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2022 में महिला मतदाताओं के पास है सत्ता की चाबी

जहां महिला मतदाता और उनके मुद्दे इन चुनावों में एक अहम भूमिका निभा रहे हैं, वहीं नतीजे घोषित होने के बाद यह देखना अभी बाक़ी है कि राजनीतिक दलों की ओर से किये जा रहे इन वादों को सही मायने में ज़मीन पर उतारा जाता है या नहीं, रियायतों और मुफ़्त उपहारों की इन घोषणाओं को अमल में लाया जाता है या नहीं।
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हाल के दशकों में भारत के लोकतंत्र की सबसे सुखद घटनाओं में से एक महिलाओं की बढ़ती चुनावी भागीदारी और महिला मतदाताओं का बढ़ता असर रहा है। 1962 में पहली बार भारत के चुनाव आयोग की ओर से पुरुष और महिला मतदान के अलग-अलग आंकड़े उपलब्ध कराये गये थे। उस साल पुरुषों का मतदान 63.31% और महिलाओं का मतदान केवल 46.63% रहा था। 2019 तक आते-आते महिलाओं के मतदान में 20.55 प्रतिशत अंक की बढ़ोत्तरी हो गयी थी। इस बीच पुरुषों के मतदान में महज़ 3.71 प्रतिशत अंक की मामूली वृद्धि देखी गयी। साल 2019 इस लिहाज़ से एक अहम मोड़ था,क्योंकि लोकसभा चुनावों के इतिहास में यह पहला मौक़ा था, जब महिलाओं का मतदान पुरुषों के मतदान से ज़्यादा था। विधानसभा या राज्य विधानसभा चुनावों में महिलाओं के मतदान में तो और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी देखी गयी है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक़, 1962 और 2017/18 के बीच राज्य विधानसभा चुनावों में महिलाओं के मतदान में 27 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इन दो सालों में छह राज्यों- गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और कर्नाटक में चुनाव हुए। ग़ौरतलब है कि सभी राज्यों में महिलाओं के मतदान में हुई यह वृद्धि एक समान नहीं रही है। दरअसल, कुछ राज्यों में महिला मतदाताओं के मतदान में मामूली गिरावट भी दर्ज की गयी है।

इस साल जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें महिला मतदाताओं का बढ़ता मतदान और उनकी लगातार बढ़ती मुखरता एक आम घटनाक्रम है। त्रिवेदी सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल डेटा (TCPD) के लोकढाबा: इंडियन इलेक्शन डेटासेट दिखाता है कि पांच राज्यों में महिलाओं का यह मतदान किस तरह बढ़ा है। 50 सालों में उत्तर प्रदेश में महिला मतदान 39% के 20 प्रतिशत के अंक बढ़कर 59% हो गया है। इसी अवधि के दौरान पंजाब में महिला मतदान में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि पंजाब में पुरुष मतदान में महज़ आठ प्रतिशत की वृद्धि हुई। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में 2002-2017 के बीच ,यानी इन 15 सालों में महिला मतदाताओं के मतदान में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मणिपुर में महिलाओं का मतदान 1967 में 67.99% से लगभग 14 प्रतिशत अंक बढ़कर 2017 में 81.36% हो गया था। पिछले पांच दशकों में तटीय राज्य गोवा में महिलाओं के मतदान में 16.52 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है।

दिलचस्प बात यह है कि 2017 के चुनावों के आखिरी कड़ी में इन सभी पांच राज्यों - यूपी, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा और पंजाब में महिलाओं का मतदान पुरुषों के मतदान से ज़्यादा था। यह एक ऐसा रुझान है, जिसके जारी रहने की संभावना है। हक़ीक़त तो यही है कि महिलाओं के मतदान में और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी हो सकती है और इन राज्यों में चुनावी नतीजे पर महिलाओं का बहुत ज़्यादा असर पड़ने की संभावना है।

