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क्या एक माफ़ी प्रशांत भूषण को महात्मा बना देगी?

जनता को क़ानून की सीमा के भीतर ख़ुद को व्यक्त करने का अधिकार है और किसी भी व्यक्ति को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुनना चाहिए।
क्या एक माफ़ी प्रशांत भूषण को महात्मा बना देगी?

सबसे पहले, एक स्वीकारोक्ति: मैं अक्सर अदालत से जुड़े समाचार को पढ़ता हूं, विशेष रूप से शीर्ष अदालत में सुनवाई के दौरान द्विअर्थी संवाद और विचारो के आदान-प्रदान को सुनता हूं। जब मैं थका हुआ होता हूं, तो मुझे बार और बेंच के बीच इस तरह की हल्की-फुल्की बहस काफी उल्लासपूर्ण लगती है। उच्चतम न्यायालय की बड़ी प्रतिष्ठा के बावजूद, इस तरह के संवाद या आदान-प्रदान से यह भी पता चलता है कि माननीय न्यायाधीश भी आखिर मानव हैं। समय-समय पर उच्चतम न्यायालय के किसी भी फैसले को पढ़ने से हमारे न्यायिक स्वास्थ्य और उसकी बेहतरी में मदद मिल सकती है। माननीय अदालत ने खुद कहा है कि न्यायपालिका एक "केंद्रीय स्तंभ" है। (यह ओडिय़ा कहावत के अनुसार है जो धोबी घाटों को ऊंचा उठाने के बारे में  है- जहां हम अपने गंदे कपड़ों को साफ करते हैं- जो किसी गांव के स्वास्थ्य और स्वच्छता का सर्वोत्तम संकेतक माना जाता है।)

लेकिन 25 अगस्त को प्रशांत भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा द्वारा  ऋषि मुनी वाणी वाले शब्द मेरी आत्मा को कुछ हिला नहीं पाए। अदालत, अगर निष्पक्ष रूप से कहा जाए तो समझदार नहीं बल्कि हताश नज़र आई, जो लौकिक तिनके के सहारे पार पाना चाह रही थी। न्यायाधीश ने मामले में फैसला सुरक्षित रखते हुए पुंछा: "आप मुझे बताए किमाफी शब्द के इस्तेमाल में क्या गलत है? क्या माफी मांगना गलत है”? क्या माफी मांगना  दोषी होने को प्रतिबिंबित करता है? माफी एक जादुई शब्द है, जो कई चीजों को ठीक कर सकता है। ये मैं आम बात कर रहा हूं न की प्रशांत के बारे में बात कर रहा हूं। यदि आप माफी मांगते हैं तो आप महात्मा गांधी की श्रेणी में आ जाएंगे। गांधीजी ऐसा करते थे। यदि आपने किसी को तकलीफ दी है, तो आपको ही उसका इलाज़ करना चाहिए। किसी को किसी का अनादर नहीं करना चाहिए।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भूषण के वकील राजीव धवन ने अदालत की अवमानना पर पीठ के उस फैंसले की आलोचना कराते हुए जिसमें भूषण से "बिना शर्त माफी" के लिए कहा था, को  "जबरदस्ती का दबाव या अभ्यास" माना गया है। लाइवलॉं के अनुसार, धवन ने अदालत के आदेश पर प्रतिकृया जताते हुए कहा, “कानून के शिकंजे से बचने के लिए माफी नहीं मांगी जा सकती। माफी के लिए ईमानदार होना जरूरी है।उन्होंने कहा कि उन्होंने शीर्ष अदालत पर 900 से अधिक लेख लिखे हैं और उन्होंने इन लेकोन में एक बार यह भी कहा था कि "सुप्रीम कोर्ट का स्वभाव 'मध्यम वर्ग' जैसा है।" क्या यह कथन अवमानना है? ” उन्होंने न्यायमूर्ति मिश्रा को याद दिलाया कि कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप आपने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ उनकी टिपणी के लिए कि न्यायाधीश भ्रष्ट हैं, अवमानना की कार्रवाई शुरू नहीं की थी। धवन ने कहा, "उस वक़्त लॉर्डशिप ने मुख्यमंत्री की हैसियत को ध्यान में रखा था।"

मैं व्यक्तिगत रूप से सबसे अधिक ऊंचे उच्चारणों के बीच उनसे माफी की विनती करूंगा, जिसे मैंने कभी नहीं सुना है, नागरिकों के अपर्याप्त मौलिक अधिकारों के सबसे बड़े रक्षक के रूप में शीर्ष अदालत का उत्सव। मैंने पढ़ा कि आपने "माफ़ी मांगो तो आप महात्मा गांधी की श्रेणी में जाएंगे" शब्दों को पढ़ा और फिर दोबारा पढ़ा।  

वास्तव में!

