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संसद के शीतकालीन सत्र के रद्द होने से सरकार को मुश्किल सवालों से बच निकलने में मिली मदद

अनीता कात्याल का कहना है कि संसद के शीतकालीन सत्र के रद्द किये जाने पर किसी तरह की कोई हैरत इसलिए नहीं होती है,क्योंकि मोदी सरकार देश के सामने मौजूद विवादास्पद मुद्दों को लेकर ख़ुद का बचाव करने की हालत में नहीं है। 
संसद

इस महीने की शुरुआत में नये संसद भवन का शिलान्यास करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जहां असहमति की अपनी जगह है, वहीं किसी तरह के भिन्नता के लिए कोई जगह नहीं है। इसके बाद उन्होंने गुरु नानक का उद्धरण देते हुए कहा कि जब तक दुनिया का वजूद है, तब तक बातचीत जारी रहनी चाहिए और यही लोकतंत्र की आत्मा थी।

यह विडंबना ही है कि मोदी द्वारा लोकतंत्र में संवाद की ख़ासियत की भूरी-भूरी तारीफ़ करने के कुछ ही दिनों बाद, उनकी सरकार ने चल रहे कोरोनावायरस महामारी के चलते संसद के शीतकालीन सत्र को स्थगित करने का फ़ैसला कर लिया। भारतीय संसद को स्थगित करने का फ़ैसला ऐसे समय में किया गया है, जब कोरोनोवायरस संक्रमण से निपटने में फिसड्डी रहे संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश अपने-अपने यहां के विधायी संस्थानों के सत्र बुलाये हैं।

लेकिन, मोदी सरकार के इस फ़ैसले से कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

यह संसद और अन्य संस्थानों को  लेकर सरकार के नज़रिये के अनुरूप ही था। छह साल से ज़्यादा समय तक सत्ता में रहते हुए मोदी ने ख़ुद संसद को कमज़ोर करने की हर मुमकिन कोशिश की है, हालांकि उन्होंने इसे "लोकतंत्र का मंदिर" बताते हुए ज़ुबानी प्रेम ज़रूर दिखाया है।

मसलन, संसद का आख़िरी सत्र काफी देर के बाद आयोजित किया गया और इसके बाद प्रश्नकाल को ही ख़त्म कर दिया गया। यह अहम काल होता है, जिसमें विपक्ष सरकार की नीतियों और उनके कार्यक्रमों को लेकर राजकोष पर पड़ने वाले प्रभावों और जवाबदेही पर सवाल कर पाता है।

अपने सार्वजनिक बयानों के उलट प्रधानमंत्री के पास संसद या संसदीय बारीक़ियों को लेकर बहुत ही कम समय होता है।

मोदी संसद में शायद ही दिखायी देते हैं,जबकि उनकी सरकार आम तौर पर प्रमुख मुद्दों पर चर्चा को लेकर विपक्ष की मांगों को मानने को लेकर अनिच्छुक रहती है। मोदी सरकार की लगातार यही कोशिश रही है कि संसदीय प्रक्रियाओं को दरकिनार किया जाये।

किसी भी विधेयक को संसदीय समितियों के पास जांच-पड़ताल के लिए भेजने से परहेज किया किया जाता रहा है और अपने विधायी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस सरकार ने अध्यादेशों की घोषणाओं का सहारा लिया है।

मानसून सत्र के ठीक पहले मोदी सरकार 11 अध्यादेश लाई थी, जो बाद में बिना समुचित बहस के संसद में बेहद  जल्दीबाज़ी में क़ानूनों में तब्दील कर दिये गये।

विवादास्पद कृषि विधेयक भी उन्हीं विधेयकों में से थे, जिन्हें पिछले सत्र में विपक्ष की मांग के बावजूद बिना किसी चर्चा के क़ानून में तब्दील कर दिया गया था। इन विधेयकों के पारित होने के दरम्यान राज्यसभा में उस समय हंगाम नज़र आया थी, जब राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने इन विधेयकों पर मतदान को लेकर विपक्ष की मांग की अनदेखी करते हुए सरकार को मदद पहुंचायी थी।

