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विश्लेषण: क्या पश्चिमी यूपी में भी दलित ‘इंडिया’ को वोट करेगा!

घोसी चुनाव परिणाम की रोशनी में क्या उत्तर प्रदेश के बदलाव को समझा जा सकता है। ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैसी हो सकती है दलित राजनीति। वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार राय का एक विश्लेषण
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फाइल फ़ोटो। PTI

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों का महत्वपूर्ण स्थान है। लंबे समय तक कांग्रेस दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण का गठजोड़ बनाकर यहां राज करती रही है। राम मंदिर आंदोलन के दौरान हिंदूवादी लहर पर सवार होकर उसके चक्रव्यूह को जब बीजेपी ने तोड़ा तो उसकी काट के लिए समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव ने दलित वोटों का सहारा लिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए चुनाव में उन्होंने दलितों और ओबीसी की मदद से बीजेपी को पटखनी दे दी। “मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम”। बाद के चुनावों में भी दलितों की यह महत्वपूर्ण भूमिका बनी रही। वे जिधर झुके सरकार उसकी बनी नहीं तो किसी को हराने में तो उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है ही।

उत्तर प्रदेश की कुल 80 लोकसभा सीटों में से 17 अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इसी तरह विधानसभा की 403 सीटों में से 84 अनुसूचित जाति- जनजाति  के लिए आरक्षित हैं। इन आरक्षित सीटों पर जिसकी जीत होती है समझिये सत्ता की कुंजी उसी के पास है।

2002 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी कुल आरक्षित सीटों में से 35 सीटें जीती और उसकी सरकार बनी। तब बीएसपी 24 सीटें और बीजेपी 18 सीटें ही जीत पाई थी। 2007 के चुनाव में बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। तब उसने कुल आरक्षित सीटों में से 62 पर कब्जा कर लिया था। 2012 में जब फिर समाजवादी पार्टी सत्ता में आई तो उसे भी आरक्षित सीटों में से 58 पर विजय मिली। 2017 में जब बीजेपी सत्ता में आई तो उसने सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 70 सीटें अपनी झोली में डाल लीं।

2022 के विधानसभा चुनाव की कहानी भी अलग नहीं है। इस चुनाव में सपा का शोर कुछ ज्यादा ही था। लगा कि वो बीजेपी की सत्ता पलटने में कामयाब रहेगी। पूरब में उसने अच्छा प्रदर्शन भी किया। लेकिन पश्चिम और बाकी यूपी में वह बीजेपी को नहीं रोक पाई। कहा गया कि पश्चिम में दलितों के एक तबके ने बीजेपी का मजबूती से साथ दिया और सत्ता एक बार फिर बीजेपी के पास ही बनी रही।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 15 सीटें हारने के बावजूद क्षेत्र के करीब 70 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों पर भाजपा ने बढ़त हासिल की। भाजपा ने आगरा, मथुरा, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर जैसे कुछ जिलों में सभी सीटों पर जीत हासिल की।

राज्य में दलित आबादी 21 प्रतिशत के करीब है। इन्हीं वोटों के आधार पर बहुजन समाज पार्टी यूपी की राजनीति में महत्वपूर्ण जगह बनाए हुए है। दलित वोटों को झुकाव बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायावती के प्रति रहा है।

बसपा जब भी चुनाव लड़ती थी अगर उसे किसी दूसरे वर्ग का समर्थन नहीं मिलता था तब भी वह 20 प्रतिशत के करीब वोट पाती रही है। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उसके वोटों का प्रतिशत घटकर 13 के करीब रह गया। जो उसके सात-आठ प्रतिशत वोट कम हुए उसका ज्यादातर हिस्सा बीजेपी की झोली में चला गया, खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में।

यूपी के 75 जिलों में से करीब 20 जिले ऐसे हैं जहां दलित आबादी 25 प्रतिशत से ज्यादा है। सोनभद्र, कौशांबी, सीतापुर, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली, और औरय्या जिलों में तो दलितों की आबादी 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है। सोनभद्र में दलितों की आबादी करीब 42 प्रतिशत है। इसी वोट बैंक की बदौलत बहुजन समाज पार्टी ने 2007 के चुनावों में ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़कर 206 सीटें जीती थीं। दलित वोटों के साथ ब्राह्मणों के जुड़ने से बसपा को उस चुनाव में 30 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे। लेकिन 2014 के बाद से इसके गैर जाटव वोटों में बीजेपी ने अपनी पकड़ मजबूत बनाई है और उसका बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में कर लिया है।