इस तरह के हताश शब्दों को अदालत द्वारा गंभीरता के साथ बोला गया है। हमने बेंच-हंटिंग के आरोपों को सुना है और हमने पढ़ा कि कैसे भूषण "अवमानना के योग्य भी नहीं हैं" (जैसा कि नवंबर 2017 में जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था)। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ द्वारा दिए गए न्यायाधीश लोया फैसले में भूषण और दुष्यंत दवे के खिलाफ अदालत ने एक बार अप्रैल 2018 में कहा था, "याचिकाकर्ताओं और हस्तक्षेपकर्ताओं के आचरण से अदालत की प्रक्रिया खराब हो जाती है और यह प्रथम दृष्ट्या (प्राइमा फेशी) आपराधिक अवमानना का मामला  बनता है।"

हालाँकि, अदालत ने इस पर एक "आवेगहीन विचार" लिया और आपराधिक अवमानना कार्यवाही न चलाने का फैसला किया,"... ताकि यह धारणा न बन जाए कि मुकदमेबाज और उनके लिए पेश होने वाले वकीलों को एक असमान लड़ाई लड़ने के लेई मजबूर किया जा रहा है....न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता उसके नैतिक अधिकार पर आधारित है। यह वह दृढ़ विश्वास है जिसकी वजह से हमने अवमानना में अधिकार क्षेत्र को लागू नहीं किया है।

मैं यहां केवल भूषण के पिता शांति भूषण के उन शब्दों को याद कर सकता हूं, जो उन्होने 2010 में पिछले मुख्य न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के एक मामले में हलफनामे में कहे थे, जिसे एक दशक बाद एक बार फिर से जीवित किया जा रहा है:"... क्योंकि आवेदक सार्वजनिक रूप से यह कह रहा था कि भारत के अंतिम सोलह मुख्य न्यायाधीशों में से आठ निश्चित रूप से भ्रष्ट थे, तो इस आवेदक को भी इस अवमानना याचिका में एक अन्य उत्तरदाता के रूप में जोड़ा जाना चाहिए ताकि उन्हें भी अवमानना के लिए उपयुक्त रूप से दंडित किया जा सके। आवेदक का भारत के लोगों को एक ईमानदार और स्वच्छ न्यायपालिका देने के प्रयास करने में जेल काटने का विचार महान विचार होगा।

इसलिए हालिया न्यायिक अतीत वास्तव में अवमानना के अधिकार क्षेत्र के मामले में कोई मार्गदर्शक नहीं है। देश का कानून खस्ताहाल है, अगर अवास्तविक नहीं है। एक अन्य उदाहरण का हवाला देते हुए, जिसमें शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू को न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा जारी किए गए नोटिस में अदालत की गरिमा को कम ने की बात कही गई थी।

हमें इसका सामना करना होगा। अदालत के कानून की अवमानना एक मध्ययुगीन राजतंत्रीय अनुबंध है, जब न्यायाधीशों को राजशाही द्वारा इस तरह की ताक़त दी जाती थी। अदालत के प्रति किसी भी अपराध को लगभग दैवीय शक्ति को नाराज करने जैसा माना जाता था! तो यह कितना भी रूढ़िवादी लगे, यहां तक कि इसे छिपाने वाले ब्रिटिश भी इसे फिसलने देते रहे।

शायद इसे दोहराए जाने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र सार्वजनिक मास्टर से अपनी रोशनी लेता है, और लोक सेवकों को लोकतंत्र का मात्र सेवक माना जाता है। नि:संदेह मास्टर को संवैधानिक कानून और कानून के शासन की सीमा के भीतर खुद को व्यक्त करने का अधिकार है।

"न्याय एक निर्जन गुण नहीं है।" हम अक्सर लॉर्ड एटकिन के क़ानूनी वाक्य के इन शब्दों का सामना करते हैं। एटकिन कहते हैं कि " न्यायपालिका को आम व्यक्तियों की मुखर टिप्पणियों के बावजूद जांच और सम्मान का सामना करना होगा"। न्यायपालिका को लोकतांत्रिक भारत के अन्य सार्वजनिक सेवा अंगों की तरह आलोचना और खुली बहस का सामना करना चाहिए। कोई भी संस्था निरपेक्ष नहीं है या आलोचना से ऊपर नहीं हो सकती है। व्यवस्था के भीतर शक्तियों का विभाजन और उन पर नज़र रखना, एक बेरोक शक्ति के बेज़ा इस्तेमाल को रोकने के सचेत डिजाइन का हिस्सा है।

