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स्कूलों को वक़्त से पहले खोलने की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए

केवल स्कूलों को फिर से खोलने से असमान शिक्षा प्रणाली अधिक समान नहीं हो जाएगी जब तक कि सरकारें शिक्षा पर अपने ख़र्च को नहीं बढ़ाती हैं स्थिति में बदलाव लाना असंभव है। स्कूल खोलने से कोविड म्यूटेशन का ख़तरा बढ़ सकता है और एक और क्रूर कोविड-19 लहर बरपा हो सकती है।
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दिल्ली सरकार ने लंबे समय तक कोविड-19 से संबंधित बंद झेलने के बाद हाल ही में स्कूलों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों को फिर से खोलने का फैसला किया है। दिल्ली सरकार से पहले, कई अन्य राज्यों ने भी इसी तरह के फैसले लिए हैं। इस तरह के फैसलों को कई विशेषज्ञों और एक्टिविस्ट्स ने मुख्य रूप से दो आधारों पर समर्थन दिया है। सबसे पहला, कि सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों की ऑनलाइन कक्षाओं तक असमान पहुंच है, जिसे केवल स्कूलों को फिर से खोलकर ही संबोधित किया जा सकता है। दूसरा, स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों को फिर से खोलने से कोविड-19 संक्रमणों में गंभीर लहर या उसके बढ़ाने की संभावना नहीं है। हम दोनों प्रस्तावों से असहमत हैं।

आइए पहले प्रस्ताव से शुरू करते हैं। ऑनलाइन शिक्षा तक असमान पहुंच ने वास्तव में सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित और विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के बच्चों के बीच सीखने की खाई को और चौड़ा कर दिया है। यह दो कारणों से है। एक तो, सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तबके ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे को वहन नहीं कर सकते हैं। इस बुनियादी ढांचे में लैपटॉप या स्मार्टफोन, इंटरनेट, साथ ही अध्ययन के लिए एक शांतिपूर्ण भौतिक स्थान का होना जरूरी है।

दो, कई छात्रों को ऑनलाइन टूल का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया होगा। हमारा तर्क है कि ये दोनों कारण जानबूझकर नीतिगत विकल्पों के परिणाम हैं। भारत में नीति ने कंप्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल करने की पहुंच बनाने और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए सार्वजनिक वित्त-पोषण पर पर्याप्त रूप से जोर नहीं दिया है और खर्च किया है। इसी तरह, पास के स्कूलों में  पुस्तकालयों आदि में भौतिक स्थान प्रदान कराने के लिए सार्वजनिक धन कभी भी पर्याप्त नहीं रहा है। 

महामारी से पहले भी, भारत में शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय जीएनपी का लगभग 3.1 प्रतिशत रहा है जो बेहद कम है और स्थिर है। यह भारत को उन देशों की श्रेणी में डालता है जो शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का सबसे कम अनुपात खर्च करते हैं। महामारी के वर्ष में भी शिक्षा पर पहले से कम आवंटन को बजट 2021 में लगभग 6 प्रतिशत घटा दिया गया है।

भारत में वास्तविक कोविड-19 राहत पैकेज का आकार सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3.5 प्रतिशत रहा है। यह भी, विश्व स्तर पर सबसे कम में से एक है और कमजोर सामाजिक सुरक्षा प्रणाली के आधार पर खड़ा है। भारत का कोविड-19 राहत पैकेज कॉरपोरेट क्षेत्र को राहत देने पर केंद्रित था। यह अध्ययन, जो शिक्षा नोट्स तक पहुंच की असमानता का दस्तावेजीकरण करता है, वह यह भी दर्ज़ करता है कि महामारी की वजह से शुरू हुई ऑनलाइन शिक्षा की असमान पहुंच है और यह अध्ययन इस पर सीमित नीति प्रतिक्रिया को भी संबोधित करता है। 

सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में भी सरकार की कमतर नीति प्रतिक्रिया, प्रौद्योगिकी (इस संदर्भ में) या शिक्षण में पाई जाने वाली खास विधा की सीमाओं के समाधान के बजाय राजनीतिक प्राथमिकताओं पर अधिक ज़ोर को दर्शाती है। ये राजनीतिक प्राथमिकताएं घरेलू और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओं की द्वंद्वात्मकता से निर्धारित होती हैं। हम समावेशी शिक्षा के तर्क को ऑफ़लाइन और ऑनलाइन कक्षाओं के बीच एक आसान विकल्प के रूप में कम करने के खिलाफ तर्क देते हैं। उपयुक्त भौतिक परिस्थितियों के अभाव में, समावेशी शिक्षा के लिए छात्रों की कक्षाओं में वापसी न तो आवश्यक है और न ही पर्याप्त।