हालांकि, यहां एक सीमा का ख़्याल रखना ज़रूरी है। ठीक है कि भारत में महिलाओं के मतदान में वृद्धि हुई है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा महिलायें मतदान कर रही हैं, क्योंकि भारत में लिंगानुपात की स्थिति बहुत ख़राब है। हालांकि, मतदाताओं के बीच भारत के लिंगानुपात में भी सुधार हुआ है। मतदाताओं का लिंग अनुपात (SRV),यानी हर 1,000 पुरुष मतदाताओं पर महिला मतदाताओं की संख्या सही मायने में चुनावी भूमिकाओं में लिंगगत पूर्वाग्रह का आकलन करने के लिहाज़ से एक और अहम पैमाना है। जनसंख्या लिंग अनुपात (PSR) की तरह ही एसआरवी भी  प्रति 1,000 पुरुष मतदाताओं पर महिला मतदाताओं की वह संख्या है, जिसने वास्तव में अपना वोट डाला हो। वीमन वोटर्स इन इंडियन डेमोक्रेसी:ए साइलेंट रिवोल्यूशन नामक किताब के लेखक मुदित कपूर और शमिका रवि के एक अध्ययन के मुताबिक़, भारत के एसआरवी में 1960 के दशक में 715 से 2000 के दशक तक में 883 तक की उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है।

हाल के समय में महिला मतदाताओं ने चुनावी परिणामों को इस तरह प्रभावित किया है

महिला मतदाता के व्यवहार को लेकर एक लंबे समय से चली आ रही धारणा यह रही है कि भारत में महिलायें शायद ही कभी स्वतंत्र रूप से मतदान करती हैं और उनमें से ज़्यादातर वोट डालते समय अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के फ़रमानों या सनक और पसंदगी के सामने आत्मसमर्पण कर देती हैं। हालांकि, यह बात भारत के लोकतंत्र के शुरुआती दिनों में भले ही सच रही हो, लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। 2014 के चुनावों के लिए सेंटर फ़ॉर डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) की ओर से किये गये एक सर्वेक्षण से पता चला था कि 70% महिला मतदाताओं ने अपने पतियों से यह सलाह ही नहीं ली कि वोट किसे देना है। दशकों से भारत के चुनावों पर नज़र रखते रहे प्रणय रॉय और दोराब सोपारीवाला ने अपनी किताब द वर्डिक्ट: डिकोडिंग इंडियाज इलेक्शन में इस बात का आकलन किया है कि स्वतंत्र सोच वाली महिला मतदाताओं की संख्या सार्वजनिक रूप से एक फ़ील्डवर्कर,यानी क्षेत्र में कार्य करने वाली कार्यकर्ता के रूप में स्वीकार किये जाने वाली महिलाओं के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा.यानी 80% से भी ज़्यादा हो सकती है।

यह देखते हुए कि पुरुष और महिलायें किस तरह अलग-अलग और स्वतंत्र रूप से मतदान करते हैं, दोनों के बीच मतदान के पीछे के इरादे के विभिन्न स्तरों को भी देखा जाता है। किसी पार्टी के लिए यह अंतर 15% से 20% तक का हो सकता है। मतदान में यह लिंगगत अंतर चुनाव को पूरी तरह से बदल सकता है। यह एक ऐसा दिलचस्प आंकड़ा है, जो इस बात को साबित करता है कि महिला मतदाता किसी पार्टी की संभावनाओं को कितना प्रभावित कर सकती हैं। 2014 के चुनावों में पुरुषों के बीच यूपीए पर एनडीए की बढ़त 19% अंक की थी और महिलाओं के बीच यह बढ़त महज़ 9% अंक की थी। इन परिणामों और मतदान के स्वरूप का एक सरल स्वरूप इन दो स्थितियों को सामने लाता है: अगर सिर्फ़ पुरुषों ने ही मतदान किया होता, तो एनडीए ने जितनी सीटें जीती थीं, उससे वह 40 सीटें और ज़्यादा जीती होतीं। लेकिन,अगर सिर्फ़ महिलाओं ने मतदान किया होता, तो एनडीए को अपनी जीती गयी सीटों से 71 सीटें कम मिली होतीं,यानी बहुमत पाने के आंकड़े-272 से भी 7 सीटें कम। (स्रोत: द वर्डिक्ट: डिकोडिंग इंडियाज इलेक्शन एंड एग्जिट + पोस्ट पोल + 2014 में एनडीटीवी के लिए हंसा रिसर्च ग्रुप की ओर से किया गया ओपिनियन पोल।)

