Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

राजनीतिक दल रोज़गार को चुनावों का प्रमुख मुद्दा क्यों नहीं बनाते?

यह तय है कि रोज़गार समेत जीवन के मूलभूत प्रश्नों के एजेंडा बने बिना संघ-भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को शिकस्त देना असम्भव है। सबको जोड़ने तथा नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत की अपील आवश्यक तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं।

EMPLOYMENT
साभार: एपी; फाइल फोटो

रोज़गार के सवाल को 2014 के बाद से भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी भूल कर भी याद नहीं करना चाहतेयह तो समझ में आता हैपरन्तु तमाम प्रमुख विपक्षी दल भी इस सवाल को गम्भीरता से एड्रेस नहीं कर रहे हैं। आखिर इसके पीछे क्या रहस्य है?

जबकि यह एक ऐसा दौर है जब वैश्विक मंदी के पैर पसारने की खबरें धीरे धीरे मीडिया में छाती जा रही हैं। आये दिन तमाम कम्पनियों से कर्मचारियों की छंटनी की खबरें आ रही हैं। भारत पर आसन्न मंदी का कोई असर न पड़ने के मोदी जी के मंत्रियों के बड़बोले दावों को विशेषज्ञों ने खारिज कर दिया है। तमाम sectors में हमारा निर्यात गिरता जा रहा हैरुपये की गिरती कीमत ने हालात को और मुश्किल बना दिया है। इससे न सिर्फ भुगतान संतुलन की स्थिति गम्भीर हो रही हैवरन हमारे रोजगार के अवसरों पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा। भारत में तो बेरोजगारी पहले से ही 45 साल के  चरम पर है। आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस ( AI ) जैसे युगान्तकारी तकनीकी बदलावों से रोजगार के मोर्चे पर आशंकाएं और गहराती जा रही हैं। 

कुल मिलाकर सारे संकेत बता रहे हैं कि बेरोजगारी की स्थिति भयावह होती जा रही है और यह राष्ट्रीय जीवन का सर्वप्रमुख सवाल बन गया है। पूरी पीढ़ी का भविष्य दांव पर है। आत्महत्या की दिल दहला देने वाली खबरेंकई बार मासूम बच्चोंपूरे परिवार के साथअब आम होती जा रही हैं। लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट ( LFPR ) लगातार गिर रहा है जो दिखाता है कि रोजगार की संभावना को लेकर लोग कितने निराश हैं कि वे अब उसकी तलाश भी नहीं कर रहे हैं। 

लेकिन इतने गहन संकट के बावजूद चुनाव के समय भी इस पर कोई बड़ी बहस न खड़ा होना गहरी चिंता और आश्चर्य का विषय है।

गुजरात चुनाव एक टेस्ट केस हैजहाँ यह चुनाव का बड़ा मुद्दा नहीं बना 

गुजरात में हो रहे चुनाव में अबकी बार सारे संकेत इस बात के थे कि जनता के  जीवन से जुड़े ज्वलंत सवालों पर 27 साल के भाजपा शासन के खिलाफ वहां भारी सत्ता विरोधी ( anti-incumbency ) आक्रोश था। स्मरणीय है कि साल पहले हुए चुनाव में ही " विकास पागल हो गया है " के वायरल जुमले ने मोदी के गुजरात मॉडल की हवा निकाल दी थीउस चुनाव में भाजपा दहाई में सिमट गई थी और बमुश्किल जीत पाई थी। ( भाजपा 99, कांग्रेस 77 )

जाहिर है साल बाद अबकी बार भाजपा-राज की हर मोर्चे पर नाकामी के खिलाफ गुस्सा और निराशा और गहरी थीजिसमें कोविड के दौर में हुई मौतों का मातम भी शामिल था।

इसकी अभिव्यक्ति जनता के पॉपुलर मूड में भी हुई: एबीपी न्यूज- सी वोटर  के सबसे ताजा सर्वे में जिस मुद्दे को सर्वाधिक लोगों ने ( 37.5% ) चुनाव का मुख्य मुद्दा बताया वह बेरोजगारी का सवाल था। इसके बावजूद विपक्ष ने इसे इस चुनाव में प्रमुख मुद्दा नहीं बनाया। केजरीवाल जहाँ नोट पर लक्ष्मी-गणेश की फ़ोटो छापने अथवा बुजुर्गों को अयोध्या की मुफ्त तीर्थयात्रा जैसे शिगूफों से भाजपा से प्रतियोगिता करते नज़र आ रहे हैं या फिर दिल्ली मॉडल पर फ्री बिजली-पानी आदि के वायदे कर रहे हैं। वहींमुख्य विपक्ष कांग्रेस परम्परागत ढंग से चुनाव लड़ती नज़र आ रही है। वह जनता द्वारा सबसे बड़ा मुद्दा बताए जा रहे रोजगार के सवाल को बड़े राजनीतिक सवाल के रूप में खड़ा कर चुनाव नहीं लड़ रही है।

आप पार्टी और कांग्रेस दोनों ने प्रदेश में खाली पड़े सरकारी पदों को भरने और 10 लाख नौकरियों की बात formal ढंग से कर दी।  वचने किं दरिद्रताभाजपा ने इसके जवाब में अगले साल में 20 लाख रोजगार का वायदा कर दिया।

(वैसे मोदी जी के रेलमंत्री ने तो अभी हाल ही में बयान दिया कि उनकी सरकार हर महीने 16 लाख रोजगार दे रही है !)

