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कोरोना वायरस : टीके की झिझक से पार पाते भारत के स्वदेशी समुदाय

भारत की कई जनजातियां आधुनिक चिकित्सा को लेकर संशय में हैं। लेकिन, महिला नेताओं की ओर से लोगों के विचार बदल देने के बाद भारत की स्वदेशी गरासिया जनजाति के लोगों ने आख़िरकार कोविड-19 वैक्सीन को स्वीकार कर लिया है।
tribal women
ग्रामीण नेताओं के साथ काम करने के बाद भारत राजस्थान के स्वदेशी समुदायों के बीच अपने वैक्सीन के दायरे में 75% लोगों को ला पाने में कामयाब रहा है।

जब पिछले साल अप्रैल में भारत में आयी कोरोनावायरस महामारी अपनी विनाशकारी दूसरी लहर के दौरान फैल रही थी,उस दौरान पपली बाई ने कोविड-19 के ख़िलाफ़ पहला टीका लेने से सख़्ती से इनकार कर दिया था। 

गरासिया आदिवासी समुदाय के कई दूसरे लोगों की तरह उनका भी यही मानना था कि इंजेक्शन के चलते लोग बीमार पड़ रहे थे और कुछ मामलों में तो उनकी मौत भी हो गयी थी।

टीकों को लेकर अविश्वास

32 साल की पपली ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैं अपने गांव में आये स्वास्थ्य कर्मियों पर चिल्ला उठी थी। गांव के मर्दों ने उन्हें भगाने के लिए उन पर पथराव किया था।"

अबू रोड के पास स्थित एक दूसरे ब्लॉक, जहां यह स्वदेशी समुदाय रहता है,वहां की केली बाई और उनकी बहन पुली ने इन चिकित्सा स्वास्थ्य अधिकारियों और कर्मियों के लिए अपने दरवाज़े बंद कर लिये थे। गुहार लगाने के बाद भी उन्होंने बाहर आने से इनकार कर दिया था।

इस समुदाय में सीरिंज का डर इसे लेकर जनजातियों के अविश्वास और उनकी ओर से किये जाने वाले पारंपरिक औषधीय अनुष्ठानों में विश्वास का मिश्रण है।

सालों से इस उत्तर-पश्चिमी राज्य राजस्थान का तीसरा सबसे बड़ा आदिवासी समूह माने जाने वाला गरासिया आदिवासी समुदाय के बीच सीरिंज को लेकर भयंकर भय बना हुआ है। 

इस डर का गर्भवती महिलाओं और शिशुओं के टीकाकरण पर व्यापक असर पड़ा है।

गरासिया आदिवासी समुदाय के बीच वैक्सीन को लेकर यह झिझक कोरोनवायरस महामारी के आने से पहले से बनी रही है

महामारी के दौरान वैक्सीन के दायरे में इन लोगों को लाने की प्रक्रिया शुरुआत में धीमी थी और चिकित्साकर्मियों ने बताया कि आदिवासी क्षेत्रों को एक ऐसे समुदाय के रूप में देखा जाता था,जो बाक़ी समुदायों के साथ जुड़ाव से दूर रहता था और कई मायनों में तो इन इलाक़ों में रहने वालों से मिलना-जुलना और बातें कर पाना भी मुश्किल था।

गरासियाओं के साथ काम करने वाले एनजीओ जन चेतना संस्थान की ऋचा औदिच्या ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह हमारे लिए न सिर्फ़ चुनौतीपूर्ण था, बल्कि इस समुदाय को यह समझा पाना भी मुश्किल था कि वास्तव में कोविड से डरना ज़रूरी था और सुरक्षा अहम थी।"

औदिच्या ने आगे बताया, "हमें उनके साथ के किसी एक आदमी को अपने साथ करने और बीमारी के बारे में उसे समझाने में तक़रीबन चार महीने लग गये।" 

जनजातियों के बीच शिक्षा का अभाव

राजस्थान की आबादी 8 करोड़ 20 लाख से ज़्यादा है और मुख्य रूप से ग्रामीण है, इसकी क़रीब 75% आबादी गांवों में रहती है। कई स्वदेशी जनजातियां इसके दक्षिणी इलाक़े में बसी हुई हैं, जहां भील, मीना और गरासिया जैसे समुदायों ने अरावली की तलहटी में भी अपना निवास स्थल बनाया हुआ है। वे राज्य की आबादी के तक़रीबन 14% हैं। 

उनकी रोज़ी-रोटी का मुख्य ज़रिया खेती है और कुछ लोग आस-पास के शहरों में बतौर दिहाड़ी मज़दूर काम करते हैं। 

गरासिया आमतौर पर मिट्टी और बांस की दीवारों से बने एक कमरे वाले घरों में रहते हैं। जिन लोगों के पास ज़्यादा पैसे हैं, वे सपाट टाइलों वाली छतों के घर बनाते हैं, वहीं ग़रीब लोग अब भी छप्पर का इस्तेमाल करते हैं।

जनजातीय लोगों के बीच टीकों को लेकर झिझक को दूर करने और टीकों को मंज़ूर करवाने को लेकर आगे बढ़ने का रास्ता आसान नहीं रहा है। ग़ैर-सरकारी संगठनों के साथ-साथ चिकित्साकर्मियों ने गरासिया समुदाय को समझाने-बुझाने के लिए सामुदायिक कार्यकर्ताओं और "भोपा" नाम से जाने जाते ओझाओं की मदद ली है।

एक ऐसे ही ओझा गगन गिरी ने डीडब्ल्यू को बताया, "वे सुशिक्षित नहीं हैं और अपनी बीमारियों के लिए स्थानीय वैद्य और चिकित्सकों पर निर्भर हैं। लेकिन, मैंने ख़ासकर अंदरूनी इलाक़ों में बहुत घूमा और घूम-घूमकर लोगों को इस बीमारी को लेकर चेताया और बताया कि यह एक वैश्विक बीमारी है।"   

महिला रहनुमाओं ने टीकों को लेकर उनके मन बदलने में मदद की

भारत के कई हिस्सों के स्वदेशी समुदायों के बीच साज़िश का सिद्धांत कई तरह से फैला हुआ था।इनमें से एक डर यह भी था कि यह टीकाकरण महिलाओं में प्रजनन क्षमता को प्रभावित करता है और पुरुषों को नपुंसक बना देता है,यही धारणा गरासियाओं में भी प्रचलित थी।

मार्च 2021 में भारत कोविड-19 मामलों की संख्या और उससे हुई मौतों के मामले में दुनिया में अव्वल रहा

सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रकांता ने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ महिला आदिवासी इस लिहाज़ से शपथ पत्र चाहती थीं कि अगर उनके साथ कुछ ग़लत हो जाये या वे अगर बीमार पड़ जायें, तो उनके परिवार को पैसे देने का वादा किया जाये। इस स्तर पर अविश्वास था।"

लेकिन, इस समुदाय की महिला नेताओं, ख़ासकर निर्वाचित नेताओं की भागीदारी ने हालात बदल दिये और इस समुदाय को आख़िरकार टीका लेने को लेकर सहमत होने के लिए तैयार कर लिया।

राजस्थान के सिरोही ज़िले की एक पूर्व ग्राम प्रधान, 50 साल की सरमी बाई ने भारी विरोध के बीच टीके को लेकर जागरूकता फैलाने में अग्रणी भूमिका निभायी।

सरमी ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैंने इसकी शुरूआत अपने गांव से की और महिलाओं से कहा कि अगर हमें कोई सुरक्षा नहीं मिली, तो कोविड हम सबको लील जायेगा। दो-तीन लोगों के साथ टीके की शुरुआत हुई,फिर देखते-देखते यह फैलने लगा और कुछ ही महीनों के भीतर इस अभियान ने रफ़्तार पकड़ ली।" 