दलित वोट जाटव और गैर जाटव में बंटा हुआ है। दलित चिंतक अशोक भारती के अनुसार राज्य में सात प्रमुख दलित जातियां हैं। इनमें जाटव की आबादी 2.24 करोड़ है। ये कुल दलित आबादी के 54.39 प्रतिशत हैं। इसके बाद पासी हैं जिनकी आबादी 65.22 लाख है। ये कुल दलित आबादी के 15.77 प्रतिशत हैं। इस आबादी पर पहले बसपा का प्रभुत्व था जिसे बाद में धीरे-धीरे करके राम विलास पासवान ने अपने पक्ष में किया और अब वह बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है। दलित जातियों में धोबी तीसरे नंबर पर हैं जिनकी आबादी 24.33 लाख यानी 5.88 प्रतिशत है। कोरी 22.94 लाख (5.55 प्रतिशत), वाल्मीकि 13.19 लाख (3.19 प्रतिशत), खटीक 9.30 लाख (2.25 प्रतिशत) और धानुक 6.51 लाख (1.57 प्रतिशत) हैं। ये सात जातियां यूपी की कुल दलित आबादी का 88.61 प्रतिशत हैं। बाकी 11.39 प्रतिशत दूसरी दलित जातियां हैं।

फिलहाल ऐसा लग रहा है कि जाटवों के अलावा बाकी सभी जातियों को बीजेपी ने अपने पाले में कर लिया है। राज्य में बीजेपी की सफलता का राज यही है। उसने सवर्णों को तो गोलबंद किया ही दलितों में से मुख्य जाति जाटव के अलावा बाकी जातियों को अपने पक्ष में कर लिया। इसी तरह ओबीसी में से भी प्रमुख जाति यादव को छोड़कर उसने लोद, कुर्मी आदि दूसरी जातियों को अपनी ओर मिला लिया है।

लेकिन घोसी के चुनाव में उसका यह तिलस्म टूटता हुआ नजर आया है। सच कहिये तो घोसी में बीजेपी के कोर वोट ग्रुप में भी बड़ी सेंध लगी है। सवर्णों में ठाकुर और भूमिहारों से वोट उसे इस चुनाव में उम्मीद से बहुत कम मिले।

राजभर और निषादों के वोट भी उसे कम ही मिले। सबसे बड़ा फर्क डाला दलित वोटों ने। आमतौर पर बसपा उप चुनाव नहीं लड़ती। बसपा अपने मतदाताओं को अपने विवेक और स्थानीय आधार पर किसी भी पार्टी के उम्मीदवार को वोट डालने की छूट दे देती है। घोसी का उपचुनाव भी बसपा ने नहीं लड़ा। हालांकि इस बार वोट की छूट नहीं दी। उसके ऐसे निर्णयों से आम तौर पर बीजेपी को फायदा मिल जाता है। बीजेपी के पास अकूत पैसा तो है ही दलितों के बीच गैर जाटवों में उसकी पैठ भी अच्छी है। उनके जरिये वो जाटव वोटों को भी अपने पाले में लाने में सफल हो जाती है।

लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से सपा और बसपा में तनातनी काफी बढ़ गई है। उस चुनाव में सपा-बसपा दोनों साथ मिलकर लड़े। लेकिन फायदा सिर्फ मायावती को मिला। उनके दस उम्मीदवार चुनाव जीत गए जबकि सपा के पांच उम्मीदवार ही चुने जा सके। बावजूद इसके मायावती अखिलेश यादव से नाराज हो गईं। उन्हें लगा कि सपा का वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं हुआ। जबकि सच्चाई यह थी कि सपा का वोट तो उन्हें ट्रांसफर हुआ लेकिन बसपा का वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हुआ। यही वजह थी कि सपा की तुलना में कमजोर पार्टी बसपा को दस सीटें मिलीं जबकि सपा को उससे आधी। मायावती की गलतफहमी 2022 के विधानसभा चुनावों में दूर हुई जब सपा को 111 और उनकी पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली। उनके वोटों का प्रतिशत भी 20 से गिरकर 13 पर आ गया। इसके बाद मायावती सपा से और ज्यादा खुन्नस में आ गईं। उन्होंने यहां तक घोषणा कर दी कि सपा को हराने के लिए वो किसी भी दूसरे दल को समर्थन दे सकती हैं।