आइए अब दूसरे प्रस्ताव की ओर मुड़ कर देखें। महामारी विज्ञानी कोविड-19 जैसी महामारी के प्रसार का विश्लेषण करने के लिए खेमों में बांटने के मॉडल के संस्करणों के साथ काम करते हैं। मूल रूप से केर्मैक और मैकेंड्रिक द्वारा तैयार किए गए ये मॉडल, इसके मूल संस्करण में हैं, ये मॉडल आबादी को विभिन्न खेमों में विभाजित करते हैं, जैसे कि अतिसंवेदनशील, संक्रमित और बीमारी से ठीक मामले जो आगे चलकर संक्रमण के प्रति प्रतिरोधक बनते हैं। 

महामारी के बढ्ने के दौरान, संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आने वाले कुछ संवेदनशील व्यक्ति भी संक्रमित हो जाते हैं। कुछ संक्रमित व्यक्तियों की मृत्यु हो सकती है, जबकि बाकी ठीक होने की श्रेणी में चले जाते हैं, वे एंटीबॉडी विकसित करते हैं या आगे संक्रमण के खिलाफ प्रतिरोध पैदा करते हैं। जब संक्रमण जनसंख्या का बड़ा या पर्याप्त अनुपात अतिसंवेदनशील समूह को छोड़ देता है, तो महामारी का आगे प्रसार प्रतिबंधित हो जाता है। यह अतिसंवेदनशील और संक्रमित लोगों के बीच संपर्क की संभावनाओं में कमी आने के कारण होता है। इस तरह, एक महामारी अपनी प्राकृतिक सीमा या हर्ड इम्यूनिटी की स्थिति तक पहुँच जाती है।

हालांकि, इस प्राकृतिक सीमा में उच्च मृत्यु दर और रुग्णता दोनों शामिल हो सकते हैं। यदि मौजूदा चिकित्सा संरचना या ढांचा अपर्याप्त है तो उच्च मृत्यु दर बड़ी संख्या में हुए संक्रमणों के परिणामस्वरूप होगी। उदाहरण के लिए, इटली को लें जिसका स्वास्थ्य सेवा ढांचा दूसरे उच्चतम सूचकांक पर था, उसमें महामारी की पहली लहर के चरम पर पहुँचने के बाद लगभग 47 प्रतिशत की मृत्यु दर पहुँच गई थी। टीकाकरण, जो आबादी के एक हिस्से को सीधे अतिसंवेदनशील से प्रतिरोधी श्रेणी में ले जाता है, और जो बड़ी मानव हानि के बिना हर्ड इम्यूनिटी तक पहुंचने में भी मदद करता है। हालांकि, हर्ड इम्यूनिटी टीकाकरण या उसके बिना हासिल नहीं की जा सकती है क्योंकि:

  1. जब समुदाय आपस में संपर्क करते हैं, तो विभिन्न समुदायों से संबंधित संवेदनशील और संक्रमित लोगों के बीच अतिरिक्त संपर्क हो सकता है। नतीजतन, संक्रमण में वृद्धि के बावजूद, स्थानीय सामुदायिक स्तर पर हर्ड इम्यूनिटी कभी हासिल नहीं हो सकती है।

  2. संक्रमण या टीकों के माध्यम से प्राप्त एंटीबॉडी कुछ समय बाद अपनी प्रभावशीलता को खो देते हैं। इसके अलावा, यदि संक्रमित व्यक्तियों की संख्या पर्याप्त अवधि के लिए अधिक बनी रहती है, तो यह वायरस के नए रूपों में उत्परिवर्तन की सुविधा प्रदान करता है, जो मौजूदा एंटीबॉडी और टीकों के प्रति प्रतिरोधी हो सकता है। नतीजतन, प्रतिरोधी समूह फिर से अतिसंवेदनशील हो सकता है, जिससे महामारी की एक और लहर पैदा होने का खतरा बढ़ सकता है।

उपरोक्त दोनों कारकों ने संभवतः भारत में कोविड-19 की घातक दूसरी लहर को बढ़या था। बड़े पैमाने पर धार्मिक सभाओं और चुनाव अभियानों जैसे सुपरस्प्रेडर कार्यक्रमों ने विभिन्न समुदायों के अतिसंवेदनशील और संक्रमित व्यक्तियों के बीच संपर्क स्थापित किया था। उन्होंने संक्रमण का अधिक प्रसार किया, कई वायरल उत्परिवर्तन हुए या म्यूटेट हुए और उच्च मृत्यु दर और रुग्णता को बढ़या था। हमारा मानना है कि स्कूलों को फिर से खोलने का निर्णय एक और गंभीर लहर को बढ़ा सकता है क्योंकि यह स्कूल के पारिस्थितिकी तंत्र में और उसके आसपास अतिसंवेदनशील और संक्रमित लोगों के बीच और समुदाय और अंतरजनपदीय समुदायों के बीच संपर्क को बढ़ाएगा जिससे संक्रमण का खतरा तेजी से बढ़ेगा। 