ऐसा नहीं है कि पहली बार सरमी ने इस तरह की परियोजना पर अन्य ग्रामीण नेताओं के साथ काम किया हो। 2010 में वह उस हंगर प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिली थीं, जो ग्राम परिषदों में निर्वाचित महिलाओं के साथ काम करती है।

मिसाल क़ायम करतीं महिलायें

एक अन्य ग्राम प्रधान, 39 साल की ललिता गरासिया ने डीडब्ल्यू को बताया, "मुझे अपने कबीले के कई सदस्यों के सामने ही अपना इंजेक्शन इसलिए लेना पड़ा, ताकि उन्हें इसे लेकर आश्वस्त किया जा सके। मैं यह सुनिश्चित करने के लिए नियमित रूप से उनके पास जाया करती थी कि इससे उनके स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ेगा।"

अफ़वाहों का दूर करने के लिए स्वेच्छा से खुराक लेने वाली वह अपने गांव की पहली शख़्स बन गयीं।

बाक़ी लोगों को कोविड-19 के टीके लेने के लिए राजी करने का बीड़ा उठाने वाली इन आदिवासी महिलाओं ने जो तरीक़े अपनाये,उनमें नृत्य और गीतों के ज़रिये स्थानीय बोली में समझाना-बुझाना था।

वे गांवों के चारों ओर फैल जाते थे, उन गांवों में कुछ तो दूर-दराज़ की पहाड़ियों में स्थित गांव भी थे।वे ऐसा इसलिए करती थीं कि टीकाकरण की अहमियत और अन्य उपायों को लेकर उनके बीच प्रचार-प्रसार किया जा सके ताकि कोरोनोवायरस की ज़द में आने के जोखिम को कम से कम किया जा सके।

समुदाय की एक नेता नवली गरासिया ने डीडब्ल्यू को बताया, "मुझे अपने गीत को जितना ज़्यादा से ज़्यादा हो सके, जानकारी से लैस करना था और उन्हें कोविड के ख़तरों के बारे में बताना था। इससे किसी तरह ग्रामीणों के बीच पैठ बनी और फिर तो उनकी मानसिकता बदलने लगी।"

भूमिगत ढांचे और पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी राजस्थान के इन दूर-दराज़ गांवों तक पहुंचने में आड़े आयी

सरकार के आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक़, आदिवासी समुदायों के बीच टीकाकरण अभियान सफल रहा है, जिसमें 75% आबादी का अबतक टीकाकरण हो चुका है। यह कई बाधाओं के सामने होने से पहले के स्तर से बहुत ज़्यादा है।

आज,इस नियमित टीकाकरण में तेज़ी आयी है और टीकाकरण का यह दायरा लगातार बढ़ रहा है।

भारत के मध्य में स्थित राज्य छत्तीसगढ़ में भी वैक्सीन को लेकर हिचकिचाहट होने और दुर्गमता के बावजूद ग़ैर सरकारी संगठनों, स्थानीय नेटवर्क और स्वास्थ्य स्वयंसेवकों की कोशिश से वैक्सीन अभियान को मदद मिली है और आदिवासी लोग टीके की खुराक लेने के लिए राज़ी हुए हैं।

सिरोही ज़िले के चिकित्सा अधिकारी विवेक जोशी ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह तो एक चमत्कार है। यह समुदाय कैसे बदल गया है और कैसे इस बात पर भरोसा करने लगा है कि यह टीकाकरण सही में मददगार है, यह एक संजोने वाली स्मृति बनी रहेगी। यह कह देना कि यह चुनौतीपूर्ण था, इसे हल्के ढंग से लेने जैसा है।"

संपादन: एलेक्स बेरी

साभार: डीडब्ल्यू

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Coronavirus: India's Indigenous Communities Overcoming Vaccine Hesitancy

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