घोसी में जब उन्होंने देखा कि सपा मजबूती से लड़ रही है और बीजेपी को मुश्किलें आ रही हैं तो मतदान से सिर्फ चार दिन पहले बसपा ने अपने लोगों के लिए नया फरमान जारी किया कि वे नोटा पर बटन दबायें और नहीं तो वोट देने न जाएं, अपने घर बैठें। लेकिन दलित मतदाताओं ने मायवती की नहीं सुनी। उन्होंने नोटा पर कम और सपा उम्मीदवार के पक्ष में ज्यादा बटन दबाया। नतीजा ये निकला कि बीजेपी वहां चारो खाने चित्त हो गई। सपा उम्मीदवार 42 हजार से ज्यादा मतों से चुनाव जीत गया।

दरअसल बसपा के अकेले लड़कर जीतने की संभावनाएं कम रहती हैं। लेकिन वह अगर किसी के साथ मिल जाए तो गुणात्मक रूप से जीत की संभावनाएं बहुत ज्यादा बढ़ जाती हैं। और हराने की क्षमता तो उसमें गजब की है। अगर त्रिकोणात्मक चुनाव है तो वो बीजेपी की जीत की राह प्रशस्त कर देती है। अब घोसी को ही देखिए। इस विधानसभा क्षेत्र में बसपा का हर हाल में पचास हजार से ज्यादा वोट है। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा को 42.21 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि भाजपा को 33.57 प्रतिशत। उस चुनाव में बीएसपी को भी 21.2 प्रतिशत मत मिले थे। इस बार उप चुनाव में सपा को 57.19 प्रतिशत मत मिले हैं। यानी 15 प्रतिशत ज्यादा। बीजेपी का वोट भी चार प्रतिशत बढ़ा है। उसे इस बार 37.54 प्रतिशत मत मिला है। तो मोटे तौर पर कह सकते हैं कि बसपा का 15 प्रतिशत वोट सपा की ओर गया और महज चार प्रतिशत वोट बीजेपी की ओर गया। खास बात ये रही कि मायावती के फरमान जारी करने के बावजूद बसपा के कैडर ने नोटा पर बटन नहीं दबाया। तो क्या इसे इस रूप में देखा जाए कि बसपा का वोटर भी जागरूक हो रहा है और वह बहन जी के आदेश के बावजूद अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनने लगा है? जानकार बताते हैं कि वैसे भी इलाहाबाद और आजमगढ़ मंडलों में क्षेत्रीय नेताओं की वजह से दलितों का बड़ा तबका सपा की ओर झुका है। तो क्या यह स्थिति पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राज्य के बाकी हिस्सों में भी देखने को मिल सकती है? खासकर तब जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये दलित वोट भाजपा की जीत का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं।

बसपा के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता धरमबीर चौधरी इस बात को सिरे से खारिज करते हैं। उनका कहना है कि जहां हमारा उम्मीदवार नहीं होता वहीं बसपा का वोटर किसी और को वोट देता है। चाहे वह घोसी हो या खतौली। खतौली में भी

विधानसभा का उपचुनाव हुआ था और यहां राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार मदन भैया ने अच्छे अंतर से जीत हासिल की थी। हमारी पार्टी आम तौर पर उपचुनाव नहीं लड़ती। लेकिन जहां हम चुनाव लड़ते हैं वहां हमारा वोटर हमारे साथ खड़ा रहता है।

यह पूछने पर कि आपकी पार्टी का वोट बैंक 20 प्रतिशत से घटकर पिछले विधानसभा चुनाव में 13 प्रतिशत के करीब आ गया है, वे कहते हैं कि दरअसल जो 20-22 प्रतिशत वोट मिलता है वह सब पार्टी का नहीं होता। उसमें उम्मीदवार का अपना वोट भी होता है। अगर पार्टी ने किसी मुस्लिम को टिकट दे दिया तो वहां दलितों के साथ ही मुस्लिम वोट भी जुड़ जाता है। इसी तरह किसी ठाकुर, ब्राह्मण को टिकट दिया तो वो वोट भी जुड़ता है।

वे यह मानने को ही तैयार नहीं कि बसपा का वोट कम हुआ है। उनका तर्क यह है कि दलित वोट तभी बीजेपी या किसी और पार्टी की ओर झुकता है जब वो दल किसी दलित को अपना उम्मीदवार बना देते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए वे दावे के साथ कहते हैं कि हम चुनाव लड़ेंगे और हमारा वोट हमारे ही साथ रहेगा किसी और के पास नहीं जाएगा। यह पूछने पर कि मायावती ने घोसी में फरमान जारी किया था कि उनके लोग नोटा पर बटन दबायें लेकिन लोगों ने नोटा की बजाय सपा का वोट दिया। यही वजह है कि सपा का वोट 15 प्रतिशत बढ़ गया।

