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कोविड-19: लाडले और राजनाथ की मौत बताती है कि बिहार सरकार की तैयारी कितनी कमज़ोर है

दिल्ली से सारण लौटे राजनाथ प्रसाद यादव में संक्रमण का लक्षण दिखने के बावजूद उनकी जांच नहीं की गई और आख़िरकार 4 जून को उनकी मौत हो गई। इसी तरह दिल्ली से दरभंगा लौटे लाडले की 5 जून को मौत हो गई। दोनों का मौत के बाद टेस्ट हुआ और उनमें कोरोना संक्रमण की पुष्टि हुई।
कोविड-19: लाडले और राजनाथ की मौत बताती है कि बिहार सरकार की तैयारी कितनी कमज़ोर है

पटना (बिहार): बीती 25 मई को दिल्ली के रेड जोन ख़िज़राबाद से श्रमिक स्पेशल ट्रेन से लौटे सारण के फुलवरिया निवासी राजनाथ प्रसाद यादव में कोरोना वायरस संक्रमण का लक्षण दिखने के बावजूद उनकी जांच नहीं की गई और आखिरकार 4 जून को उनकी मौत हो गई। मौत के बाद डॉक्टरों ने उनका सैंपल लिया और अब जांच रिपोर्ट में उनमें कोरोना वायरस संक्रमण की पुष्टि हुई है।

राजनाथ प्रसाद यादव के साथ हुई ये घटना बताती है कि कोरोना वायरस से निपटने के लिए बिहार सरकार की तैयारी कितनी लचर और कमजोर है।

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(राजनाथ यादव को क्वारंटीन सेंटर में ही कोरोनावायरस का लक्षण दिखने लगा था, लेकिन जांच नहीं हुई और 4 जून को उनकी मौत हो गई।)

राजनाथ प्रसाद यादव पिछले 20 साल से दिल्ली के ख़िज़राबाद में दीवारों को पेंट करने का काम करते थे। कोरोना वायरस को लेकर जब 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन लगा, तो उनके लिए गुजारा करना मुश्किल हो गया, लेकिन किसी तरह उन्होंने दो महीने वहां गुजार दिए।

23 मई को आखिरकार श्रमिक स्पेशल ट्रेन मिल गई, तो उन्हें लगा कि घर पहुंच जाएंगे, तो उनकी सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि बिहार सरकार की तैयारी उन्हें मौत के मुंह में ही धकेल देगी।

ख़िज़राबाद से राजनाथ के साथ गांव लौटे दिनेश राय ने न्यूज़क्लिक  के लिए बताया, “हमलोग 23 मई को ट्रेन में सवार हुए थे और 25 मई की सुबह पटना जंक्शन पर पहुंचे। वहां सरकार की तरफ से बस का इंतजाम किया गया था, लेकिन लोग ज्यादा थे। बस में चढ़ने के लिए लोगों में मारामारी हो रही थी, इसलिए हम लोगों ने एक निजी वाहन किराये पर लिया और गरखा के सदर अस्पताल पहुंचे। वहां थर्मल स्क्रीनिंग कराने के बाद हम लोग अपने गांव के फुलवरिया मध्य विद्यालय में ठहर गए क्योंकि ये स्कूल हमारे गांव के करीब था और इसे क्वारंटीन सेंटर बनाया गया था।”

29 मई को राजनाथ को अचानक बुखार आ गया, तो स्कूल के हेडमास्टर और क्वारंटीन सेंटर के प्रभारी प्रखंड स्तरीय प्राइमरी हेल्थ सेंटर गए और डॉक्टरों की टीम को बुला लाए।

फुलवरिया मध्य विद्यालय में 8 कमरे हैं। 17 मई को इस स्कूल को क्वारंटीन सेंटर बनाने का आदेश निर्गत हुआ था। स्कूल के हेडमास्टर मनोज कुमार सिंह ने न्यूज़क्लिक  को बताया, “स्कूल में ज्यादा से ज्यादा 50 लोगों को रखने की जगह थी, लेकिन ज्यादा मज़दूर आ रहे थे, तो मजबूरी में रखना पड़ा। इस स्कूल में 106 मज़दूर-कामगार ठहरे थे। इनमें से 27 लोगों को 23 मई को छोड़ दिया गया था क्योंकि वे लोग ग्रीन जोन से आए थे।”

