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एनपीआर-एनआरसी पर हिंदुओं को भी चिंतित होना चाहिए 

सभी भारतीय, ख़बरदार! क्षेत्रीय दलों के मतदाता सबसे ऊपर हैं।
Why Hindus Must Also Worry About NPR-NRIC
Image Courtesy: PTI

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अद्यतन करने के फ़ैसले और नागरिकों के अखिल भारतीय रजिस्टर (एनआरआईसी) को तैयार के लिए बढ़ते क़दम को सही मायने में देश की जनता को छलने वाला क़दम माना जा रहा है। एनपीआर और एनआरआईसी के बीच का क़ानूनी जुड़ाव सभी भारतीयों के लिए ख़तरे की घंटी होना चाहिए।    

यहां तक कि इस क़दम पर हिंदुओं को भी चिंतित होना चाहिए क्योंकि एनपीआर-एनआरआईसी वास्तुकला, जिसे नागरिकता (नागरिक पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना) नियम, 2003 में उल्लिखित किया गया है, वह नौकरशाहों को तय करने की असीम शक्ति देती है कि देश का नागरिक कौन है और कौन नहीं। इन असीम शक्तियों के ज़रिये वे अपने राजनीतिक आकाओं के निर्देशों पर असंतुष्ट या वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों को परेशान कर सकते हैं। या फिर रिश्वत खाने के लिए किसी की भी नागरिकता को संदेह के घेरे में ला सकते हैं। उनके पास  लोगों के अधिकार को ख़त्म करने का हक़ बहुत ही तबाही वाला कदम होगा।

नागरिकता नियम एनपीआर से एनआरआईसी की तैयारी को अनिवार्य बनाता है, जो कथित तौर पर व्यक्ति या उसके माता-पिता के जन्म की तारीख़ और स्थान सहित कम से कम 21 डाटा अंक एकत्र करेगा। दी गई जानकारी के लिए दस्तावेज़ी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। एनआरआईसी के संबंध में एनपीआर डेटा का इस्तेमाल करने के बारे में सरकार के इनकार करने पर जनता का विश्वास काफ़ी हद उठ गया है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विभिन्न नेताओं और ख़ुद गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले एक साल में देश भर में एनआरसी को लागू करने के बारे में बार-बार बयान दिए है।

एनपीआर को एनआरआईसी में बदलने का काम दूसरे चरण या सत्यापन के ज़रिये शुरू होता है। नागरिकता नियम के अनुसार "जनसंख्या रजिस्टर में प्रत्येक परिवार और व्यक्ति के विवरणों की जांच और सत्यापन उनके उस स्थानीय रजिस्ट्रार द्वारा किया जाएगा", जिन्हें राज्य सरकार ने उप-ज़िला या तालुक स्तर पर नियुक्त किया है। स्थानीय रजिस्ट्रार के पास उन लोगों के विवरणों की जांच की जाएगी जिनकी नागरिकता पर उन्हें संदेह है या नहीं, उन्हें इसके बारे में सूचित किया जाएगा और जनसंख्या रजिस्टर में इस आधार पर प्रविष्टि की जाएगी।

जिस व्यक्ति की नागरिकता पर संदेह किया जाएगा उसे उप-जिला या तालुक रजिस्ट्रार के सामने सुनवाई का अधिकार हासिल होगा, उन्हें इस अपील पर 90 दिनों के भीतर किसी निर्णय पर पहुंचना होगा कि उनका नाम एनपीआर में होना चाहिए या नहीं। 90 दिन की सीमा को आगे बढ़ाया भी जा सकता है।

उसके बाद, उप-ज़िला या तालुक स्तर पर स्थानीय रजिस्ट्रार, जिसे नागरिक रजिस्टर का मसौदा कहा जाता है, को प्रकाशित किया जाएगा। आइए देखें यह किस तरह से लज्जाजनक है - कोई भी व्यक्ति मसौदा रजिस्टर में किसी भी नाम को शामिल किए जाने के ख़िलाफ़ उसके प्रकाशन के 30 दिनों के भीतर आपत्तियां दर्ज कर सकता है। संदिग्ध नागरिक को स्थानीय रजिस्ट्रार के समक्ष अपनी नागरिकता साबित करने के लिए 90 दिनों का समय फिर से मिलेगा, फिर स्थानीय रजिस्ट्रार संदिग्ध नागरिकों के नाम को हटा कर भारतीय नागरिक पंजीकरण के स्थानीय रजिस्टर को नागरिक पंजीकरण के ज़िला रजिस्ट्रार के सामने प्रस्तुत करेगा।

फिर संदिग्ध नागरिक को स्थानीय रजिस्ट्रार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ ज़िला रजिस्ट्रार के सामने अपील करने के लिए 30 दिन का समय मिलेगा। ज़िला रजिस्ट्रार को 90 दिनों के भीत-भीतर अपील पर फ़ैसला सुनाना होगा, इस समय सीमा की समाप्ति पर और अपील स्वीकार नहीं होने की स्थिति में, उसका नाम भारतीय नागरिकों के स्थानीय रजिस्टर से काट दिया जाएगा। नागरिकता के नियम स्थानीय रजिस्टर में प्रविष्टियों को भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में स्थानांतरित करने के लिए ज़िला रजिस्ट्रार को अधिकार/आदेश देते हैं।

इस समयावधि के आधार पर, एक नागरिक को अवैध अप्रवासी घोषित करने में लगभग एक वर्ष का समय लगेगा। उसके पास, संभवतः, अभी भी अपनी नागरिकता का दर्जा वापस हासिल करने के लिए न्यायिक प्रक्रिया का सहारा होगा। जब एक नागरिक अपने आपको या अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए एक कठोर, अवैयक्तिक प्रणाली से लड़ेगा तो उसके दिवालिया होने के साथ-साथ नर्वस मलबे बनने की संभावना बढ़ जाती है।

स्थानीय रजिस्ट्रार में निहित शक्तियों की वजह से एनपीआर-एनआरआईसी का अभ्यास केवल मुसलमानों को ही प्रभावित नहीं करेगा। कोई भी व्यक्ति किसी की भी नागरिकता पर संदेह कर सकता है, फिर चाहे वह पैसा वसूलने के लिए, या फिर जो प्रमुख समूहों उनके लिए ख़तरा हो सकते हैं, या जो लोग राज्य के लिए एक चुनौती बन सकते हैं।

यह एक मिथक है कि हिंदुओं को, यहां तक कि जब उन पर निशाना साधा जाएगा तब भी नागरिकता संशोधन अधिनियम के तहत उनके लिए सुरक्षा कवच होगा, जो सुरक्षा कवच वैध दस्तावेजों के बिना, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से आए ग़ैर-मुसलमानों को नागरिकता देने की बात करता है, क्योंकि वे धार्मिक अत्याचार के सताए हुए हैं।

उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत में रह रहा एक हिंदू सीएए के तहत अपनी नागरिकता साबित करने से बच नहीं सकता है या अपनी प्रतिरक्षा नहीं कर सकता है। और न ही शायद भारत के अधिकांश हिस्सों के हिंदू ही ऐसा कर सकते हैं। उन सभी को यह साबित करने की आवश्यकता होगी कि वे या उनके पूर्वज पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में पैदा हुए थे - और उन्हें धार्मिक रूप से प्रताड़ित भी किया गया था। वे इसे असंभव नहीं तो कम से कम एक बेमुरव्वत काम मानेंगे।

यह एनपीआर-एनआरआईसी प्रक्रिया के कारण ही है कि एनपीआर डाटा स्व-घोषणा के माध्यम से उत्पन्न होता है; इस स्तर पर किसी तरह का कोई भी प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन अगर एक बार एनपीआर एनआरआईसी को तैयार करने का आधार बन जाता है, तो किसी भी व्यक्ति की नागरिकता के बारे में स्थानीय रजिस्ट्रार के संदेह को केवल उसके या उसके जन्म स्थान के दस्तावेजों के माध्यम से या उसके या उसके माता-पिता के माध्यम से ही बहाल किया जा सकता है।

यदि एक हिंदू जिसकी नागरिकता पर संदेह किया जाता है, चाहे फिर कारण कोई भी हो, उसके द्वारा भारतीय राष्ट्रीय रजिस्टर में की गई घोषणा जिसमें वह पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से आने के मूल दावे के बारे में की गई घोषणा का खंडन नहीं कर सकता है। वैसे भी, सैंकड़ों तमिलों के लिए यह कहना हास्यास्पद होगा कि वे पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान में धार्मिक रूप से उत्पीड़ित थे। जैसा कि हैदराबाद के नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ के कुलपति फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने हाल ही में कहा कि, "अधिकांश लोगों को तीन देशों की राष्ट्रीयता और धार्मिक उत्पीड़न के कारण वहाँ से प्रवासन दोनों को साबित करना मुश्किल होगा।"

फिर भी यह अजीबोगरीब धारणा शायद सीएए में मौजूद उस शरारती दोष के कारण है, जो अपने उद्देश्यों और कारणों के बयान में धार्मिक उत्पीड़न का उल्लेख करता है, लेकिन वे इसके प्रावधानों में नहीं है। मुस्तफ़ा कहते हैं कि, "दो व्याख्याएं संभव हैं। एक यह कि कोई भी [जो ग़ैर-मुस्लिम है] वह देश के भीतर आ सकता है ... दूसरा यह है कि केवल धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोग ही आ सकते हैं, तो जो लोग आर्थिक कारणों से यहां आ रहे हैं, भले ही वे हिंदू हों, उन्हें इस क़ानून से कोई लाभ नहीं होगा।"

सीएए पर इस भ्रम को देखते हुए, यह सोचना बेतुका है, क्योंकि कई लोग यह कहते हैं कि सीएए की ढाल किसी भी हिंदू को दी जा सकती है, जिसकी नागरिकता संदिग्ध है। 1955 के नागरिकता अधिनियम के तहत, उन्हें यह साबित करना होगा कि वे भारत में 1 जुलाई, 1987 से पहले पैदा हुए थे। कई गरीब, अनपढ़ हिंदू, अपने मुस्लिम समुदाय के समकक्षों की तरह, जन्म प्रमाण पत्र रखने की संभावना नहीं होती है, यह स्थिति स्थानीय रजिस्ट्रार को लोगों को पीड़ा पहुंचाने की पर्याप्त गुंजाइश देते हैं।

यह उन लोगों के लिए और भी मुश्किल होगा जो 2 जुलाई 1987 और 3 दिसंबर 2004 के बीच पैदा हुए हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि न केवल उन्हें जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना होगा, बल्कि यह भी साबित करना होगा कि उनके माता-पिता में से एक भारतीय नागरिक था। 3 दिसंबर, 2004 के बाद पैदा हुए लोगों के लिए, उन्हें स्थानीय रजिस्ट्रार को यह बताना होगा कि उनके माता-पिता में से एक अवैध प्रवासी नहीं है।  

यह केवल स्थानीय रजिस्ट्रार ही नहीं है, जो धन के लालच में एनपीआर में लोगों की नागरिकता के बारे में संदेह उठा सकते हैं। मित्रतापूर्ण पड़ोसी भी ऐसा कर सकते हैं, जैसा कि स्थानीय राजनीतिक नेता संख्यात्मक रूप से छोटे समूहों के बारे में कर सकते हैं जो उन्हें वोट नहीं देते हैं। या राज्य के अधिकारी एनआरआईसी का उपयोग उन लोगों को लक्षित करने के लिए कर सकते हैं जिन्हें वे उपद्रवी मानते हैं। यह संदेह उन्हें कम से कम एक वर्ष के भीतर नागरिकता साबित करने की बोझिल प्रक्रिया से गुजरने के लिए मजबूर करेगा।

एनपीआर-एनआरआईसी की जुगलबंदी का निस्संदेह मुसलमानों को प्रोफाइल करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन शक्तिशाली लोग इसे ग़रीब, अनपढ़ हिंदुओं के ख़िलाफ़ भी एक धारदार गंडासे की तरह इस्तेमाल करेंगे, और जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सच्चा हिंदू हृदय सम्राट मानते हैं, वे किसी भी तरह से यह सुनिश्चित करेंगे कि उन्हें एनआरआईसी से नहीं निकाला जाए। एक हिंदू जिसे एनआरआईसी में अवैध अप्रवासी घोषित किया जाएगा, सीएए के तहत नहीं आएगा। उसकी किस्मत सिर्फ निर्वासन और नज़रबंदी होगी।

भारत अपने लाखों लोगों को निर्वासित या नज़रबंदी नहीं कर सकता है। लेकिन उनके अधिकारों को छीना जा सकता है, जिसकी मिसालें पहले से ही मौजूद है। नागरिकता अधिनियम के तहत जो लोग 1 जनवरी, 1966 और 25 मार्च, 1971 के बीच असम में 10 वर्ष से हैं या चुनाव के दो चक्रों से हैं को विदेशी घोषित किया है और उनके अधिकारक छीन लिए गए हैं। जो लोग एनआरआईसी से बाहर होंगे वे काफी हद तक निम्न-वर्गीय या निम्न-जाति के लोग होंगे, जो क्षेत्रीय दलों के समर्थन का प्रयाप्त आधार हैं, यह अपने आप में एक दमदार कारण है कि उन्हें एनआरपी- एनआरआईसी पर लिए गए अपने फ़ैसले के बारे में फिर से सोचने की ज़रूरत है।

लेखक दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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