वे कहते हैं कि दलितों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी को लेकर बहुत गुस्सा है। वे आरक्षण खत्म करने और संविधान में संशोधन की बात करते हैं। ये दोनों ही मुद्दे दलितों के लिए बहुत संवेदनशील हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव ( जब राजद, जदयू और कांग्रेस महागठबंधन बनाकर साथ लड़े थे ) के दौरान आरक्षण पर विचार करने की बात कह दी थी। नतीजा ये निकला कि वहां महागठबंधन एकतरफा चुनाव जीत गया। अभी ये लोग संविधान बदलने की बात कर रहे हैं। दलितों में इससे बहुत बेचैनी है। वे मानते हैं कि ये संविधान बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने बनाया है। इसीलिए इस संविधान में उन्हें बहुत सारी सहूलियतें मिली हैं। आज जो कुछ भी उनके जीवन में बदलाव आया है वह इस संविधान की ही देन है। इसलिए संविधान बदलने की बात करने वालों के लिए उनके मन में गुस्सा है। भले बहन जी ने घोसी में नोटा दबाने को कहा लेकिन जब कैडर मतदान करने ईवीएम पर गया तो उसका गुस्सा फूट पड़ा और उसने संविधान बदलने की बात करने वालों को सबक सिखाने के लिए नोटा की बजाय सपा का बटन दबा दिया। ये बहुत ही स्वाभाविक है।

एक रिटायर अधिकारी हैं किरपाल सिंह। दलित समाज से हैं। करीब तीस साल तक वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, बागपत, आगरा, अलीगढ़ आदि जिलों

में तैनात रहे। वैसे तो वे विकास खंड अधिकारी (बीडीओ) थे लेकिन हंसते हुए कहते हैं कि एक बार तो उनके पास आठ विभागों की जिम्मेदारी थी। वे इस क्षेत्र की जनता और दलितों की मानसिकता को ठीक से समझते हैं। उनका कहना है कि इसमें कोई संदेह नहीं कि बहन जी अभी भी दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं। वे जहां खड़ी होंगी दलित उनके पीछे ही नजर आयेगा। लेकिन इसके साथ ही वे इस बात को भी मानते हैं कि इस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद भी दलितों में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी जयंत सिंह भी काफी सक्रिय हैं। वे हर समाज के लोगों से मिल रहे हैं। उनके प्रति लोगों का लगाव भी बढ़ रहा है।

उनका कहना है कि घोसी में भले ही दलितों ने सपा को वोट किया हो लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह स्थिति नहीं होगी। उसकी एक वजह तो यह है कि घोसी में बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं था और इधर 2024 में बसपा खुद लड़ेगी। बसपा का उम्मीदवार सामने आते ही आधे दलित एकमुश्त बसपा की तरफ झुक जाएंगे। बाकी उम्मीदवार पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा। वे कहते हैं कि आज की तारीख में उन्हें लगता है कि दलितों का पचास प्रतिशत वोट मायावती को मिलेगा। बीस प्रतिशत के करीब चंद्रशेखर आजाद की पार्टी को और दस से पन्द्रह प्रतिशत वोट आरएलडी को भी जा सकता है। गैर जाटव वोटों में बीजेपी अच्छा वोट हासिल करने में सफल रहेगी। उसे भी कुल दलित वोटों का 15-20 प्रतिशत मिल सकता है। इसके साथ ही एक बात वो ये भी कहते हैं कि अगर मायावती लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ती हैं तो पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें जो 13 प्रतिशत वोट मिले थे वो घटकर पांच-सात प्रतिशत तक रह सकते हैं।

मुजफ्फरनगर के पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता राजीव सैनी कहते हैं कि दलित क्या पूरी जनता ही बीजेपी के शासन से नाराज है। यहां तक की बीजेपी के कार्यकर्ता भी। वे कहते हैं कि भाजपा के खिलाफ जन विद्रोह की स्थिति है। इसे विपक्ष के नेता समझ नहीं पा रहे हैं। इस समय बीजेपी हर जगह हारने की स्थिति में है। लेकिन विपक्ष के लोग खुद अपनी कारगुजारियों से बीजेपी को जिता दे रहे हैं। उनका कहना है कि पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी जीती लेकिन मुजफ्फरनगर में उसे मुंह की खानी पड़ी। क्योंकि यहां हमने बीजेपी को न अफवाह फैलाने दी न उसके जाल में फंसे। उम्मीदवारों का सही चयन हुआ और बीजेपी हार गई। इसीलिए स्थिति ये है कि आज मुजफ्फरनगर की छह सीटों में से सिर्फ एक सीट बीजेपी के पास है। उनका कहना है कि बीजेपी ने इस क्षेत्र में मुसलमानों का हौवा फैला रखा है। उन्होंने हिंदुओं को डरा रखा है कि अगर सपा या हमारे सिवा दूसरे लोग जीते तो आपकी बहन-बेटियों को मुसलमान उठा ले जाएंगे। दलित भी इसी कुप्रचार के खौफ में हैं। अगर उनके समुदाय का उम्मीदवार है तो वे उसे वोट करते हैं वरना जाटों की तरह वे भी हिंदू बन जाते हैं और फायदा बीजेपी को हो जाता है। विपक्ष को चाहिए कि वह इस तरह से कार्य करे कि बीजेपी को हिंदू-मुस्लिम करने का मौका ही न मिले। वे कहते हैं घोसी चुनाव ने विपक्ष को जीत की राह दिखाई है। विपक्ष ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करे जो बीजेपी के कट्टर वोट बैंक में सेंध लगा सके। घोसी में सुधाकर सिंह को खड़ा करके सपा ने यही काम किया है।

मायावती के सगे भानजे हैं प्रबुद्ध कुमार। बहुजन समाज पार्टी में लंबे समय तक रहे। आजकल राष्ट्रीय लोकदल से जुड़े हुए हैं और पार्टी के राष्ट्रीय सचिव हैं। उनका भी कहना है कि दलित बीजेपी से बहुत नाराज है। उसे इस बात का कष्ट है कि जिस संविधान को बाबा साहब आंबेडकर ने इतनी मेहनत के बाद बनाया वो उसे बदलने की बात कर रही है। उनकी नजर में मायावती आज की तारीख में भी दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं। अगर वो चुनाव लड़ती हैं तो दलितों का ज्यादातर हिस्सा उनके साथ जाएगा लेकिन बीजेपी के साथ किसी कीमत पर नहीं जाएगा। मायवती का वोट कम होने के बारे में वो कहते हैं इसकी कई वजहें हो सकती हैं। जैसे उम्र का बढ़ना। बहन जी पहले की तरह सक्रिय नहीं रह पा रही हैं। उन्होंने जिन लोगों के हाथ में पार्टी की कमान थमाई है वो भी उतने सक्षम और योग्य नहीं हो सकते हैं पर दलित अभी भी बहन जी को सिर माथे पर बैठाता है।

दलित नेताओं से अलग दलित कार्यकर्ताओं में भी बहन जी के रुख को लेकर हताशा है। जागरूक दलित मतदाता मानते हैं कि बहन जी का कार्यकलाप अब दलितों और पार्टी के पक्ष में कम दिख रहा है। उन्हें लग रहा है कि बहन जी को जितनी सक्रियता दिखानी चाहिए वे नहीं दिखा रही हैं। मायावती के अपने भाई आनंद और भतीजे आकाश को पार्टी में आगे बढ़ाने को लेकर भी आम कार्यकर्ताओं के मन में संशय पैदा हुआ है। आनंद की संपत्ति की चर्चा और उसके दबाव में बहन जी के बीजेपी के पक्ष में काम करते नजर आना भी उन्हें चिंतित किये हुए है। उन्हें लगने लगा है कि बहन जी अब दलितों के हितों की पहले की तरह रक्षा नहीं कर पा रही हैं। दलित दूसरे दलों खासकर कांग्रेस की ओर फिर से झुकने की बात सोचने लगे हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और राष्ट्रीय मुद्दों पर बेबाक राय ने भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया है। दलितों को लेकर राहुल-प्रियंका की पहल को भी वे अच्छा बताते हैं। सितंबर 2020 में एक दलित लड़की के बलात्कार और हत्या के बाद राहुल-प्रियंका सबसे पहले हाथरस पहुंचे। प्रियंका पुलिस हिरासत में मरने वाले अरुण वाल्मीकि के घर भी गईं। दलित कार्यकर्ता मायावती के अलग चुनाव लड़ने के फैसले से भी हताश हैं। उन्हें लगता है कि अलग चुनाव लड़ने से बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिल पाएगी। विधानसभा में सिर्फ एक सीट और लोकसभा में कुछ हासिल न होने की बात उन्हें और मायूस बना रही है। लेकिन उन्हें उम्मीद है कि मायावती समय आने पर अपना फैसला बदलेंगी और नए बने “इंडिया“ में सम्मानजनक ढंग से शामिल होंगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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