Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बनारस: एक और दलित बस्ती पर बुलडोज़र चलाने की तैयारी!

बनारस की आईडीएच-कज्जाकपुरा दलित बस्ती में बेदख़ली का नोटिस चस्पा किया गया है। बस्ती में रहने वालों के लिए न तो वैकल्पिक आवास की व्यवस्था है, और न ही इन्हें किराये पर घर मिल रहा है।
colony

“बदबू, सड़न, गंदगी...साथ में बीमारियों का टीला। कभी कूड़े का पहाड़ हटाते हैं, तो कभी जान जोखिम में डालकर जहरीली गैस से भरे चैंबरों में घुसकर सफाई करते हैं। हम नर्क से इसलिए गुजरते हैं ताकि पीएम नरेंद्र मोदी और बाबा का ये शहर बनारस साफ रहे। नगर निगम का फरमान आया है कि हम अपनी झुग्गी-झोपड़ी छोड़कर चले जाएं। हम जहां रहते हैं, वहां बेदखली की नोटिसें भी चस्पा करा दी गई हैं। हमें न तो सरकार कोई ठिकाना दे रही है और न ही किरायेदार। जो कोई सुनता है कि हम गटर साफ करते हैं और झाड़ू लगाते हैं तो दरवाजा बंद कर लेता है। घर टूटने वाला है, लेकिन यहां से जाएं कहां?"

यह व्यथा माया की है जो बनारस के आईडीएच-कज्जाकपुरा की दलित बस्ती में रहती हैं और गलियों में झाड़ू लगाने का काम करती हैं। इनकी 23 वर्षीया बहू चंदा को 21 नवंबर, 2023 को डिलीवरी हुई है। कभी अस्पताल तो कभी घर तक कई मर्तबा चक्कर लगा चुकीं माया अब से पहले इतनी बेबस और लाचार कभी नहीं रहीं। वह अपनी पीड़ा का इजहार कर रही होतीं है तो सैकड़ों लोग उनकी बात का समर्थन का करते हैं। माया के साथ चंद्रावती और कमली को उस समय ड्रिप चढ़ानी पड़ी थी जब कुछ रोज पहले नगर निगम का अतिक्रमण विरोधी दस्ता पुलिस के साथ लाउडस्पीकर लेकर जमीन खाली करने का अल्टीमेटम देने पहुंचा था।

माया कहती हैं, "हमारी जिंदगी के न जाने कितने बरस शहर की गलियों में झाड़ू लगाते गुजर गए। अचानक हमें घर छोड़कर जाने को कहा गया तो दिल की धड़कन तेज हो गई और हम बेहोश हो गए। काफी इलाज के बाद हालत सुधरी। बहू की डिलीवरी होनी थी। सोचा कि किराये का मकान ही ढूंढ लें। कई घरों का दरवाजा खटखटाया। काफी तलाश करने के बाद मुझे एक कमरा मिला। जब मैंने मकान किराये पर लेने के लिए इच्छा जताई तो मुझसे पूछा गया कि आप किस जाति से हो और क्या करती हो? यह सवाल मुझे अटपटा लगा और गुस्सा भी आया, लेकिन मकान लेने की मजबूरी और असहाय होने की वजह से मेरा गुस्सा मेरे अंदर ही दफन हो गया।"

"कई घरों के दरवाज़े खटखटाए और हर जगह इसी तरह के सवाल किए गए। कई लोगों ने तो अंदर आने के लिए दरवाजे तक नहीं खोले। लोग हमें कमरा नहीं देना चाहते क्योंकि हम कूड़े-कचरे का ढेर साफ करते हैं। मेरे मन में अजीब तरह का एक डर भी पैदा हो गया है। एक तरफ घर खाली करने का दबाव और दूसरी तरफ नगर निगम के बुलडोज़र के खौफ ने हमारी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है।"

"पहले बसाया, अब उजाड़ रहे"