29 मई को डॉक्टरों की टीम आई और राजनाथ की मामूली जांच कर तीन खुराक दवाई दे दी। दवा खाकर उन्हें बुखार से आराम मिला। एक जून को हेडमास्टर की तरफ से कहा गया कि जो होम क्वारंटीन में रहना चाहते हैं, वे घर जा सकते हैं, तो राजनाथ घर चले गए।

गौरतलब हो कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि जो लोग भी श्रमिक स्पेशल ट्रेन से आ रहे हैं, उन्हें 21 दिनों तक क्वारंटीन सेंटर में गुजारना होगा। बाद में 21 दिन की अवधि को घटाकर 14 दिन कर दिया गया। मुख्यमंत्री ने ये भी कहा था कि जो लोग रेड जोन से लौट रहे हैं, उनकी जांच प्राथमिकता के आधार पर की जाएगी। लेकिन, राजनाथ के मामले में ऐसा नहीं किया गया। और तो और लक्षण दिखने के बावजूद सैंपल लेकर जांच कराने के बजाय बुखार उतरने की दवाई देकर डॉक्टरों ने खुद को जिम्मेवारियों से फारिग कर लिया।

फिलहाल होम क्वारंटीन में वक्त गुजार रहे दिनेश राय कहते हैं, “इस मामले में सरासर सरकार की गलती है। राजनाथ रेड ज़ोन से लौटे थे और उनमें संक्रमण का लक्षण भी था, तो टेस्ट किया जाना चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।”

एक जून को घर लौटने के बाद उन्हें एक अलग कमरा दे दिया गया था। 4 जून की दोपहर को अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, तो निजी वाहन किराये पर लेकर उन्हें सदर अस्पताल ले जाया जा रहा था कि रास्ते में ही उनकी मौत हो गई। उनके परिजनों ने ब्लॉक स्तरीय स्वास्थ्य अधिकारियों को फोन किया, तो उन्होंने कहा कि वे लोग शव को हाथ न लगाएं।

राजनाथ के भतीजे ऋषिकेश कुमार बताते हैं, “हमलोग वाहन को वापस ले आए और घर से कुछ दूर छोड़ दिया। शाम को 7 बजे के आसपास मेडिकल टीम आई और जांच के लिए सैंपल लिया। इसके बाद हम लोगों से कहा गया कि सुरक्षा उपाय अपनाते हुए शव का अंतिम संस्कार कर दें, तो हमने उनका अंतिम संस्कार कर दिया।”

राजनाथ की दो बेटियां और एक बेटा है। एक बेटी की शादी तीन साल पहले हो गई। दूसरी बेटी आठवीं में पढ़ती है। बेटा पांचवीं का छात्र है।

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(राजनाथ यादव का घर)

उल्लेखनीय बात ये भी है कि सैंपल की जांच रिपोर्ट 12 से 24 घंटे में आ जाती है क्योंकि अभी बिहार में दो दर्जन स्थानों पर जांच की सुविधा उपलब्ध है, लेकिन राजनाथ की जांच रिपोर्ट आने में तीन दिन लग गए। ऋषिकेश बताते हैं, “7 जून की रात हम लोगों को गरखा थाने से फोन कर बताया गया कि उनका टेस्ट रिजल्ट पॉजिटिव आया है। हालांकि रिपोर्ट हमें अभी तक नहीं मिली है।”

सात जून को टेस्ट रिजल्ट की सूचना देने के दो दिन बाद यानी 9 जून को पूरे गांव को सील कर दिया गया। टेस्ट रिजल्ट पॉजिटिव आने के बाद राजनाथ के संपर्क में रहे 45 लोगों का सैंपल लिया गया है। इनमें 15 लोग क्वारंटीन सेंटर में साथ रहे थे और बाकी लोग उनके परिवार के हैं। राजनाथ के एक अन्य भतीजे रंजीत कुमार राय ने न्यूज़क्लिक को बताया, “सर्किल अफसर ने फोन कर बताया है कि सभी 45 सैंपल की जांच रिपोर्ट नेगेटिव आई है।”