इन क़ानूनों ने अब मोदी सरकार के लिए एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है, क्योंकि इन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की मांग को लेकर दिल्ली के बॉर्डर पर डेरा डाले हज़ारों नाराज़ किसान अपने आंदोलन ख़त्म करने की किसी जल्दबाज़ी में नहीं दिखते हैं।

लगातार चल रहे किसानों के इस आंदोलन में ख़ुद को फ़ंसा हुआ देखते हुए भी सरकार कृषि से जुड़े इन क़ानूनों और विरोध प्रदर्शनों से निपटने को लेकर साफ़ तौर पर अनिच्छुक नज़र आती है। अगर संसद का शीतकालीन सत्र आयोजित किया गया होता, तो इन मुद्दों पर ख़ास तौर पर विचार-विमर्श होता।

विपक्षी दल किसानों की बात नहीं सुने जाने को लेकर सरकार के ख़िलाफ़ हमलावर होने की तैयारी में थे, जिन्हें लगता है कि ये नये क़ानून किसानों की आजीविका को खतरे में डाल देंगे और उन्हें कॉर्पोरेट्स की दया के हवाले कर देंगे।

हालांकि, विपक्ष चुनावी मैदान में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ एक आम मोर्चा बनाने में असमर्थ है, लेकिन, इस बात के पर्याप्त संकेत ज़रूर थे कि अलग-अलग विपक्षी दल अपने मतभेदों को दूर कर लेंगे और शीतकालीन  सत्र में इन कृषि क़ानूनों पर सरकार के ख़िलाफ़ लामबंद होकर लड़ाई लड़ेंगे।

मोदी सरकार इसे शायद ही स्वीकार कर पाती, लेकिन सरकार इस तरह की गड़बड़ी से बच सकती थी, अगर यह इन कृषि बिलों को पारित कराने को लेकर इतनी जल्दबाज़ी नहीं दिखाती और इसके बजाय सरकार उन विधेयकों की व्यापक जांच-पड़ताले के लिए किसी संसदीय समिति के पास भेज देती।

इससे सरकार को विपक्ष के सामने अपना रुख स्पष्ट करने का अवसर मिला होता, जिससे इन विधेयकों को मज़बूती देने और उसमें सुधार लाने में बहुमूल्य सुझाव मिल सकता था। सहमति बनाने को लेकर खेती बाड़ी के जानकारों और किसानों की यूनियनों के प्रतिनिधियों सहित दूसरे हितधारकों से सलाह ली जा सकती थी।

विधेयकों को विशेष रूप से गठित स्थायी समितियों को सौंपे जाने की प्रणाली नब्बे के दशक में इसलिए शुरू की गयी थी,क्योंकि यह महसूस किया गया था कि छोटे-छोटे पैनल क़ानून के विस्तृत अध्ययन के लिए ज़्यादा अनुकूल थे।

संसदीय बहस से अलग,समिति के सदस्यों के पास किसी विधेयक के अलग-अलग हिस्से पर विचार-विमर्श करने और यहां तक कि ज़्यादा स्पष्टता के लिए जानकारों को बुलाने का पर्याप्त समय होता।

बंद दरवाज़े में बैठक करते हुए एक ऐसा सोचा-समझा फ़ैसला लिया गया,जो इस दिखावे को सुनिश्चित कर दे कि सांसदों की रूचि इन चर्चाओं में नहीं थी और इसके बजाय द्विदलीय तरीक़े से इस पर चर्चा की गयी। हालांकि इन विधेयकों को लेकर सदस्यों के बीच बहुत मतभेद थे, लेकिन रिपोर्ट इस तरह से पेश की गयी कि सभी सदस्य इसे लेकर एकमत हैं।

दिवंगत वित्त मंत्री, अरुण जेटली निजी बातचीत में अक्सर यह टिप्पणी करते थे कि मंत्री, विपक्ष के सुझावों को स्वीकार करने को लेकर अनिच्छुक रहते हैं, क्योंकि वे उन विधेयकों को लेकर अधिकार भाव से ग्रस्त होते हैं, जिन विधेयकों का वे संचालन कर रहे होते हैं। वे कहा करते थे, "लेकिन वे भूल जाते हैं कि विपक्ष से मिलने वाले सुझाव किसी क़ानून को बेहतर बनाने में मददगार हो सकते हैं... और किसी भी स्थिति में वे विधेयक तब भी उन्हीं मंत्री के विधेयक के तौर पर ही जाने जायेंगे।" 

लेकिन, दुर्भाग्य से जेटली के विचार अनसुने रह गये, क्योंकि मोदी सरकार विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजे जाने को लेकर ख़ास तौर पर विरोध में रही है।

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक़, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में पेश किये गये विधेयकों में से महज़ 25 प्रतिशत को ही संसदीय समितियों के पास भेजे गये, जबकि इसके मुक़ाबले जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार सत्ता में थी, उस समय 71 प्रतिशत विधेयकों को संसदीय समितियों को भेजे गये थे।

मौजूदा लोकसभा में पेश किये गये विधेयकों में से महज़ 10 प्रतिशत विधेयकों को ही इन समितियों के पास भेजा गया है।

पिछले साल 17 विपक्षी सांसदों ने भी इन समितियों को दरकिनार करने की सरकार की आदत को लेकर अपनी चिंता जताते हुए राज्यसभा के सभापति एम.वेंकैया नायडू को लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था,“सार्वजनिक विचार-विमर्श लंबे समय से चली आ रही एक ऐसी पंरपरा है, जिसके तहत संसदीय समितियां किसी क़ानून की अंदरूनी पहलुओं और उनकी गुणवत्ता में सुधार लाने की दिशा में काम करते हुए विधेयकों की सूक्ष्म पड़ताल,उस पर विचार-विमर्श करती हैं।” हालांकि,इस बारे में उनकी तरफ़ से अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है।

यह भी एक हक़ीक़त है कि संसदीय समितियों का विचार-विमर्श एक ऐसा मामला है,जो समय खपाऊ है। दरअस्ल, जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसने कई बार यूपीए सरकार के महत्वपूर्ण विधेयकों को स्थायी समितियों में लंबे समय तक चर्चा के लिए लटकाये रखा था।

यूपीए सरकार का प्रमुख क़ानून, खाद्य अधिकार विधेयक, एक ऐसा क़ानून था,जिसे विपक्ष ने जानबूझकर लंबित किया था। जब वह विधेयक पारित हो गया, तब तक मनमोहन सिंह सरकार के पास इस अधिनियम को लागू करने के लिए बहुत ही कम समय रह गया था।

स्पष्ट है कि मोदी उसी हालात का सामना नहीं करना चाहते हैं।

रिकॉर्ड बनाने में दिलचस्पी रखने वाले मोदी इन बिलों के पारित करवाने की दर को लेकर अपनी सरकार की कामयाबी से इठलाने के बारे में ज़्यादा सोचते हैं। इसके अलावा, किसी भी तरह के विरोध का भाव या उनकी योजनाओं में होने वाली किसी तरह की कोई देरी उन्हें मंज़ूर नहीं है। ऊपर से अब, जबकि सरकार को राज्यसभा में भी किसी तरह की कोई दिक़्क़त नहीं रह गयी है, तो ऐसे में विपक्ष की असहमति उनके लिए कोई मायने नहीं रखती है। नतीजतन, संसद अब सामूहिक विचार-विमर्श का एक मंच नहीं रह गयी है। इसके बजाय, इसका स्तर एक बहस करने वाले क्लब का रह गया है।

(अनीता कात्याल दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं,जिन्होंने संसद के कई सत्रों को कवर किया है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Cancellation of Winter Session of Parliament Helps the Government Duck Tough Questions

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