ये संपर्क कार्यस्थलों या बाजारों की तुलना में अधिक संबंधित हैं क्योंकि (ए) वे एक निरंतर अवधि में होते हैं, आमतौर पर बंद या सीमित स्थानों पर होते हैं, और (बी) बच्चों में वयस्कों की तुलना में कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन करने की संभावना कम होती है। इस लेख को लिखते समय, सभी भारतीय बच्चों का टीकाकरण नहीं हुआ है। चूंकि वे पिछली कोविड-19 के लहर में अपेक्षाकृत कम प्रभावित थे, इसलिए कई बच्चों में एंटीबॉडी नहीं पाए जा सकते हैं जो संक्रमण से उबरने के बाद उत्पन्न होती हैं।

इसके अलावा, भारत में अधिकांश स्कूल अपने परिसरों में कोविड-19 प्रोटोकॉल लागू करने के लिए पूरी तरह से सक्षम नहीं हैं या उनके पास वे सुविधाएं नहीं हैं, ऐसा इस लिए है क्योंकि शिक्षा पर सरकारी खर्च काफी कम है। यहां तक कि जहां भी इन प्रोटोकॉल का पालन करना संभव है, वहां भी कोविड-सुरक्षित व्यवहार का पालन करना या उसे सीखने में एक रुकावट हो सकती है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमरीका में एक स्कूल शिक्षक ने इस तरफ इशारा किया था। मौजूदा अनुभव यह भी बताते हैं कि स्कूली बच्चों में कोविड-19 के लक्षण नहीं हो सकते हैं इसलिए वे आसानी इसके वाहक बन सकते हैं। सार्वभौमिक जांच के अभाव में, उन बच्चों के समुदायों में वायरस फैलने की संभावना अधिक होती है।

ऐसी स्थिति में बेहतर नीति यह हो सकती है कि महामारी के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए बड़े पैमाने पर टीकाकरण कार्यक्रम के साथ-साथ विभिन्न गैर-दवा हस्तक्षेप किए जाएँ जैसे कि मास्क, लॉकडाउन, यात्रा पर प्रतिबंध का इसका एक संयोजन हो सकता है।

एनपीआई संवेदनशील और संक्रमित के बीच नए संपर्कों को सीमित करने में मदद करते हैं, जबकि टीके आबादी में प्रतिरोधी क्षमता के अनुपात को बढ़ाने में सहायता करते हैं। हमारे द्वारा प्रकाशित काम से पता चलता है कि एनपीआई महामारी को नियंत्रित करने में प्रभावी हैं। एनआईपीएफपी के साथ हमारे वर्किंग पेपर से यह भी पता चलता हैं कि एनपीआई को तेजी से लागू करने और टीकाकरण में तेजी लाने से महामारी को समाप्त किया जा सकता है। समय से पहले फिर से खुलने वाले स्कूल न केवल संक्रमण को बढ़ाएँगे,  बल्कि नए वाइरस के नए रूपों को बढ़ाएँगे। यदि ये नए प्रकार के वायरस मौजूदा टीकों से बच जाते हैं, तो मौजूदा टीकाकरण कार्यक्रम अप्रभावी हो जाएगा। यह हमें संक्रमण की एक नई लहर के प्रति संवेदनशील बना देगा, संभवतः दूसरी लहर की तरह गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है। कुछ महामारी विज्ञान मॉडल जो अधिक आशावादी परिणाम दिखाते करते हैं, ऊपर उल्लिखित कई जटिलताओं पर फ़ीके नज़र आते हैं। उनका आशावाद, हमारी राय में, गलत लगता है।

स्कूलों को फिर से खोलने से सार्वजनिक स्वास्थ्य को बड़ा झटका लग सकता है। अमेरिका, इज़राइल आदि जैसे देशों के अनुभव यह बताते हैं कि समय से पहले स्कूलों को फिर से खोलने और एनपीआई को वापस लेने से महामारी के पुनरुत्थान की संभावना है। हालांकि, भारत जैसे देश में इस तरह का पुनरुत्थान कब होगा, इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। फिर भी, एनपीआई को समय से पहले हटाने से एक नई लहर की संभावना बढ़ जाती है। हम एक वैकल्पिक रणनीति के बारे में तर्क दे रही हैं जिसमें ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच शामिल है, जिसे अधिक से अधिक सार्वजनिक खर्च के माध्यम से विस्तारित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए। इसके अलावा, स्कूली बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन के प्रावधान जैसे सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को सभी मोहल्लों में फिर से शुरू किया जा सकता है ताकि बड़ी भीड़ को इकट्ठा होने से रोका जा सके। इन उपायों की कुल आर्थिक लागत (मानव लागत की बात नहीं) कोविड-19 की एक और विनाशकारी लहर का सामना करने की तुलना में काफी कम हो सकती है।

सौम्या दत्ता दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र संकाय में वरिष्ठ सहायक प्रोफ़ेसर हैं, और सी. शरतचंद अर्थशास्त्र विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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