“जब चाचाजी क्वारंटीट सेंटर में थे, तभी उनमें लक्षण दिखने लगे थे, लेकिन उनका सैंपल नहीं लिया गया। अगर उसी वक्त सैंपल लेकर जांच की जाती और उन्हें आइसोलेशन वार्ड में भेजा जाता, तो वो आज जिंदा होते”, ऋषिकेश ने कहा।

गरखा के मेडिकल अफसर डॉ सरबजीत से जब बात की गई, तो कई सवालों को वह टालते नज़र आए। मसलन जब उनसे पूछा गया कि राजनाथ में कोरोना वायरस संक्रमण का लक्षण दिख रहा था, फिर 29 को ही सैंपल लेकर जांच क्यों नहीं की गई, तो उन्होंने कहा, “राजनाथ की तरह कई प्रवासी मज़दूरों को बुखार की शिकायत थी, जो सामान्य दवाई से ठीक हो गए, इसलिए हमने सोचा कि इन्हें भी सामान्य बुखार होगा।” जब उनसे ये पूछा गया कि सीएम ने कहा था कि रेड ज़ोन से आने वाले की जांच में प्राथमिकता दी जाए और राजनाथ रेड ज़ोन से आए थे, तो फिर जांच के बारे में क्यों नहीं सोचा गया, तो उन्होंने कहा, “दरअसल दवाई से वह ठीक हो भी गए थे, तो हमने जांच करवाने की नहीं सोचा।” तो क्या इसे लापरवाही नहीं मानी जाए, क्योंकि वे रेड ज़ोन से आए थे और उनमें लक्षण भी दिख रहा था लेकिन जांच नहीं कराई गई। इस सवाल उन्होंने केवल इतना कहा कि उन्हें ऐसा नहीं लगता और फोन काट दिया।

बिहार में कोरोना वायरस का पहला मामला 22 मार्च को सामने आया था, जब विदेश से लौटे एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। उनका टेस्ट रिजल्ट भी उनकी मौत के बाद आया था। चूंकि पहले उनकी जांच हुई नहीं थी, इसलिए वह लोगों के साथ मिलता-जुलता रहा था और इस तरह उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा लोगों को संक्रमित कर दिया था। उस वक्त बिहार मे कोरोनावायरस के मामले काफी कम थे।

1 मई को केंद्र सरकार ने फंसे हुए मज़दूरों-कामगारों को उनके गृह राज्य भेजने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने की घोषणा की, तो सबसे ज्यादा श्रमिकों की आमद बिहार में होने लगी और सबसे ज्यादा संक्रमण उनमें मिलने लगा। इससे निबटने के लिए बिहार सरकार ने आपदा प्रबंधन विभाग को प्रवासी मज़दूरों को ठहराने के लिए क्वारंटीन सेंटर बनाने और उनकी देखरेख का जिम्मा दिया। उस वक्त तय हुआ था कि श्रमिकों को 21 दिनों तक क्वारंटीन सेंटरों में रहना होगा, जिसे बाद में 14 दिन कर दिया गया।

9 जून तक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से 15,22,582 लोग लौट चुके हैं। 24 मई तक 14472 क्वारंटीन सेंटर संचालित हो रहे थे। लेकिन, क्वारंटीन सेंटरों में दुर्व्यवस्था, खराब खाना पड़ोसने, सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं होने आदि की खूब शिकायतें आने लगीं।

मुख्यमंत्री ने कहा था कि क्वारंटीन सेंटर में रहने वाले हर श्रमिक पर सरकार 5300 रुपये खर्च कर रही है, लेकिन मज़दूर लगातार खराब खाने की शिकायत कर रहे थे। नतीजतन बिहार सरकार ने 1 जून के बाद आने वाले मज़दूरों को क्वारंटीन सेंटर में पंजीयन नहीं करने का फैसला लिया और 15 जून तक सभी क्वारंटीन सेंटरों को बंद करने का आदश दे दिया।

24 मई तक बिहार में आपदा प्रबंधन विभाग 14472 क्वारंटीन सेंटर चला रहा था।

अगर फुलवरिया स्कूल की ही बात कर लें, तो वहां के हेडमास्टर मनोज कुमार सिंह का कहना है कि स्कूल में न बाउंड्री वाल था और न ही पीने के पानी की व्यवस्था। वह कहते हैं, “स्कूल में एक ही हैंडपम्प है और एक ही शौचालय, लेकिन सरकार ने आदेश दे दिया कि इसे क्वारंटीन सेंटर बनाना है। ऐसे में क्या करते? मज़दूर भी लगातार आ रहे थे, तो उन्हें मना कैसे कर देते? हमारे स्कूल में महज 50 लोगों के ठहरने की जगह थी लेकिन 106 लोग रुके।