महिला मतदाताओं की संख्या में हो रही यह बढ़ोत्तरी और मतदान को लेकर स्वतंत्र फ़ैसला लेने वाली महिला मतदाताओं की ज़्यादा से ज़्यादा होती संख्या को देखते हुए पार्टियां और नेता महिला मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए अलग-अलग रणनीति अपना रहे हैं। अंतिम परिणाम को प्रभावित करने वाली महिला मतदाताओं के कुछ हालिया उदाहरण हैं- दिल्ली (2020), बिहार (2020) और पश्चिम बंगाल (2021) विधानसभा चुनाव। इनमें से हर एक चुनाव में महिला मतदाताओं ने मौजूदा पार्टी / सरकार के फिर से चुने जाने में अहम भूमिका निभायी है।

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी(AAP) की शानदार जीत के पीछे की ताक़त दिल्ली की महिला मतदाताओं की ओर से मिला भारी समर्थन ही थी। लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वेक्षण से पता चलता है कि महिलाओं ने अपने पुरुष समकक्षों के मुक़ाबले आम आदमी पार्टी को शायद ज़्यादा,यानी क्रमशः 60% और 49% वोट दिया हो । इस बड़े लिंगगत अंतर ने पार्टी को महिला मतदाताओं के बीच भाजपा पर लगभग 25 प्रतिशत अंकों की अजेय बढ़त दिला दी थी। पुरुषों के बीच भाजपा पर आम आदमी पार्टी की यह बढ़त महज़ 6 प्रतिशत अंक थी। पुरुषों और महिलाओं का यह उल्लेखनीय रूप से विपरीत मतदान पैटर्न सभी जातियों, वर्गों और आयु समूहों में देखा गया था। यह दलील भी दी जा सकती है कि अगर महिलाओं ने आम आदमी पार्टी को इतना भारी वोट नहीं दिया होता, तो पार्टी एक बहुत ही मामूली जीत हासिल कर पाती। आम आदमी पार्टी की सरकार ने महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए अपनी रणनीति में सारे पैंतरे आज़माये थे। केजरीवाल सरकार के शासनकाल में दिल्ली जेंडर बजटिंग पर केंद्र सरकार के 2012-13 के दिशानिर्देशों को लागू करने वाले शुरुआती राज्यों में से एक बन गयी थी। 2018-19 में दिल्ली का जेंडर बजट 8.6% (कुल बजट का) केंद्र सरकार के 5.1% के आवंटन के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा रहा। लेकिन, पूरे खेल को बदल देने वाला क़दम महिलाओं के लिए मुफ़्त बस यात्रा वाली वह बहुप्रचारित योजना थी, जिसका ऐलान चुनाव से कुछ महीने पहले किया गया था। सीएसडीएस के इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि जिन परिवारों ने इस योजना का लाभ उठाया था, उनके भाजपा के मुक़ाबले आम आदमी पार्टी को वोट देने की संभावना 42 प्रतिशत ज़्यादा थी। इसके उलट, आप उन परिवारों की महिलाओं के बीच 3 प्रतिशत अंक पीछे थी, जिन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिला था। पानी/बिजली बिल सब्सिडी, महिलाओं के लिए दूसरी मुफ़्त सुविधायें, राजधानी में सीएए-एनआरसी विरोध पर भाजपा के तीखे रुख ने आम आदमी पार्टी को दिल्ली की महिलाओं के बीच पसंदीदा पार्टी बना दिया था।

बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने 37.26% वोट हासिल किये और 125 सीटों के साथ एक मामूली जीत हासिल की। दिलचस्प बात यह है कि एनडीए की जीती गयी 125 सीटों में से 99 सीटें उन विधानसभा सीटों से मिली थी, जहां महिला मतदान पुरुष मतदान से ज़्यादा था। 166 निर्वाचन क्षेत्रों में जहां महिलाओं का मतदान पुरुषों के मतदान से ज़्यादा था, वहां भाजपा-जदयू ने 92 सीटें जीती थीं और एनडीए के अन्य छोटे घटक,यानी विकासशील इंसान पार्टी और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ने सात सीटें जीती थीं। राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई वाला गठबंधन उन 166 निर्वाचन क्षेत्रों में से महज़ 61 में ही जीत हासिल कर सका था, जहां महिलाओं का मतदान ज़्यादा था। बिहार के फ़ैसले का चरणबद्ध विश्लेषण हमें इस बात की बेहतर समझ देता है कि महिलाओं के मतदान ने उस नतीजे को किस तरह से प्रभावित किया था।

एकदम साफ़ हो जाता है कि हर एक चरण के बाद जैसे-जैसे महिला मतदान बढ़ता गया, वैसे-वैसे भाजपा-जद (यू) अपनी स्थिति को मज़बूत करती गयी। इसके ठीक उलट, राजद की अगुवाई वाले 'महागठबंधन' (MGB) ने चुनाव की शुरुआत तो धमाकेदार तरीक़े से की थी, लेकिन पहले चरण के बाद महिलाओं के मतदान में हुई बढ़ोतरी के चलते उसके मसूबे पर पानी फिर गया था। लेकिन, यह निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा कि एनडीए की डूबती नैया को महिला मतदाताओं ने उबार लिया था और नीतीश कुमार सत्ता विरोधी लहर से पार पाकर एक और कार्यकाल के लिए इसलिए चुन लिये गये थे कि महिलाओं का मतदान ज़्यादा हुआ था। जिस तरह आस-पास की लड़ाई वाला चुनाव बिहार का था,उस तरह के चुनाव अक्सर राजनीतिक पंडितों को परस्पर विरोधी टिप्पणियों और स्पष्टीकरणों की ओर ले जाते हैं।

पिछले दो चरणों में एनडीए और एमजीबी की इस अलग-अलग जीत को 'जंगल राज' के आह्वान और दूसरे और तीसरे चरण के मतदान से पहले नीतीश कुमार की ओर से की गयी भावनात्मक अपील से भी जोड़ा जा सकता है। हो सकता है कि आख़िरी नतीजे अलग-अलग कारकों के बीच के सम्बन्धों से तय हुआ हो,मसलन- नीतीश की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण, साइकिल योजना, स्नातक तक छात्राओं के लिए लाभ, सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35% आरक्षण जैसी महिला समर्थक नीतियां,राज्य और केंद्र सरकार की प्रत्यक्ष नकद लाभ योजनाओं, शराबबंदी (जैसे-तैसे लागू किये जाने के बावजूद) के साथ-साथ 'जंगल राज' की वापसी का डर, और इस चुनाव को लेकर ‘अंतिम चुनाव’ होने के रूप में की गयी नीतीश की भावनात्मक अपील।

महिला मतदाता सामूहिक रूप से मतदान नहीं करतीं

साल 2021 के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस पार्टी की प्रचंड जीत के पीछे महिला मतदाता भी एक कारण थीं। सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वेक्षण के मुताबिक़, टीएमसी को महिलाओं के बीच भाजपा से 13 प्रतिशत अंक की बढ़त हासिल थी। पुरुषों के बीच टीएमसी की बीजेपी पर बढ़त सिर्फ़ छह प्रतिशत अंक की थी। हालांकि, आम धारणा के उलट महिलाओं ने सामूहिक रूप से मतदान नहीं किया था। पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से पता चलता है कि महिलायें सामूहिक रूप से या एकजुट होकर मतदान नहीं करती हैं। सीधे-सीधे शब्दों में अगर कहा जाये,तो उनके बीच जाति, वर्ग और धार्मिक पहचान भी मायने रखती हैं। हालांकि, टीएमसी को महिलाओं के बीच भाजपा से 13 प्रतिशत अंक की बढ़त थी, लेकिन ओबीसी महिलाओं के बीच भाजपा को टीएमसी पर 18 प्रतिशत की बढ़त हासिल थी। दलित महिलाओं के बीच भी भगवा पार्टी की टीएमसी पर 15 प्रतिशत अंकों की बढ़त थी। बीजेपी के हिंदुत्व से भरे स्वर और टीएमसी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी दलित और ओबीसी महिलाओं के बीच टीएमसी की संभावनाओं को चोट पहुंचायी थी। महिला मतदाताओं के बीच टीएमसी के अच्छे प्रदर्शन के संभावित कारण थे- कन्याश्री, रूपश्री जैसी महिला समर्थित कल्याणकारी योजनायें, परिवारों की महिला मुखिया को मासिक नक़द भुगतान वाला घोषणापत्र और महिला मतदाताओं के बीच टीएमसी और ममता की मज़बूत अपील।