वर्ष 1968 की पेरिस हड़ताल के दौरान लेखक-दार्शनिक ज्यां पॉल सार्त्र को सविनय अवज्ञा के लिए गिरफ्तारी के जवाब में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति चार्ल्स डी गॉल के यादगार शब्द आज भी मेरे कान में बज़ रहे हैं: आप वोल्टेयर को गिरफ्तार नहीं करेंगे! यह वही बात है जो एक परिपक्व लोकतंत्र को परिभाषित करता है- यह इस बात को सुनिश्चित करने की इच्छा रखता है कि नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई आंच न आए। यह अफ़सोस की बात है कि हम इसके विपरीत काम कर रहे हैं, असंतोष की आवाज़ों को दबा रहे हैं जिनमें लोकतंत्र का दिल बसता हैं।

आत्मविश्वास से भरे राष्ट्रों को इस तरह के जुल्म करने की जरूरत नहीं है। सम्मान के नाम पर किसी माफी के मंत्र को लागू करना ठीक नहीं है। जब माफी मांगी जाती है, तो माफी का सार उसकी धारणा स्वेच्छा से सिकुड़ जाती है और वाष्प बन उड जाती है। यह नागरिक की नैतिक हद के खिलाफ जबरदस्ती का सौदा है। अच्छा होता अगर पीठ भूषण के उस बयान को ध्यान में रखती जिसमें उन्होने कहा था कि माफी "मेरे विवेक की अवमानना" होगी। हम सभी को वैसी ही जीना चाहिए और करना चाहिए जैसे हमारा विवेक कहता है।

समस्या हमारे सामंती ढांचे में है। सार्वजनिक कार्यालयों में अक्सर (गलत तरीके से) सार्वजनिक लोक सेवकों की बड़ी अहमियत होती है। जो लोग सार्वजनिक पद पर काम रहते हैं, वे उन संस्थानों के मामले में भ्रमित रहते हैं। एक मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न का  आरोप लगाना न्यायपालिका पर हमले के रूप में देखा गया था। तो यहाँ भी यह मामला कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। जनता की सेवा में उनकी भूमिका के मामले में न्यायाधीशों को खुद के आत्मनिरीक्षण की बहुत जरूरत है। औचित्य की सीमा के भीतर, उन्हें भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की वास्तविकता को स्वीकार कर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के साथ और विनम्रता के साथ एक ईमानदार संवाद की जरूरत है।

माफी मांगना कोई नुस्खा नहीं है। एक आम नागरिक जो एक अजीब महामारी के भयावह समय से गुजर रहा है, यहाँ हम हर सार्वजनिक अधिकारी की कुछ नैतिकताएं के बारे में कुछ सबक पेश कर रहे हैं:

1. उतना ही निवाला लें जितना कि आप चबा सकते हैं। 

2. अपनी स्वाभाविक सीमाओं से सावधान रहें।

3. आधिकारिक ताक़त से जनता को नीचा दिखाना कोई इलाज़ नहीं हैं, वह भी सोशल मीडिया के युग में ऐसा नहीं चलेगा।

4. कोई भी ढाल खंडित आंतरिक आवाज़ की रक्षा नहीं कर सकती है। आपके भीतर जो भी चल रहा वह अनचाहे तरीके से रेंगते हुए आपके मन की आंतरिक यादों में प्रकट हो जाता है।

5. जो सालन बत्तख के लिए काम करेगा वही हंस के लिए भी काम करेगा।

लॉर्ड सैल्मन ने, एजी बनाम ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग काउंसिल, 1981 के मामले में, "अदालत की अवमानना" शब्द को भ्रामक बताया था। "इसका उद्देश्य न्यायालय की गरिमा की रक्षा करना नहीं है, बल्कि न्याय प्रशासन की रक्षा करना है।"

यह एक अंतिम एसिड जांच है जो हमें खुद को आश्वस्त करने में मदद कर सकती है, जिसमें सार्वजनिक कार्यालय शामिल हैं। इससे माफी की मांग नहीं धुलेगी।

लेखक पूर्व सिविल सेवक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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