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क्या बिहार चुनाव में अंकगणित को केमिस्ट्री से पछाड़ा जा सकता है?

जातीय गणित के आधार पर प्रमुखता से स्थापित नैरेटिव के हिसाब से एनडीए अच्छा कर रही है, पर इस बात पर अब और भरोसा नहीं किया जा सकता। इस बात की प्रबल संभावना बनी हुई है कि बिहार के मतदाताओं की झोली से कहीं कुछ और ही आश्चर्यजनक चीज न निकल जाए।
बिहार चुनाव
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: डीएनए इंडिया

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में अब महज़ कुछ दिन ही रह गए हैं और आरंभ में जैसा अनुमान लगाया गया था, उसके विपरीत मुकाबला काफी कांटे का होने जा रहा है। कई पर्यवेक्षकों की नजर में आज से मात्र एक महीने पहले तक राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की स्थिति अजेय लग रही थी, लेकिन यह स्थिति तभी तक बनी रही जबतक कि गठबंधन अपनी शक्ल अख्तियार नहीं कर सका था और लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने राज्य में गठबंधन से अलग होने का फैसला नहीं कर लिया था।

चुनावी अंकगणित को देखते हुए हो सकता है कि मुकाबला एनडीए के पक्ष में नजर आ रहा हो, क्योंकि ऊँची जाति के मतदाताओं के बीच में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रभुत्व के साथ कुर्मी, कोयरी, महादलित एवं ओबीसी मतदाताओं में जेडी(यू) की अच्छी पकड़ है। यदि 2015 के चुनावों पर नजर डालें तो जेडी(यू) को तकरीबन 17% वोट, बीजेपी को 24% से ऊपर और एलजेपी को 4.83% वोट मिले थे। देखना यह है कि कागज पर मौजूद इन संख्याओं को अब वास्तव में वोटों में तब्दील किया जा सकता है या नहीं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तीन-बार की सत्ताविरोधी लहर के साथ साथ बिहार के लिए घरवापसी कर रहे प्रवासी मजदूरों के साथ हुए दुर्व्यवहार को लेकर उपजे गुस्से की चुनौती का सामना भी करना पड़ सकता है।

ऐसे में बेचैन नीतीश कुमार का अतीत में से लालू प्रसाद यादव के “जंगल राज” की यादों को ताजा करने की कोशिशें युवाओं के इस भारी-भरकम जनसांख्यकीय के आगे बेमानी जान पड़ती हैं। इसके साथ-साथ आरजेडी की समाजवादी छवि इस बात को पक्का करती है कि महागठबंधन के बीच में वैचारिक सामंजस्य और केमिस्ट्री बनी रहे। इस बात के बावजूद कि संख्याबल इसके पक्ष में नजर नहीं आता, इस बात की प्रबल संभावना नजर आ रही है कि आरजेडी के नेतृत्व वाला यह गठबंधन मतगणना वाले दिन बड़े-बड़े चुनावी पण्डितों को हैरानी में डाल सकता है।

रोजगार के अभाव के साथ अवसरों की कमी के चलते शहरी और ग्रामीण आबादी में मौजूद भारी संख्या में युवाओं के बीच में नीतीश कुमार के प्रति तीव्र विक्षोभ बना हुआ है, और ऐसे में इस बात की भी संभावना दिख रही है कि इस बार महागठबंधन को अपने पारंपरिक समर्थन आधार क्षेत्र से इतर भी बाकी के अन्य तबकों से वोट मिल सकते हैं।