महिलाओं के वोटिंग पैटर्न में इस अंतर को अलग-अलग आय समूहों में भी देखा गया। ग़रीब महिलायें, जो कि ममता बनर्जी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की प्राथमिक लाभार्थी थीं,उनके टीएमसी को वोट देने की संभावना ज़्यादा थी। ममता बनर्जी की टीएमसी को ग़रीब महिलाओं के बीच बीजेपी पर 18 फ़ीसदी, निचले वर्ग की महिलाओं में 22 फ़ीसदी अंक, लेकिन मध्यम वर्ग की महिलाओं में सिर्फ़ तीन फ़ीसदी की बढ़त हासिल थी। अमीर या उच्च वर्ग की महिलाओं के बीच भाजपा को टीएमसी पर दो प्रतिशत अंक की बढ़त हासिल थी।

2022 में महिला मतदाताओं को लुभा रही पार्टियां

महिलाओं के मतदान में लगातार हो रही इस बढ़ोत्तरी को लेकर पार्टियां और नेता अब महिला मतदाताओं की ज़रूरतों और मांगों को लेकर नज़रें नहीं फेर सकते। नतीजतन, पार्टियां विभिन्न योजनाओं, रणनीतियों के साथ आ रही हैं, और उनके घोषणापत्र में महिला मतदाताओं का विश्वास जीतने का वादा किया जा रहा है। इस चुनावी मौसम में भी पार्टियां महिला वोटरों को रिझाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही हैं।

तटीय राज्य गोवा उन राज्यों में से एक है, जहां पुरुषों के मुक़ाबले महिला मतदाताओं की संख्या ज़्यादा है। गोआ में मौजूदा भाजपा सरकार महिला मतदाताओं के वोटों पर पकड़ बनाये रखने को लेकर गृह आधार योजना और लाडली लक्ष्मी योजना जैसी नक़द हस्तांतरण योजनाओं पर भरोसा कर रही है। इस पार्टी ने हर घर में तीन मुफ़्त एलपीजी सिलेंडर और महिलाओं के लिए 2% ब्याज़ पर होम लोन दिये जाने का भी वादा किया है। सत्ताधारी पार्टी की ओर से किये जा रहे इसी तरह के कुछ वादों में सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण और हर एक तालुका में महिला पुलिस स्टेशन जैसे वादे भी हैं।

गृह आधार योजना के तहत 3 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाली किसी भी विवाहित महिला को हर एक माह 1,500 रुपये दिये जाते हैं। आम आदमी पार्टी ने वादा किया है कि इस योजना के तहत दी जाने वाली राशि को 1,500 रुपये से बढ़ाकर 2,500 रुपये कर दिया जायेगा। इस पार्टी ने 18 साल से ज़्यादा उम्र की सभी महिलाओं को 1,000 रुपये प्रति माह दिये जाने का भी वादा किया है। लेकिन, सबसे बड़ा वादा तो गोआ के चुनाव में अभी-अभी दाखिल हुई तृणमूल कांग्रेस की ओर से आया है। तृणमूल कांग्रेस ने अपना वह गृह लक्ष्मी कार्ड शुरू करने का ऐलान कर दिया है, जिसके तहत हर घर से एक-एक महिला को 5,000 रुपये देने का वादा किया है,जिसमें यह ख़्याल भी नहीं रखा जायेगा कि उनकी मासिक आय कितनी है। कांग्रेस ने महिलाओं के लिए 30% सरकारी नौकरियां आरक्षित करने का वादा किया है।

पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में अपने चुनावी जंग की शुरुआत कर रही आम आदमी पार्टी ने 18 साल से ज़्यादा उम्र की महिलाओं को 1,000 रुपये देने का वादा किया है। महिला मतदाताओं तक पहुंच बनाने के लिए मौजूदा भाजपा ने गर्भवती महिलाओं को 40,000 रुपये और ग़रीब परिवारों की महिला मुखिया को 500 रुपये प्रति माह की वित्तीय सहायता का वादा किया है। पार्टी ने यह भी कहा है कि अगर वह फिर से चुन ली जाती है, तो वह महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए 500 करोड़ रुपये अलग से आवंटित करेगी। गोवा की ही तरह इस पार्टी ने भी यहां तीन मुफ़्त एलपीजी सिलेंडर देने का वादा किया है। चुनाव से चंद महीने पहले सरकार ने सीएम घसियारी योजना शुरू की थी, जिसके तहत पहाड़ियों में महिलाओं को चारा इकट्ठा करने के लिए एक किट दी जाती है। अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कई वादे कियें हैं,मसलन-महिला मतदाताओं के लिए मुफ़्त सार्वजनिक परिवहन, एलपीजी सिलेंडर की क़ीमत को 500 रुपये तक घटाना, पुलिस बल में महिलाओं के लिए 40% नौकरियां और राज्य में आंगनबाडी कार्यकर्ताओं के वेतन में 150% का इज़ाफ़ा।

नेशनल पीपुल्स पार्टी ने मणिपुर के लिए जारी अपने घोषणापत्र में कहा है कि अगर वह सत्ता में आती है, तो वह मातृत्व अवकाश को नौ महीने तक बढ़ा देगी, महिला एसएचजी को शून्य ब्याज पर क़र्ज़ देगी और एलजीबीटीक्यूआईए (समलैंगिक महिला, समलैंगिक पुरुष, उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, असामान्य, इंटरसेक्स,यानी कि ऐसा व्यक्ति जिसका शारीरिक, हार्मोनल या जेनेटिक सेक्स न तो पूरी तरह पुरुष वाला है और न ही महिलाओं वाला, अलैंगिक) समुदाय की चिंताओं को व्यापक रूप से हल किये जाने को लेकर एक लैंगिक न्याय आयोग(Gender Justice Commissions) की स्थापना करेगी। राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने कहा है कि अगर वह चुनी जाती है, तो वह महिलाओं के लिए 33% सरकारी नौकरियां आरक्षित करेगी। सत्तारूढ़ भाजपा ने महिला मतदाताओं पर व्यापक रूप से ध्यान केंद्रित किया है और पार्टी के शीर्ष आलाकमान ने पार्टी कार्यकर्ताओं को राज्य और केंद्र सरकार की ओर से राज्य में किये गये कार्यों को महिला मतदाताओं तक पहुंचाने का निर्देश दिया है। दिलचस्प बात यह है कि जनवरी में मणिपुर में सत्तारूढ़ भाजपा की पहली महिला प्रदेश अध्यक्ष शारदा देवी ने कहा था कि पार्टी राज्य में 33% महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की कोशिश करेगी। हालांकि, पार्टी की आख़िरी सूची में महज़ 3 (यानी कुल उम्मीदवार का महज़ 5%) महिला उम्मीदवार ही हैं।

आम आदमी पार्टी ने जैसे ही इस बात का ऐलान किया कि अगर वह पंजाब में जीतती है,तो हर महिला को 1,000 रुपये दिये जायेंगे, वैसे ही कांग्रेस नेता और पीपीसीसी प्रमुख नवजोत सिद्धू ने इस घोषणा को "लॉलीपॉप" और "भीख" क़रार दिया और आम आदमी पार्टी पर मतदाताओं को बेवकूफ़ बनाने का आरोप मढ़ दिया। लेकिन,एक महीने बाद ही सिद्धू ने पलटी मारते हुए महिला मतदाताओं के लिए कई मुफ़्त उपहारों की घोषणाओं की झड़ी लगा दी। इन वादों में थे- हर महीने 2,000 रुपये और गृहणियों के लिए साल में आठ गैस सिलेंडर, इलेक्ट्रिक स्कूटर और कॉलेजों में दाखिला ले रहीं बारहवीं कक्षा पास छात्राओं को आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए 20,000 रुपये, दसवीं कक्षा पास करने वाली लड़कियों को 15,000 रुपये और कक्षा पांचवीं पास करने वाली लड़कियों को 5,000 रुपये।

