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26 नवंबर: भारत में दुनिया की सबसे बड़ी श्रमिक हड़ताल

तक़रीबन 25 करोड़ (250 मिलियन) कर्मचारी हड़ताल पर हैं और लाखों किसान विरोध में शामिल हैं।
हड़ताल

भारत में 26 नवंबर की आधी रात के बाद से 25 करोड़ (250 मिलियन) कामगारों और कर्मचारियों ने अनुमानित रूप से दुनिया भर में कहीं भी कई संगठनों की एक साथ हुई अबतक की सबसे बड़ी आम हड़ताल कर दी है। इस हड़ताल से बैंकों, वित्तीय सेवाओं, विभिन्न सरकारी सेवाओं,परिवहन, इस्पात इकाइयों, बंदरगाह और गोदी, दूरसंचार सेवाओं,खेती-बाड़ी, बिजली उत्पादन इकाइयों, कोयला और अन्य खदानों, तेल और प्राकृतिक गैस उत्पादन इकाइयों, और लाखों दूसरे अलग-अलग उद्योगों के काम-काज ठप पड़ गये है।

इस हड़ताल से सरकारी कार्यालयों, रेलवे, डाक और टेलीग्राफ़ सेवाओं और अन्य सरकारी दफ़्तरों के काम-काज पर भी असर पड़ने की संभावना है, क्योंकि कर्मचारी इस हड़ताल में अपनी एकजुटता दिखायेंगे। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता / सहायिका, स्वस्थ्य सेवा कार्यकर्ता, मिड-डे मील बनाने वाली और अन्य सरकारी योजनाओं में काम करने वाली कई लाख महिलायें भी हड़ताल पर चली गयी हैं।

इस बीच, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश (सभी भाजपा शासित राज्यों) जैसी कई राज्य सरकारों के बावजूद देश भर के किसान विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं,इन राज्यों की सरकारों ने आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली तक पहुँचने से रोकने के लिए राजमार्गों को बंद कर दिया है और सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया है,जहां बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन की योजना बनायी गयी है।

रिपोर्टों से पता चलता है कि इस समय किसानों की तरफ़ से राजधानी जाने वाले सभी आठ राजमार्गों की अवरुद्ध कर दिये जाने के बावजूद हजारों किसान दिल्ली की तरफ़ कूच करने में कामयाब रहे हैं और ये किसान  26 और 27 नवंबर को संसद के पास होने वाले धरना-प्रदर्शन में शामिल होंगे।

ट्रेड यूनियनों की ताकत के आधार पर अलग-अलग स्तर के प्रभाव के साथ देश के सभी राज्यों में हड़ताल शुरू हो गयी है। हड़ताल का आह्वान करते हुए 10 सबसे बड़े ट्रेड यूनियन एक संयुक्त मंच के तहत इकट्ठे हुए हैं,सिर्फ़ वे कामगार ही इस हड़ताल से अलग हैं,जो सत्ताधारी पार्टी से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) से जुड़े हुए हैं, हालांकि रिपोर्टों से पता चलता है कि कई जगहों पर उन्होंने भी हड़ताल पर गये अपने साथी कामगारों के साथ शामिल होने का फ़ैसला कर लिया है।

भारत के सबसे बड़ी ट्रेड यूनियनों में से और संयुक्त मंच का हिस्सा,भारतीय व्यापार यूनियन्स (सीटू) के महासचिव,तपन सेन ने कहा,“कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, ओडिशा और अन्य कई राज्यों में इस हड़ताल अभियान को लेकर ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई है, और हम उम्मीद कर रहे हैं कि इस बार कहीं ज़्यादा कर्मचारी इस हड़ताल में शामिल होंगे, यह तादाद उससे भी कहीं ज़्यादा होगी,जो इस साल की शुरुआत में 8 जनवरी को हुई हड़ताल में भाग लेने वालों की संख्या थी।”

उन्होंने आगे बताया,“तमिलनाडु में आये निवार चक्रवात के चलते जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है और कई ज़िलों ने आधिकारिक तौर पर छुट्टी घोषित कर दी है।”

सीटू ने अपने एक बयान में हरियाणा और पंजाब, दिल्ली, आदि के बीच सीमाओं को सील करने को लेकर भाजपा की अगुवाई वाली हरियाणा सरकार की निंदा की है,क्योंकि इसने राष्ट्रीय राजधानी में विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए अपने गांवों से कूच चुके किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने से रोक दिया है।

सीटू ने इस कार्रवाई को “पूरी तरह ग़ैरक़ानूनी,असंवैधानिक और निरंकुश” बताते हुए कहा है कि पुलिस ने आधी रात को किसानों के घरों पर छापा मारा है और हरियाणा में सैकड़ों किसानों को गिरफ़्तार कर लिया गया है।

सीटू ने "26 नवंबर को हड़ताल को कमज़ोर करने" को लेकर ओडिशा की राज्य सरकार के राज्य में आवश्यक सेवा रखरखाव अधिनियम (ईएसएमए) के ऐलान की भर्त्सना की है।

विश्वविद्यालय के शिक्षकों, छात्रों, कलाकारों, इंजीनियरों, डॉक्टरों, वक़ीलों, महिला संगठनों सहित जीवन के दूसरे क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई दूसरे संगठनों ने भी इस हड़ताल का समर्थन कर दिया है। देश भर में सड़क पर अपनी दुकाने लगाने वालों, अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों, निर्माण श्रमिकों और अन्य वर्गों के संगठन भी हड़ताल में शामिल हो रहे हैं।

इस हड़ताल का आह्वान नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा सुरक्षात्मक श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने,न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोत्तरी पर बातचीत करने से इंकार करने, बेरोज़गारी और नौकरी की असुरक्षा बढ़ाने,आसमान छूती क़ीमतों, कई सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को निजी संस्थाओं को बेच देने,रक्षा और अंतरिक्ष सहित कई क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के आमंत्रण, और हाल ही में लॉकडाउन के दौरान एक बुरी तरह से ध्वस्त होने का सामना करती और डूबती अर्थव्यवस्था में आय समर्थन के दिये जाने से इनकार के ख़िलाफ़ किया गया है।

इस हड़ताल की पूर्व संध्या पर 25 नवंबर को सैकड़ों औद्योगिक क्षेत्रों,श्रमिक बस्तियों, मलिन बस्तियों और दूसरे प्रमुख जगहों पर मजदूरों की रैलियों और मशाल जुलूसों का आयोजन किया गया और प्रमुख स्थानों पर इनकी मांगों के समर्थन में रैलियां निकाली गयीं।

केरल के हर इलाक़े में इस तरह की एकजुटता वाले जुलूस देखे गये हैं,जबकि पश्चिम बंगाल में किसानों के संयुक्त मोर्चे की तरफ़ से ग्रामीण बंद (ग्रामीण हड़ताल) का आह्वान किया गया है। दोनों ही राज्यों में वामपंथी ट्रेड यूनियनों और किसानों या कृषि कामगारों के संगठनों की मौजूदगी बेहद मज़बूत है।

मोदी सरकार द्वारा हाल ही में पारित किये गये उन तीन क़ानूनों से किसान नाराज हैं, जो एक साथ खेती (ठेके पर खेती बाड़ी), व्यापार, भंडारण और स्टॉक होल्डिंग, और यहां तक कि मूल्य निर्धारण में कॉर्पोरेट संस्थाओं के दाखिल हने के साथ-साथ कृषि में कोर्पोरेट को क़ायम करने वाले हैं। किसानों को इस बात का डर है कि इसका मतलब क़ीमतों को लेकर राज्य से जो समर्थन मिल रहा था,वह ख़ात्म हो जायेगा और इन क़ानूनों का मतलब यही है कि उन्हें बड़े व्यापारियों की दया के हवाले कर दिया जायेगा।

इस साल की यह दूसरी हड़ताल है और 2014 में मोदी ने जब से प्रधानमंत्री का पद संभाला है,तब से यानी पिछले छह सालों में यह पांचवीं हड़ताल है। इस अवधि के दौरान श्रमिकों के अधिकारों और जीवन स्तर पर क़रारे हमले किये जाते रहे हैं,क्योंकि सरकार ने भारत को विकसित देशों के साथ और ज़्यादा विनियमित करने और एकीकृत करने को लेकर नीतियों की एक श्रृंखला को आगे बढ़ाया है।

इसका मतलब न सिर्फ़ 8 घंटे के कार्य दिवस, या न्यूनतम मज़दूरी के तर्कसंगत निर्धारण जैसे बुनियादी अधिकारों का क्षरण है, बल्कि संगठित और विरोध के अधिकार से भी उन्हें वंचित कर दिया जाना है। नियोक्ताओं के लिए निश्चित अवधि के रोज़गार को एक आकर्षक विकल्प के तौर पर पेश कर दिया गया है, इससे नौकरी की सुरक्षा काफ़ी कम हो गयी है और काम के कार्य-अवधि की अस्थिरता भी बढ़ गयी है। सामाजिक सुरक्षा के विस्तार तो दूर की बात है,बल्कि वास्तव में राज्य द्वारा संचालित चिकित्सा और भविष्य निधि योजनायों को भी बाज़ार उन्मुख बदलावों से जोड़ दिया गया है।

चूंकि इन नीतियों को भारत में आय और धन की बढ़ती ग़ैर-बराबरी के संदर्भ में देखा जाता हैं, लिहाज़ा इन नीतियों के ख़िलाफ़ लोगों में व्यापक ग़ुस्सा और असंतोष है। ट्रेड यूनियन इन नीतियों के खिलाफ एक अथक लड़ाई लड़ते रहे हैं और उनके निरंतर प्रयासों के अच्छे नतीजे भी सामने आये हैं, क्योंकि प्रत्येक बीतते साल के साथ उनके आंदोलनों का समर्थन बढ़ रहा है।

हाल ही में लॉकडाउन के चलते कम वेतन पा रहे अनौपचारिक या छोटे स्तर के सेक्टर और सेवा क्षेत्र में काम करने वालों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा और नुकसान उठाना पड़ा,क्योंकि उनकी अपनी नौकरी चली गयी और सरकार ने उनकी सुरक्षा को लेकर कुछ भी नहीं किया। लाखों प्रवासी मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया, जिससे वे संकटग्रस्त परिस्थितियों में अपने दूर-दराज़ के गांवों के सफ़र करने को मजबूर हो गये। इन सभी ने मिलकर देश भर में पहले से ही व्याप्त बेरोज़गारी को गंभीर रूप से बढ़ा दिया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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