इससे आगे बढें, इससे पहले हमें बिहार चुनाव से पूर्व के चुनावी रुझानों को एक बार याद कर लेना चाहिए जहाँ कुछ महीनों के भीतर ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव परिणामों में भारी उलटफेर दिखा है। हाल के कई विधानसभा चुनावों में एंटी-इनकम्बेंसी एक निर्णायक कारक के रूप में देखने को मिली है भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से जारी अपील के तौर पर इसके उपर काफी कुछ पोतने की कोशिश हुई हो। इसी प्रकार चुनावों तक आते-आते नीतीश कुमार की लोकप्रियता में भी भारी गिरावट देखने को मिली है जिसमें प्रवासी मजदूरों के पलायन, बाढ़ और कोरोनावायरस जैसे मुद्दों पर हस्तक्षेप या कहें कमी के चलते एक कुशल प्रशासक के तौर पर उनकी छवि को भारी बट्टा लगा है। “सुशासन बाबू” के तौर पर बड़ी मेहनत से निर्मित उनकी छवि को न सिर्फ विपक्ष द्वारा तार-तार किया जा रहा है बल्कि उनके नए दुश्मन के तौर पर एलजेपी के चिराग पासवान ने मुख्यमंत्री के खिलाफ जोरशोर से कीचड़ उछालने का काम शुरू कर दिया है।

शहर में पले-बढ़े चिराग पासवान भले ही राजनीति में अभी नौसिखिये और जांचे-परखे न गये हों, लेकिन उनके “सर्वप्रथम बिहार, बिहारी प्रथम” अभियान ने सभी सटीक बिन्दुओं को झंकृत करने का काम किया है और साथ ही वरिष्ठ पासवान के असामयिक निधन के चलते उन्हें कुछ अतिरिक्त सहानुभूति वोट भी मिलने की संभावना है।

एलजेपी के अलग से चुनाव लड़ने को लेकर दो अलग-अलग तरीके से व्याख्या की जा रही है: बीजेपी ने पहले से ही इस बात का अंदाजा लगा लिया था कि जमीनी स्तर पर इस बार आम लोगों के मन में नीतीश कुमार के खिलाफ विक्षोभ बना हुआ है। एलजेपी को यदि अलग से चुनावी मैदान में उतारा जाता है तो यह सत्तारूढ़दल विरोधी जन-आकांक्षाओं को बांटने में मददगार साबित हो सकता है, जिससे कि महागठबंधन इसके चुनावी उम्मीदों को कम से कम क्षति पहुँचाने में कामयाब हो सके। यह रणनीति नीतीश कुमार के कद को भी छोटा करने में मददगार साबित हो सकती है और संभवतः एक ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है जिसमें यदि अपने स्वंय के मुख्यमंत्री को बिठाना संभव हो सके तो यह सोने पर सोहागे जैसा होगा। जिस प्रकार से एलजेपी ने अपने सारे उम्मीदवारों को सिर्फ जेडी(यू) के खिलाफ ही उतारा है और बीजेपी के खिलाफ नहीं, उसे देखते हुए इस प्रकार के नतीजों से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हालाँकि काफी देर में जाकर बीजेपी के अंदर इस बात का एहसास होता दिख रहा है कि यदि पासवान के इन प्रयासों के नतीजे के तौर पर बेहद अहम दलित वोट सत्तारूढ़ गठबंधन से खिसक जाते हैं, तो यह दाँव उल्टा पड़ सकता है। हाल के दिनों में बीजेपी द्वारा अपनाई गई नई भाव-भंगिमा से इस बात को समझा जा सकता है।

जहाँ तक महागठबंधन का प्रश्न है तो ढलान पर जाती कांग्रेस को 70 और वाम दलों को 29 सीटें दिए जाने के प्रश्न पर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के तर्क सवालों के घेरे में बने हुए थे। ऐसा लगता है कि तेजस्वी यादव को गठबंधन में मौजूद जातीय-आधार पर बने सारे दलों को साथ में लेकर चलने की निरर्थकता का अहसास हो रहा था, जो कि चुनाव बाद के परिदृश्य में पहला मौका मिलते ही पाला बदलने में पारंगत हैं। यदि अतीत के चुनाव परिणामों का लेखा-जोखा करें तो उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश साहनी सहित इन जातीय आधार पर बनी पार्टियों के नेताओं में वास्तव में शायद ही अपनी-अपनी जातियों के वोटों को अपने पक्ष में बटोरने की क्षमता हो। कुशवाहा (कोईरी) आमतौर पर कुर्मी सामाजिक समूह के साथ मिलकर वोट करते हैं, जबकि मुकेश साहनी जिस निषाद समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसने पारंपरिक तौर पर बीजेपी को अपना मत दिया है। ये दल हो सकता है कि बीजेपी के आधारक्षेत्र में अभिवृद्धि करने में मददगार साबित हों, लेकिन रामविलास पासवान जैसा इन सबके पास अपना खुद का मजबूत वोट बैंक नहीं है।

यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों ने पिछले चुनाव में 18.35%, 6.6% से कुछ ज्यादा और 7% वोट हासिल करने में सफलता पाई थी। आरजेडी का कोर वोट चूँकि यादव-मुस्लिम संश्रय से निकलकर आता है, ऐसे में कांग्रेस के इस गठबंधन का भागीदार होने से यह सुनिश्चित हो जाता है इस वोट बैंक में किसी प्रकार के बंटवारे की गुंजाइश नहीं रही। इसके अतिरिक्त इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी से इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि उच्च जातियों एवं दलित वोटों में से भी वह कुछ वोटों को महागठबंधन की झोली में लाने में सफल हो जाए। वाम दलों के कुछ पॉकेट्स में ही उनके आधार क्षेत्र होने के बावजूद उनमें अपने वोटों को सहयोगी दलों को स्थानांतरित करने की क्षमता है, जोकि जातीय आधार पर गठित दलों में देखने को नहीं मिलती है। सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन जोकि 19 सीटों पर चुनाव लड रही है के बारे में माना जाता है कि आरजेडी और बीजेपी के बाद उसके पास ही बिहार में जमीनी स्तर पर सबसे बड़ा कैडरों का संख्याबल मौजूद है, जोकि गठबंधन के लिए किसी बहुमूल्य धरोहर से कम नहीं है।

मुकाबले में उपेन्द्र कुशवाहा के तौर पर मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में एक “तीसरा मोर्चा” भी मौजूद है, जिसे असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम [2015 में 0.21% वोट शेयर], बहुजन समाज पार्टी [2.07%], देवेन्द्र सिंह यादव की समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक (एसजेडीडी) को [0.01%] मत हासिल हुए थे। चर्चा इस बात को लेकर हो रही है कि क्या महागठबंधन की कीमत पर सीमांचल क्षेत्र में एआईएमआईएम को सफलता हाथ लग सकती है। यदि इस बेमेल संयोजन से कोई प्रभाव की उम्मीद की जा सकती है तो वह यह कि यह तीसरा मोर्चा जेडी(यू) के भी कुछ ओबीसी वोटों में सेंधमारी करने में कामयाब हो जाए।

चूँकि इस खेल में ऐसे ढेर सारे कारक मौजूद हैं जो अपना प्रभाव छोड़ रहे हैं, तो ऐसे में नतीजों को लेकर कोई अनुमान लगा पाना अभी संभव नहीं है। लेकिन एक बात जो तय है वह यह कि इस चुनाव के बाद का चरण ही असल में बेहद अहम है। ऐसे में विकल्प की तलाश में अनिश्चय में चल रहे मतदाताओं के लिए आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन के विकल्प को ही चुनना श्रेयस्कर होगा।

नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री पद की स्थिति अंतिम सीटों के गणना के बावजूद अविचारणीय बनी रहने वाली है। बीजेपी द्वारा अपने खुद के मुख्यमंत्री को स्थापित किये जाने संबंधी किसी भी प्रयास का नतीजा प्रमुख राजनीतिक उठापटक को जन्म देने में सक्षम है। ऐसे परिदृश्य में नीतीश कुमार के लिए खुद की धर्मनिरपेक्ष छवि की साख को ढूँढ निकालने का काम कोई खास मुश्किल वाला नहीं होना चाहिए।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार के साथ-साथ कोच्ची पोस्ट के पूर्व संपादक रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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