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राजस्थान : चुनाव में महिला सुरक्षा कितना बड़ा मुद्दा?

तमाम रैलियों, पोस्टरों और भाषणों के केंद्र में इस बार महिलाएं भी हैं। हालांकि आम महिलाओं का कहना है कि राज्य में सरकारें ज़रूर पांच साल के बाद बदल जाती हैं। लेकिन महिला सुरक्षा में कोई बदलाव नहीं आता।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : पत्रिका

राजस्थान के विधानसभा चुनाव में अब महज़ कुछ ही दिनों का समय बचा है। ऐसे में सभी पार्टियां अपनी पुरजोर कोशिश से वोटरों को लुभाने की जुगत में लगी हैं। तमाम रैलियों, पोस्टरों और भाषणों में केंद्र में इस बार महिलाएं भी हैं। सत्ता पक्ष कांग्रेस जहां उनकी मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा, मोबाइल और बस सेवा का गुणगान कर रही है। तो वहीं विपक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी जोर-शोर से उनकी सुरक्षा को लेकर गहलोत सरकार पर निशाना साध रही है।

बता दें कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संसद के बाहर मणिपुर में जारी हिंसा पर काफ़ी समय के बाद बोले तो, उसमें भी उन्होंने राजस्थान का जिक्र किया था। राज्य में बीजेपी पहले ही इस मुद्दे पर अशोक गहलोत सरकार को सदन के अंदर और बाहर कई बार कटघरे में खड़ा कर चुकी है। ऐसे में तमाम पक्ष-विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप के बीच न्यूज़क्लिक ने कोशिश की राजस्थान की स्थानीय महिलाओं से जानने की, कि चुनाव के लिहाज से उन्हें ये मुद्दा कितना बड़ा और जरूरी लगता है।

महिला सुरक्षा की तस्वीर में कोई ख़ास अंतर नहीं

राजस्थान का अज़मेर सेक्स स्कैंडल के लिए 1992 के बाद अब 2023 में इस पर बनी फिल्म के लिए सुर्खियों में आया। यहां की ज्यादातर महिलाएं आज भी आपको घूंघट में ही नज़र आएंगी। उनका कहना है कि ऐसा नहीं करने पर उनके घर के पुरुष उन पर गुस्सा करते हैं। हालांकि ये घूंघट की आड़ भी यहां महिलाओं अत्याचार या दुष्कर्म से नहीं बचा पाती। उनका कहना है कि 1992 के बाद स्थानीय स्तर पर बहुत कुछ बदला लेकिन महिला सुरक्षा की तस्वीर में कोई खास अंतर नहीं आया।

एक स्थानीय आम महिला सुदेश दलाल बताती हैं कि राज्य में सरकारें जरूर पांच साल के बाद बदल जाती हैं। लेकिन महिला सुरक्षा में कोई बदलाव नहीं आता। और इसका सबसे बड़ा कारण भी शासन-प्रशासन ही है। सुदेश के मुताबिक जिनकी पुलिस में जान-पहचान होती है या जो नेता लोगों को जानते हैं, उनके खिलाफ शिकायत दर्ज करवाना भी इतना आसान नहीं है।

हालांकि सुदेश ये भी मानती हैं कि अब सोशल मीडिया पर मामला उठने के बाद तुरंत कार्यवाई जरूर होती है। पहले ऐसा साधन नहीं था, तो जितनी मर्जी शिकायत कर लो कोई जल्दी नहीं सुनता था। वो हाल ही में घटित नाबालिग लड़की के कथित सामूहिक बलात्कार के बाद ईंट पकाने वाले भट्ठे में ज़िंदा जला देने वाली घटना का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि जैसे मामला ऊपर पहुंचा तुरंत गिरफ्तारी हुई, नहीं तो कोई सुनवाई तक नहीं थी।

आंकड़े क्या कहते हैं?

ध्यान रहे कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के ताज़ा आंकड़े के अनुसार, राजस्थान में साल 2020 में सबसे अधिक बलात्कार के पुलिस मामले दर्ज किए गए। हालांकि जनसंख्या के आधार पर अपराधों की संख्या प्रति लाख के हिसाब से देखने पर राजस्थान का नाम असम, हरियाणा और दूसरे कई राज्यों की तुलना में बहुत नीचे आता है। सत्ता पक्ष के साथ ही राजस्थान के कई कार्यकर्ताओं का कहना है कि बलात्कार के बढ़ते मामले दरअसल पुलिस केस दर्ज होने में आसानी का नतीजा हैं। लेकिन बीजेपी इसे कांग्रेस की कानून व्यवस्था में नाकामी छुपाने का बहाना बताती रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बलात्कार के सभी मामलों में एफ़आईआर दर्ज कर पाना अब भी उतना आसान नहीं है, जितना बताया जा रहा है।

पुलिस की मौजूदगी के बावजूद राजस्थान के कई गांवों में आज भी नाता प्रथा और सती का महिमामंडन करने वाले 'चुनरी महोत्सव' का भी आयोजन होता है। कई महिलाओं की मानें तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों मुख्य राजनीतिक दलों और दूसरी पार्टियों के नेता भी कई बार इन प्रथाओं के उत्सव में शामिल होते हैं। क्योंकि यहां उन्हें वोट बैंक नज़र आता है। और अक्सर सब कम्युनिटी के मामलों को लेकर एक ही हो जाते हैं।

आपको कांग्रेस से निलंबित नेता राजेंद्र गुढ़ा का सदन में बयान तो याद ही होगा। जिन्होंने मणिपुर पर सदन में बहस के दौरान कह दिया था कि दूसरों पर उंगली उठाने से पहले हमें अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए। वहीं मंत्रिमंडल में वरिष्ठ नेता शांति धारीवाल पहले बयान दे चुके हैं कि ये मर्दों का प्रदेश है। जाहिर है इन नेताओं की ऐसी मानसिकता भी महिला सुरक्षा के लिए एक बड़ा रोड़ा है।

महिला सुरक्षा पर ज़्यादा चर्चा नहीं

बीकानेर की रीता विश्नोई बताती हैं कि ठेठ राजस्थानी घरों में वैसे भी महिलाओं को ज्यादा बाहर निकलने की आजादी नहीं है। उन्हें अभी भी पारंपरिक माहौल में ही रखा जाता है। लेकिन जब ऐसी-वैसी कोई बात हो जाती है, तो इसका असर और भी घरों पर पड़ता है। पंचायतों में तरह-तरह की बातें होती हैं। घरों में और पाबंदियां लगा दी जाती हैं और कहीं जाने के लिए साथ में पुरुषों का ही सहारा लेना होता है।

हालांकि रीता ये भी कहती हैं कि यहां चुनाव में महिला सुरक्षा कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनेगा। क्योंकि ज्यादातर घरों, पंचायतों या चौपालों में इन सब पर कोई चर्चा नहीं करता। यहां तो मेन मुद्दा खेती-किसानी, पानी-बिजली सड़क यही सब है। महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध या बलात्कार का कोई जल्दी नाम भी नहीं लेता। ये बस नेताओं के भाषण में सुनने को मिल जाएगा लोगों की जुबान पर तो सवाल पूछने पर ही बाहर आएंगे। ऐसे कोई बात नहीं करेगा।

गौरतलब है कि राजस्थान में आए दिन महिला अपधारों की सुर्खियां अखबारों के पन्ने पर तो छप जाती है। लेकिन इसे लोगों के बीच कितनी गंभीरता से लिया जाता है ये स्पष्ट नहीं है। राज्य की गहलोत सरकार ने भले ही ये ऐलान कर दिया हो कि महिलाओं से छेड़छाड़ और दुष्कर्म के मामले में आरोपी व्यक्तियों को राजस्थान में सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। लेकिन इसका भी असर अपराधियों पर दिख रहा हो, ऐसा दिन-प्रतिदिन बढ़ती घटनाओं को देखकर तो कतई नहीं लगता। राजस्थान की ज्यादातर महिलाओं को भी यही लगता है कि यहां महिला सुरक्षा से कई गुना बड़ा मुद्दा युवाओं की बेरोज़गारी, पेपर लीक और महिलाओं के लिए बिजली पानी की सुविधाएं हैं।

बहरहाल, राज्य में हर पांच साल बाद सरकार बदलने की रिवायत है, जिसे साल 1993 से ही देखा जा रहा है। ऐसे में गहलोत सरकार के सामने कई चुनौतिया हैं तो वहीं सत्ता विरोधी लहर की भावना भी। वहीं विपक्ष अपनी ओर से इस चुनाव को जीतने और मौजूदा सरकार को घेरने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता। और शायद यही वजह है कि महिला सुरक्षा का मुद्दा बीजेपी जोर-शोर से उठा रही है।

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