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यह किसानों का प्रदर्शन-स्थलों से घर लौटने का उचित समय क्यों नहीं है

इसकी बजाय, संयुक्त किसान मोर्चा के लिए यह समय भाजपा के खिलाफ अपने चुनाव अभियान को उन राज्यों में जिंदा रखने का है, जहां चुनाव जल्द होने वाले हैं-खासकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में।
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चित्र सौजन्य: रायटर्स

लंबे समय से यह माना जाता रहा है कि तुर्की, पूर्वी यूरोप और लैटिन अमेरिका से लेकर समस्त पूर्वी और मध्य एशिया तथा लोकतंत्र के जन्मस्थल माने जाने वाले उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप समेत पूरी दुनिया में पिछले एक दशक या इसके भी पहले की अवधि के लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सांचे में तराशे गए एक बेहद ताकतवर व्यक्ति हैं।

नरेन्द्र मोदी और उनका शासन दुनिया भर में फैले शासन-सत्ता की विकृतियों का अंश है: निर्णय लेने की एक राजशाही शैली, जो स्वरूपतः एकतरफा एवं निरंकुश है, और इसलिए असमझौतावादी है। मोदी का यह राजतंत्रीय रेशमी परिधान 19 नवंबर 2021 को चिथड़ा हो गया, जब उन्हें तीनों कृषि कानूनों, जिनका मुख्य रूप से हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान लगभग एक साल से विरोध करते रहे हैं, और जिन्हें वे किसी भी सूरत में वापस न लेने पर अड़े थे, उन्हीं कानूनों को वापस लेने की एकतरफा घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने यह भी ऐलान किया कि ये कानून 29 नवंबर 2021 से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में निरस्त कर दिए जाएंगे।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि औद्योगिक श्रमिकों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, छात्रों और सीधे-सादे नागरिकों के बने नेटवर्क के समर्थन से किसानों के अडिग विरोध ने नरेन्द्र मोदी के राज्यतंत्रीय मिथ्याभिमान को झाड़-पोंछ कर साफ-सुथरा कर दिया है।

फिर भी, यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि इसने नरेन्द्र मोदी की मूल प्रवृत्ति का भी पर्याप्त परिवर्तन या उसका परिष्करण कर दिया है और उन्होंने उन लोगों को सुनना सीख लिया है, जिनका वे कथित रूप से प्रतिनिधित्व करते हैं; हालांकि यह वह क्षण हो सकता है, जब कोई शासन-सत्ता वास्तव में एक प्रतिनिधि सरकार बन जाए। दरअसल,कानूनों की यह भव्य वापसी केवल चुनावी बाध्यताओं की वजह से किसानों को दी गई रियायत है। नरेन्द्र मोदी ने किसानों के आगे इसलिए झुके क्योंकि उन्हें संदेह था कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो आसन्न उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में हार हो सकती है। हम यह भी जानते हैं कि केवल मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ही इस बाध्यता को समझते हैं। इस भाजपा शासन के लिए, चुनाव लड़ना और जीतना ही राजनीति का आसवित (डिस्टिल्ड) सार-तत्त्व है, यही वह प्राथमिक कारण है कि जिससे कि वे प्रशासन चलाने के बारे में अनभिज्ञ हैं।

मोदी और शाह एवं उनके चापलूसों तथा मुख़ालिफ़ अपनी केंद्रीय धुरी से चिपके हुए हैं, उनके लिए, चुनाव जीतना ही शहर में एकमात्र खेल रह गया है, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हिंदुत्व के एजेंडे को साकार करने के लिए गणतंत्रात्मक लोकतंत्र की चूलें हिलाने की शर्तों पर खेला जाना है। जो पुनश्च, कम से कम आंशिक रूप में ही सही, चुनाव जीतने का मात्र एक उपकरण है। इस तरह, यह एक शातिर अधोमुखी चक्रण को पूरा करता है।

