी भी तबाह हो जाएगी। बिहार का मामला लें, जहां एपीएमसी को खत्म कर दिया गया था, वह इस प्रक्रिया का एक जीता-जागता उदाहरण है- हर साल एमएसपी घोषित की जाती है, लेकिन इस पर कोई खरीद नहीं होती है, और कीमतें हमेशा एमएसपी से नीचे रहती हैं। हाल की रिपोर्टों से पता चलता है कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में, जिन मंडियों में सरकारी खरीद होती थी, वे धराशायी हो गईं हैं और खरीफ की फसल की कीमतें एमएसपी से काफी नीचे गिर गईं थी।

इसलिए, केवल यह कहना कि "एमएसपी जारी रहेगी" काफी नहीं है। या तो इसे कानूनी अधिकार बनाया जाए या कम से कम, निजी व्यापारियों को समानांतर मंडियों को खोलने और हर जगह से जरूरी खाद्यान्न खरीदने की अनुमति न दी जाए। दूसरे शब्दों में, नए कानून को समाप्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि यही नए कानून का सार है।

इसी तरह, किसानों को यह आश्वासन देना कि ठेकेदार उनकी ज़मीनों के एवज़ में कर्ज़ नहीं ले सकते हैं और विवाद की स्थिति में किसानों की भूमि को संलग्न नहीं कर सकते हैं। अनुबंध खेती से संबंधित दूसरा कानून विभिन्न संस्थाओं को इस बात की अनुमति देता है कि वे  कंपनियां एक निश्चित किस्म की फसल के लिए किसानों से समझौता कर सकती है, और एक निश्चित मूल्य पर इसे खरीदने का वादा कर सकती है। अनुभव से पता चलता है कि अंतिम खरीद के समय गुणवत्ता और मानकों के सभी प्रकार के मुद्दे उठाए जाते हैं और किसानों को भारी नुकसान होता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान भविष्य में कीमतों के मामले में ठेकेदारों पर निर्भर हो जाएंगे। यहां तक कि अगर विवादों को सिविल अदालतों में ले जाया जाता है, तो किस किसान (विशेष रूप से एक छोटा/सीमांत) के पास बड़े औद्योगिक समूह से अदालतों में 10-20 साल की लंबी लड़ाई करने के संसाधन हैं? किसानों का कहना है कि ये सभी आशंकाएं ठोस है और कानून इसके इर्द-गिर्द है, इसलिए इनका खारिज होना जरूरी है। 

तीसरा कानून, जो आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन की बात करता है, वह कृषि उपज के खरीदारों के लिए असीमित भंडारण/स्टॉकिंग का रास्ता खोलता है, दूसरे शब्दों में, कृषि-आघारित बड़ा व्यवसाय। ये कानून कुछ आपातकालीन हालत को छोड़कर, कीमतों को स्वतंत्र रूप से तय करने का अधिकार बड़े व्यापारियों या पूँजीपतियों को देता है। यह केवल पिछले कानूनों के संचालन को सुविधाजनक बनाने के लिए है, ताकि बड़े व्यापारी और खाद्य प्रसंस्करण कंपनियाँ/दिग्गज इस श्रृंखला के अंतिम चरण में ठोकर न खाएं। इस कानून पर कोई वचन/आश्वासन नहीं दिया गया है।

कानूनों को इस लिए भी समाप्त किए जाने की जरूरत है- और किसान इस पहलू के बारे में गहराई से जानते भी हैं- क्योंकि ये कानून राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सुनिश्चित  सार्वजनिक वितरण प्रणाली को नष्ट करने का रास्ता भी तैयार करेंगे। ये तीनों कानून खाद्य सुरक्षा संबंधित कानून को दफन कर देंगे और देश भर में लाखों लोगों को मौत के कगार पर पहुंचा देंगे जो जीवित रहने के लिए सब्सिडी वाले खाद्यान्न पर निर्भर हैं।

इसलिए किसान अब अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं और साथ ही देश की विशाल आबादी के अस्तित्व के लिए भी लड़ रहे हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि सरकार को इन तीनों कानूनों को तुरंत खारिज कर देना चाहिए। ज़ाहिर इस वार्ता के असफल होने के बाद इस लड़ाई में एक तरफ कॉर्पोरटोक्रेसी यानि बड़ी पूंजी और उसके ध्वजवाहकों होंगे और दूसरी तरफ़ खेत जोतने वाले मज़दूर/किसान होंगे। 

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Why have Farmers Rejected Govt.’s ‘Offers’?

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