17 मई से क्वारंटीन सेंटर चल रहा था। 4 जून से ये पूरी तरह बंद है। यानी 18 दिनों तक ये क्वारंटीन सेंटर चला लेकिन हेडमास्टर का दावा है कि इन 18 दिनों में सिर्फ दो बार ही मेडिकल टीम जांच करने के लिए आई। उन्होंने कहा, एक बार 26 मई के आई थी और दूसरी बार 29 मई को, लेकिन 29 मई को हमने बुलाया था, तब डॉक्टर आए।

बहरहाल, बिहार सरकार ने अब सभी क्वारंटीन सेंटरों को 15 जून तक बंद करने का निर्देश दे दिया है, तो जानकार मान रहे हैं कि अब घर लौटने वाले प्रवासी मज़दूरों से कोरोना संक्रमण फैलने का ख़तरा बढ़ेगा क्योंकि वे सीधे घर जाएंगे और परिवार के साथ रहेंगे। यही नहीं अगर कोई व्यक्ति कोरोना से संक्रमित होगा, तो उसका न तो इलाज हो पाएगा और न ही टेस्ट क्योंकि सरकार को पता नहीं चलेगा कि कौन बाहर से लौट रहा है।

सारण के छोटा तेलपा निवासी जीतेंद्र कुमार कहते हैं, “1 जून के बाद मेरे मोहल्ले में 15-20 लोग आए हैं। वे स्टेशन से सीधे घर आ गए और अभी घर पर ही रह रहे हैं। उन्हें कोई जांचने-पूछने वाला नहीं है।”

सरकार ने कहा है कि आशा वर्कर घर-घर जाकर पता लगाएंगी कि कोई बाहर से लौटा या नहीं है। लेकिन, ऐसा हो नहीं रहा है। कई लोगों ने न्यूजक्लिक  को पुष्टि की कि ऐसा सर्वे उनके यहां नहीं हो रहा है।

दरभंगा की एक घटना इन आशंकाओं की पुष्टि भी करती है। क्वारंटीन सेंटर बंद होने के कारण दिल्ली से दरभंगा लौटे एक व्यक्ति की मौत हो गई और बाद उसमें कोरोना वायरस संक्रमण की पुष्टि हुई।

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(लाडले दिल्ली से 3 जून को लौटे थे और 5 जून को मौत हो गई। बाद में उनकी जांच हुई जिसमें कोरोना वायरस संक्रमण की पुष्टि हुई है।)

34 वर्षीय लाडले ने परिवार के साथ 2 जून को ट्रेन पकड़ी था और 3 जून को रामपुरा अपने घर लौटे थे। उन्हें बुखार की शिकायत थी। 3 जून को लौटते ही वह सिंहवाड़ा के सरकारी अस्पताल में टेस्ट कराने पहुंचे, लेकिन उन्हें कहा गया कि यहां टेस्ट नहीं होता है। लाडले के चचेरे भाई मो. कलाम ने न्यूज़क्लिक को बताया, “टेस्ट नहीं हुआ, तो वह क्वारंटीन सेंटर में गए, लेकिन क्वारंटीन सेंटर 2 जून को ही बंद हो चुका था, इसलिए वह घर लौट आए। घर पर कोई नहीं था, तो वह चाचा के यहां गए। फिर शाम को अपनी पत्नी के साथ ससुराल चले गए। ससुराल में ही 5 जून को मौत हो गई।” मौत की जानकारी मेडिकल अफसरों को दी गई, तो उन लोगों ने सैंपल लिया।

कलाम ने कहा, “सैंपल की जांच में उनमें कोरोना वायरस की पुष्टि हुई है।” उन्होंने कहा कि सरकारी लापरवाही के कारण उनकी मौत हुई है। “अगर 3 जून को अस्पताल में उनकी जांच की जाती और आइसोलेशन वार्ड में भर्ती किया जाता, तो उनकी जान बच सकती थी”, कलाम ने कहा।

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