आईडीएच-कज्जाकपुरा बनारस शहर का वह मुहल्ला है, जहां नगर निगम के आदमपुर जोन का दफ्तर और उसके ठीक बगल में एक विशाल कूड़ाघर है। इसी कूड़ेघर के पीछे बसी है सफाई कर्मचारियों की एक ऐसी बस्ती जहां 250 से ज़्यादा जिंदगियां रहती हैं। दलित (हेला) समुदाय की इस बस्ती को वाराणसी नगर निगम प्रशासन ने साल 2005 में बसाया था और अब इसी महकमे ने वहां बेदखली की नोटिस चस्पा कराई है। नोटिस में कहा गया है कि समूची बस्ती अवैध है। घरों को खाली नहीं करने पर बुलडोज़र से ध्वस्तीकरण की कार्रवाई की जाएगी। नगर निगम ने यहां यूनिटी मॉल बनाने का योजना बनाई है। दलित बस्ती में रहने वाले लोगों का एक ही सवाल है कि अब कहां जाएं? न सरकार घर दे रही है और न ही किरायेदार!

बनारस के आईडीएच-कज्जाकपुरा के नाम से मशहूर दलित बस्ती उस समय बसाई गई थी जब साल 2004 में ग्रैंडटैंक रोड का चौड़ीकरण किया जा रहा था। इस बस्ती के लोग पहले सड़क के किनारे झुग्गी-झोपड़ी डालकर रहा करते थे। तत्कालीन नगर आयुक्त पुष्यपति सक्सेना ने 5 जुलाई, 2005 को मानवीय आधार पर विधिवत आदेश जारी किया कि जिन सफाई कर्मचारियों को सड़कों के किनारे से हटाया गया है उन्हें फिलहाल आईडीएच-अस्पताल परिसर में रहने दिया जाए। एक सप्ताह के अंदर इनके लिए जमीन खोजी जाए, जहां उन्हें सुविधापूर्वक बसाया जा सके। तब से लेकर आज तक इनके लिए न तो कोई जमीन ढूंढ़ी जा सकी और न ही कोई सरकारी आवास मुहैया कराया जा सका।

नगर निगम के उप प्रभारी अधिकारी (राजस्व) ने 16 नवंबर, 2023 को दलित बस्ती में बेदखली की नोटिस चस्पा कराई है। साथ ही वहां रहने वाले सफाई कर्मचारियों को अल्टीमेटम दिया है कि तत्काल जमीन खाली कर दें। जिन लोगों ने झुग्गी-झोपड़ी बनाकर अतिक्रमण किया है वो 23 नवंबर, 2023 तक वहां से चले जाएं, अन्यथा अतिक्रमण विरोधी दस्ता हटवा देगा और उस पर आने वाला खर्च भी वसूला जाएगा। पहले भी अतिक्रमण हटाने के लिए सूचित किया गया था, लेकिन किसी ने अतिक्रमण नहीं हटाया। नगर निगम के इस फरमान से दलित बस्ती में रहने वाले सफाई कर्मचारियों को कोई उपाय नहीं सूझ रहा है।

बनारस में झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने का सिलसिला तब से तेज हुआ है जब से खिड़किया घाट पर बसी मल्लाहों और दलितों की बस्ती को हटाकर नमो घाट का निर्माण किया गया। इससे पहले काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के समय भी मणिकर्णिका घाट के समीप दलितों की एक बड़ी बस्ती हटाई गई थी। बाद में किला कोहना की दलित बस्ती हटाई गई और अब दो दिन बाद कज्जाकपुरा की दलित बस्ती पर बुलडोज़र चलाने की तैयारी है। इसके बाद नक्खीघाट की दलित बस्ती हटाने की तैयारी है, वहां रहने वाले लोगों को भी नोटिस जारी कर दिया गया है।
 
औरतों की नींद-चैन गायब
 
दलित बस्ती की अनीता को जब से बेदखली का नोटिस मिली है तब से रो-रोकर उनका बुरा हाल है। 40 वर्षीय इस महिला का अपना कोई नहीं है। इनसे दो बरस छोटी इनकी बहन ज्योति दिमागी रूप से कमजोर है। वो अक्सर बीमार रहती है। हर वक्त दवा चलती रहती है। अनीता एक सफाई कर्मचारी हैं। वह कहती हैं, "जब तक शरीर में जान है तब तक कूड़ा साफ करती रहेंगे। जब हमारे पास घर भी नहीं होगा और उम्र ढल जाएगी तो कैसे जिंदा रहेंगे?"

अनीता से मिलती-जुलती दर्दनाक कहानी विमला और कमला की भी है। इनकी उम्र क्रमशः 45 और 40 साल है। दोनों अविवाहित हैं और संविदा पर गलियों में साफ-सफाई का काम करती हैं।

विमला कहती हैं, "हम किस पीड़ा से गुजर रहे हैं, यह उस हालात से गुजरने वाले ही समझ सकते हैं। अपनी झोपड़ी खाली करना और फिर किराये का मकान ढूंढना बेहद कष्टकारी है। हमारे साथ भेदभाव गैर-कानूनी है। मोदी-योगी सरकार गरीबी मिटाने के बजाय गरीबों को ही मिटाने में लगी है। जानबूझकर दलितों के साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है। उन्हें लगता है कि ऐसी हरकतें कानून और जनता की नज़र में नहीं आएंगी। हमने भी तय कर लिया है कि पहले की तरह अब मोदी को वोट नहीं देंगे। अगले चुनाव में उनका और बीजेपी का विरोध करेंगे।"

दलित बस्ती में रहने वाली 45 वर्षीय ऊषा के पति की मौत हो चुकी है। इकलौती बेटी ससुराल में रहती है। वह कहती हैं, "सरकार हमें रहने के लिए ठौर-ठिकाना नहीं दे सकती है तो हमें गंगा में फेंकवा दे। झुग्गी-झोपड़ी खड़ा करने के लिए जगह भी नहीं ढूंढनी पड़ेगी। यह सरकार गरीबों को सता रही है। जिस जगह हम रह रहे हैं वहां मॉल बनेगा तो दुकानें क्या आम आदमी खरीद पाएगा? दौलत वाले ही दुकानें लेंगे और वही मुनाफा कमाएंगे।"

ऐसी ही एक महिला किरन हैं जिनकी बेटी की इसी 27 नवंबर, 2023 को शादी है। बारात दलित बस्ती में आनी है। शादी का कार्ड छप चुका है। रिश्तेदारों को न्योता बांटा जा चुका है। तब तक बस्ती रहेगी या हटा दी जाएगी, यह सवाल वह हर उस अनजान व्यक्ति से पूछने लगती हैं जो इस बस्ती में पहुंचता है।

किरन कहती हैं, "किराया एडवांस लेने के बाद कई लोगों ने हमें मकान देने से साफ इनकार कर दिया। कोनिया इलाका हमेशा गंदगी से बजबता रहता है। वहां भी किराये पर कमरा नहीं मिल रहा है। इधर, नगर निगम वाले रोज धमकाते हैं कि झोपड़ी छोड़कर चले जाओ अन्यथा ढहाने का पैसा भी वसूलेंगे।"
 
"विकास के नाम पर वंचित तबके की बेदखली"

दलित समुदाय के उत्थान के लिए संघर्ष करने वाली बनारस की संस्था दलित फाउंडेशन की ममता कुमार कज्जाकपुरा के सफाई कर्मचारियों का ब्योरा देती हैं। वह कहती हैं, "बनारस की सरकार दलित बस्तियों को दाग समझती हैं। यही वजह है कि एक के बाद एक नई दलित बस्ती में बुलडोज़र गरजने लगता है।"

"बनारस में विकास का गुजरात मॉडल ऐसा है कि दलितों और वंचित तबके को बेदखली का सामना करना पड़ रहा है। विकास के नाम पर इंसानी बस्ती को उजाड़ते चले जाने की सनक में गरीब पीसे जा रहे हैं। बनारस की सरकार को इस शहर की संस्कृति और परंपराओं से कोई लेना-देना नहीं है। विश्वगुरु का हुक्म आता है तो बुलडोज़र गरजने लगता है। मेरा एक ही सवाल है कि आखिर वंचित तबके के लोग बनारस से क्यों और कहां जाएं?”

थोड़ी देर बातचीत के बाद बस्ती की महिलाएं खुल गईं। उनमें से एक ने कहा, "मोदी जी खाली दिखावा करते हैं। देश भर में उज्जवला योजना के सिलेंडर बांटने का डंका पीटा गया, लेकिन हमारे बस्ती में इस योजना का लाभ किसी को नहीं मिला। यहां ज़्यादातर महिलाएं आज भी लकड़ी पर खाना बनाती हैं। मोदी हमारी बस्ती में भी आएं और देखें कि हम लोग रोज क्या झेल रहे हैं। हमारी बस्ती में नेता तभी आते हैं जब चुनाव की डुगडुगी बजती है। तब हर कोई पूछता है तुम लोग किसके लिए वोट करोगे?"

दलित बस्ती की शांति, रिंकी, मालती, रानी और विजयलक्ष्मी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं जिसके बाद इनकी जिंदगी मुश्किल दौर में गुजर रही है। ये कहती हैं, "सबसे पहले हमारे घर पर नगर निगम ने नोटिस चस्पा कराया। उस समय हमें यह उम्मीद नहीं थी कि वो नोटिस हमारी बर्बादी का कारण बन जाएगी। हमें उस रास्ते पर ढेकेला जा रहा है जहां ठंड के मौसम में सिर छिपाने के लिए कोई जगह नहीं है। इतनी जुल्म-ज्यादती तो अंग्रेजी हुकूमत के समय भी नहीं हुई होगी।"

दलित बस्ती की लता देवी कहती हैं, "G-20 के समय हमारी बस्ती को टेंट से ढंक दिया गया था। हमारे पास स्थायी निवास प्रमाण-पत्र, वोटर आईडी कार्ड, आधार कार्ड और बिजला का बिल है। अगर हम अवैध तरीके से रह रहे थे तो क्या पूर्व नगर आयुक्त की चिट्ठी झूठी थी? नगर निगम ने पहले कार्रवाई क्यों नहीं की? बीजेपी के नेता अक्सर हमारी बस्ती में आकर हमें हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाया करते थे। आज हम संकट में हैं तो हमारे पक्ष में कोई खड़ा नहीं दिख रहा है। हम तो सरकार से सिर्फ यही गुहार लगा रहे हैं कि हमें जिल्लत भरी जिंदगी के मुहाने पर ढकेलने की कोशिश मत कीजिए। कोई ठिकाना दिला दीजिए और हम वहीं चले जाएंगे।"

दलित बस्ती में रहने वाले लोगों की बेचैनी और अफरा-तरफी साफ-साफ दिखती है। तमाम लोग उलझन में फंसे हैं। इनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि अगर उनकी झुग्गियों पर बुलडोज़र चला तो बच्चों का स्कूल और ट्यूशन सब ख़त्म हो जाएगा। कई बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। आपा-धापी का आलम यह है कि बच्चे पढ़ाई भूल गए हैं। चिंता यह है कि आगे क्या होगा? सभी के माथे पर चिंता की लकीरें हैं।

बस्ती को बचाने के लिए मौन मार्च

दलित बस्तियों को बचाने के लिए कज्जाकपुरा और नक्खीघाट के लोगों ने 21 नवंबर, 2023 को मौन मार्च निकाला और कलेक्टर को छह सूत्री मांग-पत्र भी सौंपा। अपनी झुग्गी-झोपड़ियों को बचाने के लिए दलित समुदाय के लोग आखिरी कोशिश कर रहे हैं। इनकी मांग है कि उजाड़े जाने से पहले उन्हें स्थायी रूप से बसाया जाए। तीन किमी के दायरे में मकान, सफाई कर्मचारियों को मुफ्त बीमा, स्वास्थ्य सुविधा, बच्चों को मुफ्त शिक्षा और संविदा कर्मचारियों को परमानेंट नियुक्ति दी जाए। बस्ती के लोग बताते हैं कि वैकल्पिक आवास की मांग को लेकर वो महापौर से भी मिले थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ।


बनारस शहर में रोजाना करीब 600-700 टन गंदगी निकलती है। शहर डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, हैज़ा, टाइफाइड, हेपेटाइटिस जैसी कई घातक बीमारियां गंदगी और उसमें पलने वाले मच्छरों के चलते फैलती हैं। बस्ती के लोग कहते हैं कि उन्हें पशुओं के मल-मूत्र, फेंके गए सड़े खाद्य पदार्थ, धातुओं के टुकड़े, तार, अस्पतालों से निकले कूड़े, कांच के टुकड़े, ब्लेड जैसी चीज़ों की सफाई करनी पड़ती है।

मौन मार्च में शामिल शंकर कहते हैं, "दलितों की बस्तियां जरूर उजाड़ी जा रही हैं, लेकिन हमारा दर्द कोई नहीं समझ रहा है। शहर के कई नाले इतने गहरे हैं कि उनमें बड़ी गाडियां भी समा जाएं। जाड़े में जब हम सफाई कर्मी अपना काम पूरा कर नालों से बाहर निकलते हैं तो ठंड से कांप रहे होते हैं। हम नालों में उतरते हैं तो अंदर घुप अंधेरा होता है। बाहरी दुनिया से संपर्क पूरी तरह ख़त्म हो जाता है। जहरीली गैसों की चपेट में आने या फिसल जाने का खतरा वक्त बना रहता है। कई बार हम बेहोश हो जाते हैं। गटर साफ करने के लिए जलकल विभाग ने कई साल पहले कई मशीनें भी मंगाई, लेकिन अब वो शो-पीस बन गई हैं। हमने सुन रखा है कि अमेरिका में गटर साफ करने वालों का वेतन बड़े-बड़े साहबों से ज़्यादा होता है। वहां मशीनों से सफाई होती है और यहां हम सीधे गटर में उतरते हैं।"

इस सिलसले में हमने एक्टिविस्ट प्रभात कुमार से मुलाकात की। उन्होंने आईडीएच-कज्जाकपुरा बस्ती के लोगों की पीड़ा को लेकर कहा, “समाज हमें हेय नजरिये से देखता है। कई बार कड़ी धूप या बारिश में यह काम करना होता है। कूड़े के डम्पिंग ग्राउंड के आसपास कैंटीन या चेंजिंग रूम जैसी सुविधाएं नहीं हैं, ताकि सफाई कर्मी अपने कपड़े बदल सकें या आराम कर सकें। सभी कूड़ाघर बदबू और गंदगी से भरे रहते हैं। ये सभी अपने क्षमता से अधिक भरे होते हैं। हमें इतना वेतन अथवा मानदेय नहीं मिलता कि अपने परिवार की ठीक से परवरिश कर सकें। नगर निगम के स्थायी सफाई कर्मचारियों की रोजी-रोटी तो चल भी जाती है, लेकिन संविदा कर्मियों की जिंदगी पहाड़ जैसी है।"
 
"गरीब चुका रहे विकास की कीमत"
 
दलित फाउंडेशन से जुड़े अनिल कुमार कहते हैं, "हमें लगता है कि जिस तरह से मणिकर्णिका घाट, खिड़किया घाट और किला कोहना में वंचित तबके के लोगों को विकास परियोजना की कीमत चुकानी पड़ी, वही हाल कज्जाकपुरा के दलित बस्ती का भी हो सकता है। बुनियादी ढांचों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर ही ध्यान देने की भाजपा की नीति ने गरीब तबके के एक बड़े हिस्से और उसकी रोजी-रोटी के मसले को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। मेहनत-मजदूरी कर कमाने-खाने वाले लोग, जिनकी आर्थिक स्थिति और बदतर ही हुई है, वे अपने जन प्रतिनिधियों के उदासीन रवैये से बेहद दुखी और आहत हैं।"

"जिन लोगों को खिड़किया घाट और किला कोहना से उजाड़ दिया गया था उनमें कुछ लोग नाले अथवा रेल लाइनों के किनारे गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। वादे के बावजूद इन्हें आज तक कोई स्थायी ठौर नहीं मिला। बनारस में ऐसी सैकड़ों बस्तियां हैं जहां लाखों जिंदगियां बेजार हैं। गरीबों के मन में दहशत और कई तरह की शांकाएं हैं। इस समुदाय की सबसे बड़ी चिंता यह है कि विकास के नाम पर किसी भी दिन किसी को भी उजाड़ा जा सकता है।"
 
कैसा होगा यूनिटी मॉल?
 
बताया जा रहा है कि आईडीएच-कज्जाकपुरा की दलित बस्ती इसलिए उजाड़ी जा रही है, क्योंकि वहां यूनिटी मॉल बनाने की तैयारी चल रही है। इस मॉल में सब कुछ बिकेगा। बलिया की बिंदी से लेकर भदोही की कालीन और बनारस की साड़ियां तक। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने 12 सितंबर, 2023 को यूपी के बनारस, लखनऊ और आगरा में यूनिटी मॉल बनाने का ऐलान किया था। यूनिटी मॉल में आने वाले लोगों को खाने-पीने की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए फूडकोर्ट भी खुलवाए जाएंगे।

भारत सरकार के केंद्रीय बजट 2023-24 में देश के समस्त राज्यों में यूनिटी मॉल की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इस मॉल में वातानुकूलित शोरूम खोले जाएंगे। इसकी डिजाइन व डीपीआर तैयार कर ली गई है। यूनिटी मॉल में राज्यों द्वारा अपने ओडीओपी, जीआई और हस्तशिल्प उत्पादों की प्रदर्शनी और बिक्री की व्यवस्था की जाएगी।

यूपी के मुख्य सचिव दुर्गाशंकर मिश्र कहते हैं, "बनारस में यूनिटी मॉल खोलने का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय एकीकरण, मेक इन इंडिया, ओडीओपी प्रयासों को बढ़ावा देना और स्थानीय हस्तशिल्प उत्पाद एवं स्थानीय रोज़गार सृजन करना है। यूनिटी मॉल के संचालन के संबंध में एक ज्वाइंट कमेटी बनेगी। कमेटी में आवास विकास और एमएसएमई विभाग को शामिल किया जाएगा।"

"जस की तस हैं चुनौतियां"

बनारस के एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन कहते हैं, "आईडीएच-कज्जाकपुरा में किसी तरह जीवनयापन करने वाले सभी लोग वाल्मीकि समुदाय के हैं। महर्षि वाल्मीकि के पूर्वजों की अनदेखी और उन्हें इस हाल में छोड़ देने की रवायत ठीक नहीं है।"

"बीजेपी और आरएसएस के लोग भले ही अपनी विचारधारा का प्रचार दलित बस्तियों में निरंतर कर रहे हैं, लेकिन इस समुदाय की चुनौतियां जहां की तहां हैं। दलितों के घर में भोजन करने का ढोंग बंद होना चाहिए। छुआछूत के खिलाफ इस समुदाय को अभी लंबी लड़ाई लड़नी होगी। बिना रुके, बिना थके यह काम लगातार करना होगा। हर व्यक्ति के हर परिवार को समाज में अपने हिस्से का काम करना, होगा तभी उन्हें छत मयस्सर होगी और छुआछूत से मुक्ति भी मिलेगी।"

डॉ. लेनिन यह भी कहते हैं, "बनारस शहर को चकाचक दिखाने के लिए जिस तरह से दलितों की बस्तियों पर बुलडोज़र चलाया जा रहा है उसे ‘गरीबों को उजाड़ो अभियान’ नाम दिया जा सकता है। किसी तरह जीवन गुजार कर रहे लोगों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। मोदी-योगी सरकार की नीतियां उन्हें अपनी बात कहने तक का अवसर नहीं दे रही हैं। नतीजा तमाम लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ रहा है। दशकों से बनारस में रहने वाले मेहनकश गरीबों के पास अब कोई दूसरा ठिकाना नहीं है। इस समुदाय के लोग आखिर कहां जाएंगे?"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest