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यूसुफ तारिगामी - कश्मीरी कम्युनिस्ट

अलगाववादियों की चपेट में आए ज़िले के गांवों में अपना जनाधार बनाने के लिए कुलगाम के चार बार के विधायक तारिगामी और उनकी पार्टी सीपीआईएम ने कड़ी मेहनत की है।
jammu and kashmir
Image Courtesy: Tarigami Facebook

अदालत के आदेश के बाद 72 वर्षीय मोहम्मद यूसुफ तारिगामी सोमवार को इलाज के लिए दिल्ली में थें। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जम्मू-कश्मीर स्थित अपने घर लौटने की इजाज़त दे दी है। उन्हें श्रीनगर से दिल्ली लाया गया था, जहां वे नज़रबंद थें।

तारिगामी विधान सभा के चार बार सदस्य हैं। विधानसभा को पिछले साल नरेंद्र मोदी सरकार ने भंग कर दिया था। वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की केंद्रीय समिति के सदस्य हैं। सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी दो बार श्रीनगर जाने की कोशिश कर चुके थें और फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वे शहर में प्रवेश करने में सफल हुए। वे तारिगामी से मिले और दिल्ली लौटकर कहा कि वे काफी बीमार हैं और फिर शीर्ष अदालत का शुक्रिया अदा किया जिसने दिल्ली के एम्स में इलाज के लिए उन्हें स्थानांतरित करने का आदेश दिया। तारिगामी को राजधानी स्थित जम्मू-कश्मीर हाउस में स्थानांतरित किया गया और भारत सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाए रखा गया।

कम्युनिस्ट अपने बारे में बताना नहीं चाहते हैं। वे खुद को इतिहास के हिस्से के रूप में देखते हैं, दुनिया को एक बेहतर स्थान बनाने के लिए संघर्ष का सिपाही मानते हैं। अन्य कम्युनिस्टों की तरह तारिगामी भी ऐसे ही हैं। वह मुद्दों पर बात करना पसंद करते हैं न कि खुद के बारे में। जो लोग उनसे मिले हैं या उन्हें टेलीविज़न पर बात करते देखा है, वे सही मान लेते हैं कि वह 50 वर्ष जैसे दिखते हैं। वे अपनी उम्र से ज़्यादा युवा दिखते हैं। वे ऊर्जावान हैं, उनके हाथ सभी दिशाओं में जा रहे हैं, लेकिन उनकी नज़र मजदूर-वर्ग, किसान और व्यापक अर्थों में कहें तो उनकी चिंता कश्मीरी लोगों पर टिकी है।

तारिगाम से संबंध

तारिगामी का जन्म 1947 में हुआ था। उनकी उम्र सत्तर पार कर चुकी है। उनका पारिवार का नाम दूसरे किसान परिवारों की तरह उनके गांव के नाम तरिगाम पर रखा गया है। यह गांव पुरानी सड़क के किनारे स्थित है जो शोपियां को अनंतनाग को जोड़ता है, जो जम्मू जाने वाली राष्ट्रीय राजमार्ग 44 के पास स्थित है। यह गांव कुलगाम ज़िले में है, जहां से तारिगामी ने चार बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा (1996, 2002, 2008 और 2014) के लिए सीट जीती थी। यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है क्योंकि यह ज़िला और दक्षिणी कश्मीर के बड़ा हिस्सा जमात-ए-इस्लामी और अन्य अलगाववादी संगठनों की पकड़ में है।

कुलगाम के आस पास के गांवों जैसे अरवानी, बिचरू, और यहां तक कि तारिगाम में जमात और इसके पूर्व नेता सैयद अली शाह गिलानी को समर्थन है। लेकिन, इस ज़िले के गांवों में अपना समर्थन तैयार करने के लिए तारिगामी और माकपा ने कड़ी मेहनत की है। वह एक ईमानदार और सभ्य व्यक्ति के रूप में अपनी प्रतिष्ठा के कारण 1996 में पहली बार ये सीट जीतने में सफल रहे जब  जमात और अन्य अलगाववादियों ने 1989 से चुनाव का बहिष्कार करने का फैसला किया था।

यह सुनिश्चित करते हुए कि स्कूलों, अस्पतालों और सड़कों ने उनके ज़िले के स्थिति को फिर से आकार दिया, इन दशकों में तारिगामी ने विकास को किसी अन्य मुद्दे से आगे बढ़ाने पर ज़ोर दिया। यह विकास के उस मंच पर मौजूद है जिससे तरिगामी इस राज्य में एक विलक्षण नेता के रूप में उभरे। और इससे यह मदद मिली कि उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार का कोई भी आरोप नहीं है।

कशमीर में साम्यवादी

तारिगामी के पास राजनीति आसानी से नहीं पहुंची थी। उनका परिवार राजनीतिक नहीं था, यहां तक कि कश्मीर उनके जन्म के कुछ महीनों के भीतर ही विश्व राजनीति के केंद्र में चला गया था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा भारत के विभाजन के बाद मामूली समयावधि ने महाराजा हरि सिंह के कश्मीर के सवाल को अनसुलझा छोड़ दिया। सिंह को यह डर था कि नवगठित पाकिस्तान सेना भेजकर कब्जा कर लेगी इसलिए उन्होंने भारत के साथ हस्ताक्षर कर लिया। यह पूरा प्रकरण काफी विवादास्पद है और भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का एक कारण है।

तारिगामी के चाचा कश्मीर के एक बड़े कम्युनिस्ट नेता अब्दुल करीम वानी को सुनाने के लिए अपने छोटे भतीजे को ले जाते। वानी के व्याख्यानों का प्रभाव तारिगामी पर पड़ा जो तब धीरे-धीरे न केवल राजनीति में आ गए बल्कि भारतीय साम्यवाद की दुनिया में भी मज़बूती से छा गए।

यहां विचार करना बेहद ज़रूरी है कि 1940 के दशक के शुरुआती कश्मीरी राष्ट्रवाद का साम्यवाद से गहरा संबंध था। 1932 में शेख अब्दुल्ला द्वारा स्थापित ऑल-जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का नाम बदलकर सात साल बाद ऑल-जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस रखा गया। धर्मनिरपेक्षता की ये झलक बीपीएल (बाबा) बेदी व फरिदा बेदी [फिल्म स्टार कबिर बेदी के माता-पिता] , फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ व अलिस फ़ैज़, बख़्शी ग़ुलाम मोहम्मद व जीएम सादिक़, ग़ुलाम मोहम्मद क़र्रा व मोहम्मद अली शाह (बाद में श्रीनगर में एमए रोड पर स्थित गवर्नमेंट कॉलेज फॉर वीमेन में एक बेहद लोकप्रिय प्राचार्य) जैसे साम्यवादी के साथ शैख़ अब्दुल्लाह के क़रीबी रिश्ते से पैदा हुआ। साम्यवादियों की कश्मीर में उपस्थिति मज़बूत थी। इसकी उपस्थिति न केवल बुद्धिजीवियों में बल्कि उन किसानों में भी थी जो सभी मुद्दों से ज़्यादा भूमि सुधार चाहते थें।

वर्ष 1944 में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 'नया कश्मीर कार्यक्रम' को अपनाया जो बाबा बेदी द्वारा लिखा गया था। इसने जम्मू-कश्मीर के लोकतांत्रिक राज्य द्वारा ज़मींदारी उन्मूलन, व्यापक भूमि सुधार और प्रमुख उद्योगों के स्वामित्व का आह्वान किया। एनसी ने यह संदेश उन लोगों तक पहुंचाया जो कुछ बेहतर करने के लिए शोषणकारी विकट परिस्थितियों को दूर करना चाहते थे। शेख अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस पर पड़े कम्युनिस्ट प्रभाव के चलते 1947 में नागरिक सेना तैयार करने में सहायता मिली जो कि दोनों ने महाराजा को प्रभावी रूप से उखाड़ फेंका।

वानी जैसे लोग इसी मंच से निकले और वह इस महानगरीय सामंती विरोधी और समाजवादी दृष्टिकोण को कुलगाम में युवा तरिगामी तक ले गए।

तारिगामी का राजनीतिक सफ़र कुलगाम में उस शुरू हुआ जब उन्होंने और उनके दोस्तों ने चावल की जबरन ख़रीद के ख़िलाफ़ किसानों के मुद्दे उठाए। वर्ष 1967 की बात है, जब साम्यवादी रहे मुख्यमंत्री जी. एम. सादिक पार्टी तोड़कर डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ्रेंस के माध्यम से कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़ गए। डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठन 1958 में हुआ था।

पचास साल पहले कृषि श्रमिकों और किसानों के लिए उनकी लड़ाई को लेकर तारिगामी को जेल ले जाया गया था। दशकों तक तारिगामी को अक्सर सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता था और उप-जेल रियासी (वैष्णो देवी से ज़्यादा दूर नहीं) और रेड -16 और पापा II जैसे ख़तरनाक यातना केंद्रों में भेज दिया जाता था।

तारिगामी जेल में थें, जब 1975 में उनकी पत्नी की मृत्यु हुई थी। सरकार ने उन्हें एक महीने के लिए पैरोल पर रिहा कर दिया था, लेकिन तीन दिनों के बाद ही उन्हें क्रूरता के साथ फिर गिरफ़्तार कर लिया। इन सबने उनके जोश को कम नहीं किया। उन्होंने उस परिकल्पना के लिए लड़ना जारी रखा जो उन्होंने वानी से सीखा था। ये परिकल्पना कश्मीरी किसानों और श्रमिकों के विश्वास को बनाने में मदद कर रहा है और खनिकों और मिड-डे-मील वर्कर्स के लिए लड़ रहा है। ये विभाजनकारी ताक़तों के ख़िलाफ़ एकजुट करने के लिए लोगों के बुनियादी, रोजमर्रा के मुद्दों को उठा रहा है। यह बाबा बेदी और अब्दुल करीम वानी और अब मोहम्मद यूसुफ तारिगामी जैसे लोगों की सबसे ताक़तवर विरासत है।

कश्मीर का बिखराव

कश्मीर भंवर के केंद्र में है। इसे कई दिशाओं में खींचा जाता है। बाहरी और आंतरिक ताक़तों द्वारा खींचा जाता है। यह संतुलन तलाशने में असमर्थ है। कश्मीर को लेकर 1948, 1965, 1971 और 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध लड़े गए दूसरी तरफ अस्थायी ताक़तों द्वारा निरंतर सीमा झड़पें और हस्तक्षेप होते रहे।

1989 के बाद से कश्मीर ने आंतरिक विद्रोह का सामना किया है जो इस भारतीय राज्य के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों को भेजने का बहाना रहा है; कश्मीर अब इस ज़मीन पर सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत स्थान प्रतीत होता है। जम्मू, लद्दाख और कश्मीर के लोगों को एक साथ लाने के बजाय सरकारों ने गतिशील जगह बना दिया है, जो उन्हें अलग करती है। सशस्त्र बलों ने राजनीतिक शिकायत को दबा दिया। संवाद को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।

मोदी सरकार ने राज्य को जम्मू, लद्दाख और कश्मीर में बांट दिया है। तारिगामी जैसे कम्युनिस्टों ने इस सब का विरोध किया। तारिगामी ने भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत और जम्मू-कश्मीर के भीतर सुलह की प्रक्रिया का आह्वान किया। सीमा पार बातचीत आवश्यक है। इसे उन्होंने कई मौकों पर कहा है और इसे शायद आरएसएस और बीजेपी के मोदी गुट को छोड़कर सभी मंचों पर स्वीकार किया गया है। नियंत्रण रेखा के पार बातचीत करने से इनकार करने पर कश्मीर के लिए कोई वास्तविक राजनीतिक समझौता नहीं हो सकता है।

लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल काफी बेहतर तरीके से राज्य के शेष हिस्सों को उदाहरण बन  सकता है। लोगों में शक्ति का विकास करने के लिए एक तंत्र होना चाहिए था और फिर इन स्थानीय रूप से निहित प्राधिकारों का इस्तेमाल लद्दाख, जम्मू और कश्मीर के अपेक्षाकृत अलग-थलग वर्गों के बीच एक गंभीर चर्चा शुरू करने के लिए किया जाना चाहिए। इस तरह की चर्चा की मेज पर न केवल कश्मीरी पंडितों की वापसी हो, बल्कि वे युवा भी शामिल हों जो उग्रवाद में शामिल हो गए और अब पाकिस्तान में उपेक्षित रहते हैं। दोनों को वापसी के लिए एक मार्ग दिया जाना चाहिए। यह सब विधानमंडल में तारिगामी द्वारा उठाया गया है। इसमें से किसी को भी गंभीरता से नहीं लिया गया है।

तारिगामी ने कई बार कहा है कि हिंसा के बावजूद और हज़ारों भारतीय सैनिकों की उपस्थिति के बावजूद कश्मीरियों और नई दिल्ली के बीच बातचीत ने 2008 और 2014 में मतदान के लिए आने वाली अधिकांश आबादी के लिए प्रेरणा प्रदान की है। उन्होंने कहा दिल्ली के ख़िलाफ़ 'भारी गुस्सा' है लेकिन अगर फिर बातचीत करने का कोई प्रयास होता है तो कश्मीरियों ने गंभीरता से प्रतिक्रिया दिया है।

2014 के बाद से यानी केंद्र में जब से बीजेपी सत्ता में है तब से मोदी और उनकी सरकार द्वारा बातचीत को लेकर गंभीरता के कोई सबूत नहीं है। एक नई शुरुआत के लिए कश्मीर की इच्छा बड़ी संख्या में सैनिकों, पेलेटगन, युवाओं पर हो रहे अत्याचार में उलझ गई है। तारिगामी कहते हैं औसत कश्मीरी ख़तरा महसूस करते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि 2017 में श्रीनगर उपचुनाव के लिए केवल 7.14% मतदान हुआ। नई दिल्ली सहित इस प्रक्रिया में कोई विश्वास नहीं है।

घाटी में कठोर दमन कोई नया नहीं है। तारिगामी ने इसे अपने पूरे राजनीतिक जीवन में अनुभव किया है। 1967 में वे जेल गए। वह 1975 में फिर से जेल गए। और फिर, 1979 में वह पहले व्यक्ति थें, जिन्हें 1978 के जम्मू-कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत मुक़द्दमा दर्ज किया गया था। अप्रिय हिंसा के लिए क़ानूनी सुरक्षा सुरक्षा तंत्र को नुकसान पहुंचाती है। पब्लिक सेफ्टी एक्ट एक ऐसा ही संरक्षण है जबकि दूसरा सशस्त्र बल विशेष सुरक्षा अधिनियम (एफएसपीए) है, जिसकी जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा नियमित रूप से निंदा की गई है। ये क़ानून मानवाधिकारों के उल्लंघन को निमंत्रण देता है। ये न केवल एक बार किए गए उल्लंघन के लिए एक ढाल प्रदान करते हैं बल्कि अत्याचार को प्रोत्साहन भी देता है। वे एक आतंकवादी के रूप में कश्मीरी का एक विचार बनाते हैं, कठोर कार्रवाई के लिए और अब पूरे राज्य के अंतहीन कर्फ्यू के लिए ज़मीन तैयार करते हैं।

तारिगामी जैसे लोगों ने ज़ोर देकर कहा कि इस विवाद के केवल दो पक्ष नहीं है। यानी भारतीय राज्य का पक्ष और अलगाववादियों का पक्ष। ये सरकार अलगाववादियों का अपमान करती है और उन्हें विद्रोही जैसा मानती है। ये विद्रोही विशेष रूप से जमात वर्ग को कम्युनिस्टों से ख़तरा है, जिन्हें वे कश्मीरी लोगों के बहादुर रक्षक के रूप में जानते हैं। उन्हें अवैध करने के लिए जमात का कहना है कि तारिगामी जैसे कम्युनिस्ट धर्म के ख़िलाफ़ हैं खासकर इस्लाम के ख़िलाफ़ हैं। कई बार तारिगामी और एक अन्य कम्युनिस्ट नेता मोहम्मद खलील नाइक पर हमला किया गया। यह अक्सर स्पष्ट नहीं हुआ है कि हमला अर्ध-सैन्य राज्य बलों या विद्रोहियों से हुआ है।