पर रोजगार सृजन के सवाल को प्रमुख मुद्दा बनाते हुए उसे गम्भीरता से किसी ने एड्रेस नहीं किया। आखिर क्यों?

जबकि इसके विशुद्ध चुनावी फायदे भी बिल्कुल स्पष्ट हैं। राष्ट्रीय राजनीति में अतीत में ऐसे अवसर याद आते हैं जब रोजगार मुद्दा बना था और युवाओं की भूमिका प्रमुखता से उभरी थी -1977, जब आपातकाल का अंत हुआ था और इंदिरा गांधी की सत्ता चली गयी थी, -1989, जब वीपी सिंह का धूमकेतु की तरह उदय हुआ और सरकार बदल गयी थी -2014, जब मोदी ने रोजगार को बड़ा मुद्दा बनाया और युवाओं के भारी समर्थन से सत्ता हासिल की। इसी तरह वर्ष पूर्व बिहार विधानसभा के चुनाव में विपक्षी गठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियों का सवाल जब उठाया तो एक जबरदस्त लहर पैदा हो गयी थी और विपक्ष जीत के नजदीक पहुंच गया था।

जाहिर हैजब जब यह प्रमुख सवाल बना है और नेता/दल युवाओं का विश्वास जीतने में सफल हुएयह चुनाव का निर्णायक मुद्दा बन गया। लेकिन आज जब यह संकट अपने सबसे विकराल रूप में खड़ा है तब इसे राजनीतिक मुद्दा न बनाना या तो राजनीतिक दिवालियापन है या राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव।

इस सवाल पर मोदी जी के वायदों (जुमलों!) और डिलीवरी के बीच की खाई इतनी गहरी है और उनका ट्रैक रिकॉर्ड इतना खराबकिरोजगार के सवाल पर भाजपा के किसी वायदे को अब शायद ही कोई गम्भीरता से ले। पर विपक्ष इसे अपेक्षित महत्व क्यों नहीं दे रहा है?

भाजपा तो बेरोजगारी की चुनौती का सामना करने की स्थिति में नहीं ही हैकहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्ष के पास भी इस सवाल पर offer करने के लिए कुछ खास नहीं है

क्या विपक्ष के पास "सबके लिए रोजगार" का कोई रोडमैप है?

यह तय है कि रोजगार के सवाल को गम्भीरतापूर्वक address करने के लिए आर्थिक मोर्चे पर सरकार को अपनी दिशा और प्राथमिकता सम्बन्धी बड़े नीतिगत बदलाव करने होंगे। जाहिर है इन बदलावों से ताकतवर सामाजिक शक्तियों-वैश्विक पूँजीकारपोरेट तथा भारत के super rich तबकों-के हितों को चोट पहुंचेगी।

क्या राजनीतिक दल इन ताकतवर हितों को नाराज नहीं करना चाहते?

क्या इसीलिए वे रोजगार के सवाल पर या तो चुप रहते हैं या औपचारिक बयानबाजी से आगे किसी गम्भीर विमर्श की ओर नहीं बढ़ते। यह अनायास नहीं है कि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार द्वारा हाल ही में  रोजगार के सवाल  पर पेश विस्तृत रिपोर्ट पर किसी प्रमुख दल ने engage करना उचित नहीं समझा।

इस रिपोर्ट में उन्होंने ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ यह स्थापित किया है कि सबके लिए रोजगार न सिर्फ वांछित हैताकि भारत सही मायने में सभ्यलोकतान्त्रिक राष्ट्र बनेबल्कि यह पूरी तरह सम्भव और अपरिहार्य ( feasible और indispensable ) है। वे कहते हैं, " इसके लिए संसाधनों की कमी का तर्क invalid हैक्योंकि यह स्व-वित्तपोषित होगा। बढ़ते रोजगार से उत्पादन बढ़ेगा और मांग बढ़ेगी।"

वे याद दिलाते हैं, "बाजार न सिर्फ पूर्ण रोजगार की गारंटी नहीं करताबल्कि वह चाहता है कि बेरोजगारी बनी रहे ताकि श्रम/श्रमिक की ताकत कमजोर रहे।"

जाहिर है जो राजनीतिक दल बाजार की ताकतवर शक्तियों के हितों से बंधे हैंउनके लिए रोजगार को बड़ा सवाल बनाना और हल करना सम्भव नहीं है।

जरूरत है छात्र-युवा-बेरोजगारश्रमिक रोजगार के सवाल को बड़े जनान्दोलन का मुद्दा बनाएं और विपक्षी दलों को इसे 2024 के चुनाव के प्रमुख एजेंडा के रूप में स्वीकार करने के लिए बाध्य करें। जिस तरह आम जनता के दिलो-दिमाग में साम्प्रदायिक नफरत घोली जा रही हैयह तय है कि रोजगार समेत जीवन के मूलभूत प्रश्नों के एजेंडा बने बिना संघ-भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को शिकस्त देना असम्भव है। सबको जोड़ने तथा नफरत के खिलाफ मोहब्बत की अपील आवश्यक तो हैलेकिन पर्याप्त नहीं।

 (लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest