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विश्लेषण: वे कौन लोग हैं जो आपदा में भी कर रहे हैं मोदी का समर्थन!

निश्चित रूप से अभी भी सबसे मुखर समर्थकों में, वे लोग शामिल हैं, जो समाज के उच्च वर्गों से संबंध रखते हैं। हालत अधिक खराब और चुनौतीपूर्ण उन लोगों के लिए हैं जो इस शासन के पीड़ित होने के बावजूद अपना समर्थन देना जारी रखे हुए हैं।
मोदी
छवि सौजन्य:पीटीआई 

पिछले सात वर्षों की आपदा हर किसी के सामने मुंह बाए खड़ी है - यह बात कहने के लिए किसी असाधारण ज्ञान की जरूरत नहीं है - फिर भी इस सब के बावजूद, मिस्टर मोदी के समर्थकों और प्रशंसकों का मिलना कोई अपवाद नहीं है। भाजपा-आरएसएस गठबंधन के प्रशिक्षित कैडर के बाहर के समर्थकों पर गौर करने की जरूरत है, जिससे हमें उनकी सामूहिक लामबंदी की गहरे और अंधकारमय पक्ष को समझने में मदद मिलेगी।

निश्चित रूप से अभी भी सबसे मुखर समर्थकों में, वे लोग शामिल हैं, जो समाज के उच्च वर्गों से संबंध रखते हैं, जिनका वर्तमान शासन के बारे में सोचना हैं – कि बड़े लंबे समय के बाद – एक ऐसा शासन आया है जो उन लोगों के विशेषाधिकार को संरक्षित करने की दिशा में काम कर रहा है जो उच्च जाति, संपन्न तबके के लोग हैं और वे पुरुष हैं। इस खंड के संदर्भ में देखें तो, वर्तमान संकट से उन पर कोई तत्काल प्रभाव नहीं पड़ा है - उनकी आय नहीं डूबी है, वे दवा खरीद सकते हैं और इसलिए उन लोगों पर नज़र रखना जरूरी है जो इस संकट से भी बड़े संकट हैं जो उनके विशेषाधिकार को चुनौती दे सकते हैं।

हालत अधिक खराब और चुनौतीपूर्ण उन लोगों के लिए है जो इस शासन के पीड़ित होने के बावजूद अपना समर्थन देना जारी रखे हुए हैं, जबकि वे खुद आर्थिक, और सामाजिक बदहाली के साथ-साथ उग्र महामारी को भी झेल रहे हैं। यहाँ, कारण काफी मुक़्तलिफ़ हो सकते हैं। उनमें से एक तबके को नहीं पता कि इस बदहाली के लिए नेता या फिर शासन को दोष दें जिनको उन्होंने भावनात्मक रूप से समर्थन दिया था और विश्वास किया था, इस कारण से उनसे समर्थन वापस लेने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। ये वे लोग हैं जो नहीं जानते हैं कि मौजूदा निज़ाम की जगह किसे लाना है। यह एक बड़ी खाई है जिसका वे सामना नहीं कर सकते हैं। उनका निरंतर समर्थन उन्हें उनके विवेक से बचाने का एक बड़ा साधन है। यदि वे अपना समर्थन वापस ले लेते हैं, तो वे भी 2002 जैसे मुद्दों के प्रति जवाबदेह बन जाएंगे, और वे उस तरह के स्कैनर के नीचे नहीं आना चाहते हैं।

कुछ दूसरे तबके ऐसे हैं जो महसूस करने लगे हैं कि इस शासन के खिलाफ बोलना जरूरी हैं, लेकिन वे मौजूदा विपक्ष से आश्वस्त नहीं हैं। ये स्थिति बहुत बेहतर स्थिति नहीं है, क्योंकि वे मानते हैं कि किसी भी अन्य सरकार के तहत संकट कम या ज्यादा होता ही है। वे इस बात से सहमत होने के लिए भी तैयार हैं कि मोदी ने जो व्यक्तिगत फैसले लिए वे विनाशकारी थे, लेकिन उन्हे इस बात में यकीन नहीं है कि मोदी उनके लिए विनाशकारी नेता है। इस तरह के लोग सब में नैतिक विसंगतियों को देखते हैं। वे सभी राजनीतिक दलों को न केवल अनैतिक मानते है, इस समझ से ईमानदार व्यक्ति भी विसंगतियों के शिकार हो सकते हैं, जो झूठ नहीं हो सकते है। हर नैतिक समझ की अपनी कमजोरियाँ होती हैं। यहां तक कि गांधी की अपनी कमजोरियां थीं, जैसे उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे के साथ व्यवहार किया था, या उनका यौन प्रयोग के प्रति उनका 'लोभ' रहा हो। इस बात को तय करने के लिए कोई नैतिक यंत्र नहीं है, जिससे तय किया जा सके कि मोदी इसमें शामिल हैं। जो लोग सामाजिक मुद्दों के लिए खड़े होते हैं, वे भी भ्रष्ट, हेरफेर वाले और असंगत हो सकते हैं, तो ऐसा क्या है जो मोदी को अधिक अशुभ बना सकता हैं?

इस के हिस्से के तौर पर, कुछ लोगों में सत्ता के प्रति कमजोरी हो सकती है और जरूरी तौर पर झूठ बोलना या रोजमर्रा की वास्तविकता जिसके वे वास्तव में हिस्सा होते हैं। क्या यह सच नहीं है कि हम में से कई लोग दबावों के सामने झुके हैं? हड़बड़ी में पकड़े जाने पर ट्रैफिक पुलिस को रिश्वत देकर हममें से कितने लोगों ने भागने की कोशिश नहीं की होगी? जब हमारे सिर पर बंदूक रख दी जाती है तो हम में से कितने लोग झूठ का सहारा नहीं लेते हैं?

नैतिकता में जज़्ब समस्याओं में से एक या तो इसका चरित्र है। आप नैतिक हैं या नहीं। एक बार जब आप खुद को सही मान लेते हैं कि आप जीवन में सदाचारी बने रहना चाहते हैं, तो फिर पीछे मुड़कर देखने के लिए कुछ नहीं होता है। ऐसा नहीं है कि कोई व्यक्ति कुछ अवसरों पर नैतिक या ईमानदार हो सकता है, और कुछ अवसरों पर न होने का विकल्प चुन सकता है। यह वह असंगति है जो अधिक पीड़ा देती है और कभी-कभी हमारी अंतरात्मा भी इससे दंडित होती है। मोदी इसका एक ऐसा जवाब या राहत है कि सब कुछ चलता है जैसे व्यक्तित्व को कोई अफसोस नहीं है। नैतिक अव्यवस्था को शायद यह कह कर तिलांजली दे दी जाती है ताकि कहा जा सके कि यही एकमात्र तरीका है जिसमें कोई भी रह सकता है, और यह तरीका विभिन्न नैतिक विसंगतियों को झेलने के बजाय अधिक प्रामाणिक होता है। 'नैतिक उदासीनता या लापरवाही एक तरह से नैतिक ब्लैकमेलिंग है, जो आमतौर पर तनहाई और अपराधबोध की गहरी भावना को जन्म देती है। मोदी कुछ ऐसे ही है जो इसकी पकड़ में है। वे एक ऐसी ज़िंदगी को सामंजस्यपूर्ण ढंग से जीने की तरह पेश करते हैं जैसे कि उनमें न तो कोई अपराधबोध है और न ही वे बेहद अकेले हैं।' यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मोदी और उनके शासन का मानना ​​है कि समाज में कमज़ोर तबकों को अधिक नीचे धकेलने से एक सामूहिक समझ बनेगी कि कमज़ोर तबकों का जीवन एक अतार्किक सच्चाई है।

वर्तमान शासन - प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के जरिए - चुपचाप जीवन की सभी शर्तों को बदलने का प्रयास कर रहा है। सवाल यह है कि क्या मोदी और आरएसएस सड़क पर चलने वाले आम आदमी की तरह सोचते हैं, जबकि बाकी हम भी आम आदमी की तरह सोच सकते हैं? अक्सर, नैतिक उदाहरणों को संतों के समान पेश किया जाता है क्योंकि अधिकांश लोगों को पता है कि इस तरह के जीवन जीना संभव नहीं है। मोदी को निर्णायक रूप से खारिज करने का मतलब होगा कि खुद की एक निश्चित नैतिक विश्वदृष्टि बनाना। अधिकांश लोगों में ऐसा नैतिक साहस नहीं हो सकता है, लेकिन इस व्यक्ति में ऐसा साहस है, जैसे कि दुष्चक्र पूरी तरह घूम गया है, मोदी हमें नैतिकता के बोझ को याद दिलाने फिर से आएंगे, जिस दुष्चक्र से वे हमें मुक्ति दिलाने वाले थे। यह तब होगा जब लोग सीधे नहीं बल्कि बड़े शांत ढंग से अपना समर्थन वापस लेंगे। समर्थन की वापसी नाटकीय नहीं हो सकती है; अगर ऐसा होता है तो वह निरर्थक घटना होगी। मोदी गुमनामी में रह सकते हैं और कई लोग इस बात को याद भी नहीं करना चाहेंगे कि कभी उन्होंने ऐसे हृदयहीन और निर्दयी शासन का समर्थन किया था, लेकिन वे अब भी उसकी आलोचना करने में झिझकेंगे क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें कुछ नैतिक विचारों की जरूरत होगी जिनका जीवन में पालन करना किसी भी तरह से आसान नहीं है। यहां तक ​​कि जब हम वर्तमान शासन की आलोचना करते हैं, तो हम इससे उत्पन्न सबक भूलना नहीं चाहेंगे। 

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल लेख अंग्रेजी में है। इस लिंक के जरिए आप मूल लेख पढ़ सकते हैं।

Why Withdrawal of Support to Modi Will Not be Dramatic, But a Non-Event

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