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बनारसः अटल आवासीय विद्यालय के लिए उजाड़े गए मुसहर समुदाय के लोगों की बदतर ज़िंदगी

"करसड़ा मुसहर बस्ती में किसी को काम नहीं मिल रहा है, न ही मर्दों को और न महिलाओं को। रोज़गार के लिए अफ़सरों के यहां अर्जी देते हैं तो आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। हमारी ज़िंदगी तो कभी न ख़त्म होने वाली अनगिनत चुनौतियों का एक अंतहीन सिलसिला भर है।"
mushar basti
करसड़ा की मुसहर बस्ती

बिजली के हाईटेंशन तारों की झनझनाहट, नीचे नाला और ऊपर सड़क। हर समय मौत का खौफ। न कोई रास्ता, न कायदे का आवास। टूटी-फूटी सड़कें, बुझे चूल्हे और बिखरे बर्तन। भोजन की आस में मायूस बैठे नौनिहाल और उदास बैठी उनकी भेंड़-बकरियां। यह दास्तां बनारस के करसड़ा स्थित उस मुसहर बस्ती का है, जिसे बनारस की सरकार ने ऐसे स्थान से उजाड़कर बसाया था जहां आज चमचमाता हुआ आलीशान अटल आवासीय विद्यालय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शनिवार को इसी विद्यालय का उद्घाटन करने वाले हैं। यह विद्यालय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का ड्रीम प्रोजेक्ट है।

करसड़ा के अटल आवासीय विद्यालय में फसाड लाइटों और बल्बों की चकाचौध मुसहर बस्ती के लोगों के दिलों में चुभ रही है। जानते हैं क्यों? जिस स्थान पर इस विद्यालय की इमारतें खड़ी की गई हैं, पहले वहीं मुसहर समुदाय के लोगों की बस्ती हुआ करती थी। प्रशासन की नजर इस बस्ती पर पड़ी तो 29 अक्टूबर 2021 को रातों-रात सरकारी अमला पहुंचा और बनारस की सरकार’ ने बुलडोज़र से ढहवा दिया। एक झटके में 62 लोग खुले आसमान के नीचे आ गए। प्रशासन की ज्यादती का मामला जब मीडिया में सुर्खियां बनने लगा तब आनन-फानन में उनकी समूची गृहस्थी एक नाले के किनारे जबरिया फेंक दी गई। पुनर्वास के नाम पर मुसहर समुदाय के लोगों को आधे-अधूरे बिना प्लास्टर वाले मकान दिए गए और बिजली के झूलते नंगे तार। मुफ्त में राशन बांटकर यूपी में सत्ता में आई योगी सरकार की कोई योजना मुसहरों की इस बस्ती में आज तक नहीं पहुंची। तथाकथित समाजसेवियों का वह अमला भी अब कहीं नहीं दिख रहा है जो पहले इस मुसहर बस्ती के जरिये अपनी ब्रांडिंग किया करते थे। एनजीओ वालों ने भी यह मान लिया है सरकार ने मुसहरों पर अपनी सारी सुविधाएं न्योछावर कर दी है।

जिंदगी में सिर्फ बेबसी और उदासी

एक नाले के मुहाने पर बिजली के हाईटेंशन तारों के नीचे बसाई गई करसड़ा मुसहर बस्ती के लोग उदास नज़र आते हैं। बस्ती के ज्यादातर पुरुष और महिलाएं मजदूरी करते हैं। कुछ महिलाएं कपड़ों की सिलाई करके अपनी आजीविका चलाया करती हैं। किराये पर ई-रिक्शा चलाने वाले 30 वर्षीय राजेश इस बस्ती में सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं, जिनके पास मैट्रिक पास होने का सर्टिफिकेट और मार्क्सशीट है। वह कहते हैं, "बनारस की सरकार ने हमें ऐसे वीरान जगह पर फेंक दिया है जहां हर वक्त हमारे सिर पर मौत नाचती रहती है। बिजली के हाईटेंशन तार हमेशा झनझनाते रहते हैं। कई बार तारों से चिनगारी भी निकलती है। बारिश के दिनों में इन तारों के नीचे लोहे का कोई सामान करंट मारता है। सरकार दावा करती है कि करसड़ा में मुसहर समुदाय के लोगों को आबाद कर दिया गया है, लेकिन उजाड़े जाने के बाद हमारी सुधि किसी ने नहीं ली। झूठे आश्वासनों से हमें छला गया। मुसहर बस्ती में इकलौता राशनकार्ड सिर्फ हमारे पास है, लेकिन उस कार्ड पर कई ऐसे लोगों के नाम चढ़ा दिए गए हैं, जिन्हें हम जानते-पहचानते तक नहीं हैं। हमारी मां रन्नो देवी के नाम बने राशन कार्ड में अनिल कुमार सिंह, आरती पटेल, पूजा पटेल, जयप्रकाश पटेल, पूनम पटेल, अंजली और अभय के नाम हैं। हमारा राशन कहां जाता हैं, यह सिर्फ कोटेदार जानता है या फिर ग्राम प्रधान।"

"हमारी मुसीबतों का कोई ओर-छोर नहीं हैं। हमारी बस्ती में कई कई विकलांग ऐसे हैं जिन्हें दो जून की रोटी मुश्किल से मिल पाती है। विधवा पेंशन तो यहां की औरतों के लिए सपना है। किसी का नाम मनरेगा सूची में नहीं है। लेबर कार्ड के लिए हमने बहुत भाग-दौड़ की, लेकिन वो भी नहीं मिल सका। किसी भी बैंक में किसी का कोई खाता तक नहीं है। बहुत कोशिश के बाद सिर्फ आधार कार्ड बन पाया है, लेकिन मतदाता पहचान-पत्र से हम आज भी महरूम हैं। पुनर्वास के नाम पर 13 लोगों को बगैर प्लास्टर वाले आवास के पट्टे दिए गए, लेकिन हमारी मजदूरी का भुगातन आज तक नहीं किया गया। हमारी बस्ती में न तो पीने का साफ पानी है और न ही किसी के पास शौचालय। बड़े-बूढ़े, बच्चे और औरतें जब शौच करने खेतों की ओर जाती हैं तो लोग डंडे लेकर दौड़ा देते हैं। हमारी मुश्किलें पहाड़ जैसी हैं, लेकिन सरकार हमारी सुनती ही नहीं है।"

करसड़ा मुसहर बस्ती उत्तर प्रदेश के बनारस शहर से 15.3 किमी दूर है। इस बस्ती के पास है सनसिटी स्कूल और कई अन्य शिक्षण संस्थाएं। 60 वर्षीय सीता देवी की आंखों में निराशा और उदासी साफ-साफ झलकती है। वह कहती हैं, "मामूली बारिश भी हमारी बस्ती में आफत बनकर आती है। बिना प्लास्टर वाले हमारे घर और रास्ते पानी में डूब जाते हैं। घर में रखा सामान बह जाता है। हम पेड़-पौधे लगाते हैं तो बर्बाद हो जाते हैं। बस्ती के कुछ लोग ड्राइवरी करते हैं और कुछ पत्ते तोड़ते हैं। हमारी आजीविका इसी के सहारे चल रही है। बेरोजगारी का आलम यह है कि हमारी बस्ती के किसी भी आदमी-औरत को मनरेगा में आज तक काम नहीं मिला।"

भूख और सांपों से कौन बचाएगा

सीता देवी के सामने ज़मीन पर बैठी 62 साल की सोमरा देवी अपने मकान में छिपकर बैठे सांप की वजह से काफी चिंतित हैं। बिना सवाल पूछे ही कहती हैं, "आप चल कर देख लीजिए। जिस दर्रे में काला नाग छिपकर बैठा है, वहां हमारे घर के बच्चे और महिलाएं आखिर कैसे सो पाएंगी? मामूली बारिश भी हमारे लिए कहर बनकर टूटती है। बारिश ज्यादा होने पर समूची मुसहर बस्ती डूब जाती हैं और लोगों को जहां-तहां शरण लेनी पड़ती है।" तभी उनके पीछे बैठी एक विकलांग महिला सोनी देवी की आवाज़ आती है, "इकलौते चपाकल से मटमैला पानी निकल रहा है। चाहे हम मरें या जिंदा रहें, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। करसड़ा मुसहर में किसी को काम नहीं मिल रहा है, न ही मर्दों को और न महिलाओं को। रोजगार के लिए अफसरों के यहां अर्जी देते हैं तो आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। हमारी जिंदगी तो कभी न ख़त्म होने वाली अनगिनत चुनौतियों का एक अंतहीन सिलसिला भर है।" सोनी देवी के दो बेटे और एक बेटी है। इनके पति विजय एक हाथ से भाड़े का ई-रिक्शा चलाते हैं। दिन भर खटने के बाद दो वक्त का खाना नसीब हो पाता है।

एक छोटे से बच्चे को गोद में लिए 35 वर्षीया पार्वती के चेहरे से ही झलकता है कि उनका जीवन कितना मुश्किल भरा है। इनके पति मजूरी करते हैं। वक्त का पहिया तो आगे बढ़ रहा, लेकिन पार्वती के चार बच्चों की ज़िंदगी जहां की तहां खड़ी है। रंग-बिरंगी साड़ी पहने पार्वती की भूरी आंखों में एक सख़्त उदासी है। वह कहती हैं, "लॉकडाउन के बाद से हमारा जीवन संकट में है। अब काम मिलना बंद हो गया है। हम रोज़ कमाने खाने वाले लोग हैं। मज़दूरी न मिलने की वजह से हाथ में एक पैसा नहीं है। इसलिए सब्ज़ी तरकारी और चटनी मिलने का सवाल नहीं। महीनों से कोई मज़दूरी नहीं मिल रही है तो घर चलाना और बच्चे पालना बहुत मुश्किल हो रहा है। हमें तो सरकारी राशन भी नसीब नहीं हो रहा है। अटल आवासीय विद्यालय के लिए उजाड़े जाते समय राजातालाब के एसडीएम और तहसीलदार ने वादा किया था कि यहां चले जाओ। सारी सुविधाएं घर पहुंचा देंगे। नाले में हमारी गृहस्थी फेंकने के बाद कोई झांकने तक नहीं आया। महीनों से हमें काम नहीं मिल सका है। पहले जब काम मिलता था तो आदमी-औरत सब काम करते थे। हर किसी को रोज़ की सौ-दो सौ रुपये की मज़दूरी मिल जाती थी। लेकिन अब कुछ नहीं। बीमारी से मरे न मरे, बेरोज़गारी ज़रूर ज़िंदगी दूभर बना रही है।"

मुसहर बस्ती में बच्चों को सिलाई सिखाने वाली मुनीब की पत्नी लालमनी कहती हैं, "जिस स्थान पर हमें बसाया गया है वह करीब 20 फीट गड्ढे में है। उच्चशक्ति वाले बिजली के तार हर समय झनझनाते रहते हैं। नियामानुसार इन तारों के नीचे न कोई आवास बनाया जा सकता है और न ही बस्ती बसाई जा सकती है। फिर भी प्रशासन मुसहरों को जानलेवा बिजली के तारों के नीचे हमें फेंक दिया।" मुसहर समुदाय के लोगों की एक बड़ी शिकायत यह है कि बीजेपी सरकार आज तक इन्हें मुफ्त में अनाज का एक दाना तक नहीं दे सकी है। कार्तिक और बलदेव बताते हैं, "हमारे पास न राशन कार्ड है और न ही वोटर कार्ड। प्रधान के पास जाते हैं तो भगा देते हैं। राजस्व और पंचायत विभाग का कोई कर्मचारी भी यहां नहीं आता। ग्राम पंचायत के अभिलेखों से भी हमारा नाम गायब है। अब से पहले तो हम दूसरों के घरों का जूठन ही बटोरा करते थे।"

मुश्किलों का ओर-छोर नहीं

बनारस की सरकार ने करसड़ा में जिस जगह अटल आवासीय विद्यालय खोला है वह जमीन राजस्व खतौनी में मट्ठल मुसहर के कुनबे के अशोक, पिंटू और चमेली के नाम दर्ज हुआ करती थी। भूखंड का अराजी नंबर-821 और रकबा 1.0100 हेक्टेयर था। वहां एक पुराना कुआं था, जिससे पता चलता था कि मुसहर समुदाय के लोग लंबे समय से यहां रहते आ रहे हैं। प्रशासन द्वारा जमीन कब्जाए जाने के बाद चमेली देवी ने वाराणसी जिला प्रशासन के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर कर रखा है। लालमनी कहती हैं, "पिछले डेढ़ दशक से वो अपने कुनबे के मट्ठल की जमीन पर रह रहे थे। बारिश के दिनों में नाला फुंफकार मारता था तो उनकी झोपड़ियां पानी में डूब जाया करती थीं। तब उन्हें भागकर किसी पेड़ के नीचे ठौर तलाशना पड़ता था। घर डूब जाता था। मुसहर समुदाय की चमेली देवी की बेटी अमृती देवी को हम सभी का दुख देखा नहीं गया तो उन्होंने अपनी जमीन पर बसा दिया। 17 सितंबर 2021 को हमारी बस्ती के बच्चों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 71वां जन्मदिन धूमधाम से मनाया था। जलसे में रोहनिया (वाराणसी) के तत्कालीन विधायक सुरेंद्र नारायण सिंह भी आए थे। उन्होंने बच्चों को फल और मिठाइयां भी बांटी थी। उस समय हमारी आंखों में चमक उभरी थी और सपना भी दिखा था कि हमारा कुनबा भी शायद समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा, मगर सब कुछ स्वाहा हो गया। प्रशासन ने बुलडोज़र चलाकर हमारे सपनों को चकनाचूर कर दिया।"

मुसहर बस्ती के बुद्धूराम और सदानंद अपनी बेचारगी का इजहार करते हुए कहते हैं, "जिस रोज हमारी बस्ती उजाड़ी गई उस समय सबसे पहले हमारे बच्चों की पाठशाला पर बुलडोज़र गरजा। फिर झोपड़ी ढहाई जाने लगी। हमारे घरों का सारा सामान निकालकर बाहर फेंका जाने लगा। ठंड के बावजूद बस्ती के 62 लोग खुले आसमान के नीचे आ गए थे। न्याय मांगने के लिए बस्ती के लोग पैदल लंबा रास्ता नापते हुए रात 11 बजे तत्कालीन डीएम कौशलराज शर्मा के कैंप कार्यालय के समीप पहुंचे। तत्कालीन एसडीएम उदयभान सिंह और उनके लोगों ने हमें रास्ते में जबरिया रोक लिया। हमारे साथ जोर-जबरदस्ती की गई। हम सभी को जबरिया तीन टैम्पो में भरकर लौटा दिया गया। टैम्पो वाले हमें बीच रास्ते में ही उतारकर भाग निकले। आधी रात के बाद हम रोते-बिलखते बस्ती में पहुंचे। चौबीस घंटे तक हमारे बच्चों को भोजन तक नसीब नहीं हुआ।"

लगातार सताया जा रहा मुसहर समुदाय

मुसहर समुदाय के लोगों को बेदखल करने के बाद प्रशासन ने राजेश, राहुल, इंदू देवी, बुद्धू, भुलादेव, कार्तिक, विजय, सदानंद, शंकर, राम प्रसाद, मुनीब, नन्हकू और सोमारा देवी के नाम एक-एक बिस्वा जमीन आवंटित की है। राजेश कहते हैं, "बनारस की सरकार ने वादा किया था कि हम अटल आवासीय विद्यालय के लिए अपनी जमीन छोड़कर चले जाएंगे तो हमें मुफ्त में राशन मिलेगा और पहचान-पत्र भी। उनके बच्चों को अटल आवासीय विद्यालय में प्राथमिकता के आधार पर दाखिला दिया जाएगा, लेकिन हमें मिला क्या, बीस फीट गड्ढे वाली जमीन। हमारी बस्ती में स्ट्रिट लाइट नहीं, सिर्फ धोखे की लाइट जलती है।"

दलित फाउंडेशन से जुड़े राजकुमार गुप्ता बताते हैं, "जिस जमीन पर मुसहर समुदाय के लोग रहते हैं, उसे सरकार ने साल 1976 में मट्ठल/मिठाई के नाम जमीन पट्टा किया था। चक बंदोबस्त आया तो इनका नाम राजस्व अभिलेखों से गायब कर दिया गया। बाद में साल 1991 में अशोक, पिंटू, चमेली देवी का नाम फिर खतौनी में चढ़ गया। बनारस के अफसर इतने निष्ठुर हैं कि वो गरीबों को कीड़ा-मकोड़ा समझ बैठे हैं। मुसहरों को सांप-बिच्छुओं की कॉलोनी में हाईटेंशन तार के नीचे बसाया गया है। करसड़ा इलाके में सैकड़ों बीघे सरकार जमीनों पर भूमाफियाओं का कब्जा है। ये जमीनें खुद राजस्व विभाग के अफसरों और लेखपालों की मिलीभगत से हथियाई गई हैं। इन जमीनों को मुक्त कराने में अफसरों की कोई दिलचस्पी नहीं है। योगी सरकार की यह कैसी नीति है कि एक ओर वनवासियों को रामभक्त कहते हैं और दूसरी ओर उनकी बस्ती पर बुलडोज़र चलवा देते हैं। गुज़रे सात-आठ दशकों में वक़्त का पहिया तो आगे बढ़ गया, लेकिन मुसहर बस्ती की लालमनी, रीता, इंदू की ज़िंदगी वहीं खड़ी है। इन्हें तो सरकारी राशन भी नहीं मिलता। वह राशन जिसका ढोल योगी-मोदी सरकार सालों से पीट रही है।"

कैसा है अटल आवासीय विद्यालय

बनारस के करसड़ा में 66.54 करोड़ रुपये की लागत से 12.25 एकड़ में अटल आवासीय विद्यालय की स्थापना की गई है। श्रम विभाग द्वारा संचालित होने वाले इस विद्यालय में कुल 80 स्टूडेंट्स को दाखिला दिया गया है जिनमें करसड़ा की मुसहर बस्ती का कोई स्टूडेंट नहीं है। यहां दाखिले की शर्त बहुत कठिन है। गरीब तबके के सिर्फ उन्हीं बच्चों को प्रवेश दिया गया है जिनका जन्म 2010 से 2013 के बीच हुआ है और उनके माता-पिता के नाम श्रम कार्ड है। इम्तिहान में अव्वल आने वाले 40 छात्र और 40 छात्राओं को प्रवेश दिया गया है। सरकार का दावा है कि अटल आवासीय विद्यालय में राज्य सरकार की तरफ से मजदूरों के बच्चों को प्राथमिक, जूनियर और माध्यमिक की गुणवत्तापरक शिक्षा दी जाएगी।

उत्तर प्रदेश में 16 मंडलों में अटल आवासीय विद्यालय शुरू किया गया है। नई तकनीक और आधुनिक व्यवस्थाओं से लैस इस विद्यालय के माध्यम से श्रमिकों और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को निशुल्क शिक्षा और रहने-खाने की सुविधा दी जा रही है।

अटल आवासीय विद्यालय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का ड्रीम प्रोजेक्ट है। उनके निर्देश पर सभी स्कूलों में 11 सितंबर 2023 से शैक्षिक सत्र शुरू हो चुका है। महामारी के दौर में निराश्रित हुए और पंजीकृत श्रमिकों के बच्चों को मुफ्त में पढ़ाया जा रहा है। कक्षा 6 से 12 तक के विद्यालयों में क्षमता 1000 बच्चों की है। इस विद्यालय में कक्षा 12 तक शिक्षा मुफ्त में दी जाएगी। कक्षा 6 से 8 तक आवासीय व्यवस्था है।

करसड़ा मुसहर बस्ती के लोगों का कहना यह है कि बनारस की सरकार ने उनके साथ फरेब किया। ड्राइवरी करने वाले कार्तिक वनवासी कहते हैं, "मुसहर बस्ती के बच्चे सूरज, नीरज, शनि, जागरण, विकास, ज्योति, अंजली, राजा, शिवानी, कामिनी और रानी आदि बच्चे पढ़ने के लिए तीन किमी दूर जाते हैं। बस्ती के लोगों ने आज तक अपने मताधिकार का प्रयोग इसलिए नहीं किया, क्योंकि किसी के पास न वोटर आईडी कार्ड है और न तो किसी का नाम वोटरलिस्ट में दर्ज है। लगता है कि मोदी-योगी सरकार ने हमें किसी दूसरे ग्रह का इंसान मान लिया है।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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