पिछले साल कांग्रेस ने उस समय यह ऐलान करके बाक़ी पार्टियों के लिए मुसीबत खड़ा कर दी थी कि वह उत्तर प्रदेश चुनावों में 40% महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी। इस सबसे पुरानी पार्टी ने महिला मतदाताओं पर ही राज्य में अपनी वापसी की तमाम उम्मीदें टिका दी हैं। इस राज्य में पार्टी का चेहरा बनीं प्रियंका गांधी वाड्रा ने चुनावों में महिलाओं तक पहुंचने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किये हैं और उन तक पहुंचने के लिए कई घोषणायें भी की हैं,मसलन-सरकारी नौकरियों में 40% आरक्षण, हर थाने में महिला कांस्टेबलों की तैनाती, मनरेगा की नौकरियों में महिलाओं को प्राथमिकता, महिला चौपालों की स्थापना, मुफ़्त गैस सिलेंडर, आशा और आंगनबाडी कार्यकर्ताओं के वेतन में इज़ाफ़ा। इस दौड़ में भाजपा भला क्यों पीछे रहती। भाजपा भी इन राज्यों में महिला मतदाताओं तक पहुंच रही है और उनका वोट हासिल करने के लिए महिला केंद्रित कल्याणकारी योजनाओं की एक श्रृंखला पर भरोसा कर रही है। इस पार्टी ने ग़रीब लड़कियों की शादी के लिए 25,000 रुपये और महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए 5,000 करोड़ रुपये के आवंटन का वादा किया है। इस भगवा पार्टी ने निराश्रित महिलाओं को 1,500 रुपये मासिक पेंशन देने का भी वादा किया है। महिला मतदाताओं तक पहुंच बनाने को लेकर आयोजित कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में भाजपा ने कमल सहेली क्लबों का गठन किया है और महिला सम्मेलनों का आयोजन किया है।

यूपी में बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी भी सक्रिय रूप से इन महिला मतदाताओं को साधने में लगी हुई है। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया है कि "नये सपा" में अब एम-वाई (मुस्लिम-यादव गठबंधन का जो संदर्भ पार्टी से जुड़ा रहा है) का मतलब महिला और युवा है।पार्टी ने जो वादे किये हैं,उनमें हैं- नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण, महिलाओं के लिए हेल्पलाइन, केजी स्तर से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन तक की मुफ़्त शिक्षा, नये रंग-रूप में कन्या विद्या धन योजना, जिसके तहत लड़कियों को 12वीं कक्षा पास करने के बाद 36 हज़ार रुपये की एकमुश्त राशि दी जायेगी,और ‘समाजवादी पेंशन योजना”,जिसके तहत बीपीएल महिलाओं को हर साल 18,000 रुपये की पेंशन मिलेगी।

महिलाओं के मतदान में हो रही इस बढ़ोत्तरी के साथ ही पार्टियां अब महिला मतदाताओं की ज़रूरतों और मांगों को पूरा करने के लिए मजबूर हो गयी हैं। जहां महिला मतदाता और उनके मुद्दे इन चुनावों में एक अहम भूमिका निभा रहे हैं, वहीं यह देखना अभी बाक़ी है कि राजनीतिक दलों की ओर से किये जा रहे इन वादों को नतीजे घोषित होने के बाद सही मायने में ज़मीन पर उतारा जाता है या नहीं, या फिर रियायतों और मुफ़्त उपहारों की इन घोषणाओं को अमल में लाया जाता है या नहीं।

लेखक बॉम्बे स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार और मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति, चुनाव विज्ञान और पत्रकारिता से लेकर भारत के क्षेत्रीय सिनेमा तक में है। इनका ट्वीटर एकाउंट @Omkarismunlimit है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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