मुख्य रूप से उत्तर भारत के अग्रणी धनी और मध्यम किसानों की तरफ से चलाए जा रहे इस वीरतापूर्ण संघर्ष की ओर लौटें तो हम देख सकते हैं कि विवादित तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के प्रस्ताव के रूप में मिली किसानों की जीत एक आंशिक जीत है। इसलिए आगे बढ़ने से पहले, हमें देख लेना चाहिए कि क्या-क्या हमारी मेज से वास्तव में हटा दिया गया है। निरस्त किए जाने वाले प्रस्तावित कानून हैं: किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020; मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम, 2020 का किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता; और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020। आंदोलनकारी किसानों की अवधारणा और उनकी समझ को ध्यान में रखते हुए उनके इस प्रस्ताव को मान लेने का पर्याप्त आधार होना चाहिए, कि एक साथ उनका लक्ष्य एक विपणन बुनियादी ढांचा तैयार करना है, जो बड़े खरीदारों, जिनमें ज्यादातर कॉरपोरेट संस्थाएं शामिल हैं,उन्हें अल्पक्रेताधिकार (ओलिगोप्सोनिस्टिक) और अल्पविक्रेताधिकार (ओलिगोपॉलिस्टिक) दोनों में ही बाजार में फायदे देगा। और दोनों विक्रेताओं, यानी किसानों, और खरीदारों, यानी नागरिकों को नुकसान पहुंचा रहा है।

इन कानूनों को लेकर किसानों की खास ऐतराज इसको लेकर था कि यह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए खरीद और उसके प्रावधानों को कमजोर करेगा, ठेके पर खेती के चलन को प्रोत्साहित करेगा, जिसका दक्षिण अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे विविध स्थानों में एक कपटी ट्रैक रिकॉर्ड रहा है, और जो जमाखोरी को बढ़ावा देगा। ये सभी चिंताएं सर्वथा निर्मूल नहीं हैं।

नरेन्द्र मोदी का शासन, हालांकि, राजशाही और पितृसत्तात्मक अवधारणाओं-मान्यताओं पर एकतरफा आगे बढ़ा है, पर वह कोई भी निर्णय लेने के पहले किसी अधिकारिक व्यक्ति से किसी भी तरह का राय-मशविरा करने में विफल रहा है। उनकी सरकार ने शुरू में कानूनों को अध्यादेशों के रूप में पेश किया और उस पर चयन समिति की राय लेने की परम्परा का पालन करने की बजाए संसद के दोनों सदनों-लोकसभा एवं राज्यसभा-से पारित कर दिया। जाहिर है कि कृषि कानूनों के सत्व और उनके अधिनियमन की सरकार की निरंकुश शैली दोनों ने ही किसानों के व्यापक संघर्ष को उकसाने का काम किया है।

संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के नेतृत्व ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी आंदोलन को आगे बढ़ाने की आवश्यक शर्त, हालांकि यही पर्याप्त नहीं है, उन कानूनों का वास्तविक निरसन ही है, जिनके विरुद्ध वह आंदोलन किया गया है। आंदोलनकारी किसान कई कारणों से सरकार पर भरोसा नहीं करते: इसकी मुख्य वजह आंदोलन के दौरान खुद प्रधानमंत्री और वरिष्ठ मंत्रियों द्वारा उन पर गलत आरोप लगाते हुए निशाना साधा जाना, और फिर मोदी के विभाजनकारी तरीकों से की गई घोषणा है, जिनके चलते वे उन पर विश्वास नहीं करते। प्रधानमंत्री की कानूनों की वापसी की घोषणा में न तो आंदोलन के दौरान अपनी जान गंवाने वाले लगभग 700 किसानों के लिए सहानुभूति का एक शब्द था, और न ही कोविड महामारी, कड़ाके की सर्दी और झुलसाने वाली गर्मी के दौरान किसानों के हुए दारुण कष्टों के प्रति कोई सहानुभूति थी।

एक वाजिब चिंता यह भी है कि एक बार आंदोलनकारियों के तितर-बितर हो जाने के बाद मोदी अपनी प्रतिबद्धता से मुकर सकते हैं। उनके वाक् छल और झूठ बोलने की प्रवृत्ति को देखते हुए ऐसा संभव भी है। तिस पर राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने 21 नवंबर को यह कह कर आंदोलनकारियों की चिंता को बढ़ा दिया कि अगर जरूरत पड़ी तो तीनों कानूनों को फिर से लागू किया जा सकता है। इसी आशय का बयान भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने भी दिया था।

एसकेएम ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि आंदोलन जारी रखने के अलावा, 22 नवंबर को लखनऊ में इसकी महापंचायत होगी और फिर 29 नवंबर को संसद तक ट्रैक्टर मार्च का कार्यक्रम होगा। एसकेएम ने, 21 नवंबर को हुई एक बैठक में हालांकि, कुछ मुद्दों का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक खुला पत्र लिखा था। इसकी कल 27 नवंबर 2021 को किसान नेताओं की होने वाली बैठक में पुनर्समीक्षा की जाएगी। इस बैठक में किसान नेता आगे की योजनाओं को मजबूती देने पर विचार करने वाले हैं।

बाकी मुद्दों में एमएसपी सबसे महत्त्वपूर्ण है। एसकेएम ने शुरू से ही स्वामीनाथन समिति द्वारा प्रस्तावित विस्तृत फार्मूले के अनुसार आकलित सभी पैदावारों की खरीद और उनकी न्यूनतम कीमतों की गारंटी देने वाले एक केंद्रीय कानून बनाने की मांग सरकार से की थी। वर्तमान में विवादित एमएसपी के आधार पर केवल 23 फसलों के पैदावारों की खरीद की जाती है, जिनमें सात अनाज, पांच दलहन, सात तिलहन और चार नकदी फसलें शामिल हैं। यह मांग तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग की तुलना में पूरे देश में किसानों के बीच गूंज पैदा करेगी। इस वजह से, किसानों की लामबंदी का दायरा विस्तृत हो सकता है।

दूसरी अहम मांग यह है कि बिजली (संशोधन) विधेयक मसौदा को वापस लिया जाए। वे बिजली क्षेत्र के निजीकरण और सब्सिडी वापस लिए जाने की संभावना या इसमें कटौती किए जाने के प्रस्तावों पर आपत्ति जताते हैं। वायु प्रबंधन आयोग कानून के तहत पराली जलाने पर जुर्माना लगाने का प्रावधान भी किसानों के लिए डरावना है।

संयुक्त किसान मोर्चा की अन्य मांगें हैं, आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ दर्ज सभी मामलों को वापस लेने के साथ-साथ आंदोलन के दौरान मारे गए 700 किसानों को उचित मुआवजा दिया जाए। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा 'टेनी' को बर्खास्त करने और उन्हें गिरफ्तार करने की मांग पहले ही की जा चुकी है। लखीमपुर खीरी में विरोध कर रहे किसानों को मंत्री की कार ने टक्कर मार दी और उन्हें कुचल कर उनकी हत्या कर दी थी। इस मामले में उनके बेटे को आरोपित किया गया है।

ये सभी मांगें लखनऊ की महापंचायत में दोहराई गईं। इसके अतिरिक्त, एसकेएम ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराने की दिशा में काम करने का संकल्प लिया, जैसा कि उसने इस साल की शुरुआत में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में किया था। एक नेता ने एआइएमआइएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की भी तुलना की, जिनकी उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना है, वे बीजेपी के 'चाचा' के रूप में मुस्लिम वोट को विभाजित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे है। हालांकि उन्होंने कहा, किसान इस चाल को समझते हैं, और विभाजित नहीं होंगे।

एसकेएम को यह भी पता होगा कि उत्तर प्रदेश में चुनाव होने तक ही उनके हाथ में व्हिप की शक्ति है। उसके बाद परिणाम जो भी हों, उनके पास सौदेबाजी की स्थिति और ताकत नहीं होगी। लिहाजा,इससे पहले ही किसानों को अपनी मांगों को पूरी करवा लेना ही समझदारी होगी। इसलिए उन्हें अपना विरोध-प्रदर्शन जारी रखना चाहिए। चूंकि नरेन्द्र मोदी और उनकी हुकूमत केवल चुनाव जीतने की बाध्यता एवं अपरिहार्यता को पहचानती हैं, वे समझौता करने के लिए उतने ही तैयार हैं, जितना कि वे झूठ बोलने, धोखा देने और झूठे साक्ष्यों से हासिल करने के लिए हैं।

इसकी बजाय, संयुक्त किसान मोर्चा के लिए यह समय भाजपा के खिलाफ अपने चुनाव अभियान को उन राज्यों में जिंदा रखने का है, जहां चुनाव जल्द होने वाले हैं-खासकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में।

सुहित के.सेन एक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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