किसी भी तरह से तारिगामी जैसे कम्युनिस्टों को दोनों तरफ से ख़तरे के रूप में देखा जाता है। 2004 में जब नाइक ने वाची में प्रचार किया तो उन पर ग्रेनेड और गोलियों से कई बार हमला किया गया। अगले साल, आतंकवादियों ने श्रीनगर में भारी सुरक्षा वाली तुलसीबाग कॉलोनी में प्रवेश किया और तारिगामी और शिक्षा मंत्री गुलाम नबी लोन के घरों पर हमला किया। लोन की मौत हो गई। तारिगामी के गार्ड ने हमलावरों से लड़ाई की, हालांकि उनका एक गार्ड मारा गया। इस हमले से एक दिन पहले अनंतनाग में सीपीआईएम के गुलाम नबी गनी की हत्या कर दी गई। पिछले साल कुलगाम में तारिगामी के घर पर बंदूकें और ग्रेनेड दागे गए थे।

परेशानी

यदि 2014 से पहले मामले खराब थे फिर भी इसके बाद से वे काफी भयानक हो गए हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद समाप्त हो गया है। बीजेपी-आरएसएस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच गठबंधन ने पहले से ही पर्याप्त आबादी को अलग-थलग कर दिया; राजनीतिक वर्ग में विश्वास शून्य हो गया। इस बीच, जैसा कि तारिगामी ने अक्सर कहा है कि भारत में मुस्लिम विरोधी और दलित विरोधी हमलों और सच्चर व मिश्रा समितियों के प्रति उपेक्षा ने मोदी सरकार के असली चेहरे को कश्मीरियों के सामने ला दिया है।

कश्मीर में कर्फ्यू लगने से कुछ दिनों पहले तारिगामी ने फ्रंटलाइन के आनंदो भक्तो से बात की। उन्होंने कहा, आरएसएस 'राज्य की जनसांख्यिकी को बदलना चाहता है'। घाटी में भारतीय सैनिकों का एक नया दल आया था, जबकि भारत सरकार ने राज्य के बाहर के छात्रों को जल्द जाने के लिए कहा था। ऐसा लगता है जैसे कोई यहां लोगों के साथ युद्ध कर रहा है।’ उन्हें पता था कि धारा 370 और 35A निकट भविष्य में निरस्त होने वाला है और आरएसएस-बीजेपी सरकार राज्य के विभाजन और उसके पूरे चरित्र को बदलने के लिए उत्सुक थी। उन्होंने कहा, यह सब असुरक्षा और संघर्ष को बढ़ावा देगा।

कश्मीर बंद होने से पहले तारिगामी ने फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, गुलाम हसन मीर, हकीम यासीन और अन्य के साथ मुलाकात की। इन सभी नेताओं ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि सेना को तैनात करके बीजेपी कुछ बुरा करने वाली है। वे सही ही थे। वे सभी अब घरों में नज़रबंद हैं।

भक्तो को दिए गए तारिगामी के साक्षात्कार से अंतिम कुछ पंक्तियां उद्धृत करने योग्य हैं क्योंकि ये उनकी अंतिम सार्वजनिक बयान है। 'यह मत भूलें कि यह [मोदी] सरकार अधिक सत्तावादी है और सत्ता के अधिक केंद्रीकरण का समर्थक है। एक बार जब वे कश्मीर में सफल हो जाते हैं तो इसका असर निकट भविष्य में देश के बाकी हिस्सों में भी महसूस किया जाएगा। यही मेरी चिंता है।'

(विजय प्रसाद इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। वह इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट के प्रोजेक्ट ग्लोबट्रॉट्टर के चीफ कोरेसपोंडेंट। वह लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं। इस लेख में व्यक्त विचार निजी है।)

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