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शुष्क शौचालय खत्म करने का 100 दिनों का देशव्यापी अभियान        

रैपिड एक्शन 100 दिन 100 जिले: जिला अधिकारी को ज्ञापन देंगे और इन शौचालयों को जल चालित शौचालयों में परिवर्तन करने की माँग करेंगे। इस तरह इन शुष्क शौचालयों को खत्म करेंगे। मैला साफ करने वाली महिलाओं का दूसरे इज्जतदार काम धंधे में पुनर्वास कराएंगे।
शुष्क शौचालय खत्म करने का 100 दिनों का देशव्यापी अभियान        

शुष्क शौचालय से मानव मल साफ़ करने जैसा अमानवीय और घृणित कार्य बहुत हो गया - बस्स! अब और नहीं!! इसी भावना से सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने देश से शुष्क शौचालय समाप्त करने का 100 दिन का अभियान चलाया है, और कुछ इस अंदाज में कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

हम 21वीं सदी के तीसरे दशक में जी रहे हैं, और विकास के तमाम दावों से घिरे हुए हैं। कहने को हम चाँद और मंगलग्रह तक पहुँच चुके हैं। लेकिन हमारे देश में एक समुदाय और खासतौर से उनकी महिलाओं पर मैला साफ करने का घृणित काम आज भी थोपा जाता है। मैला साफ करना मतलब एक इंसान का मल दूसरे इंसान से साफ कराना। यह मैला एक खास तरह के शुष्क शौचालय से साफ कराया जाता है। इन शौचालयों में पानी को कोई इंतजाम नहीं होता और मल बहने का प्रबंध नहीं होता। मल को उठाने किसी इंसान को आना पड़ता है और यह व्यक्ति सफाई समुदाय का होता है और ये सफाई कर्मचारी होती हैं सामान्य तौर पर दलित महिलाएं। इन शुष्क शौचालयों को हम ड्राई टॉयलेट या इनसेनीटरी टॉयलेट के नाम से भी जानते हैं। मैला ढोने का कार्य गैरकानूनी और अपराध है। और इसकी पूरी जानकारी सरकार को है। फिर भी मैला प्रथा जारी है क्यों?

इस गैरकानूनी प्रथा को खत्म करने के लिए अभी तक सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाया है। पूरे देश में जहाँ-जहाँ ऐसे शुष्क शौचालय हैं, सफाई कर्मचारी आन्दोलन के कार्यकर्त्ता उन मौहल्लों में जायेंगे, शुष्क शौचालय साफ करने वाली महिलाओं और शौच के लिए इन शौचालय का इस्तेमाल करने वाले लोगों से मिलेंगे, जिला अधिकारी को ज्ञापन देंगे और इन शौचालयों को जल चालित शौचालयों में परिवर्तन करने की मांग करेंगे। इस तरह इन शुष्क शौचालयों को खत्म करेंगे। मैला साफ करने वाली महिलाओं का दूसरे इज्जतदार काम धंधे में पुनर्वास कराएंगे। हमने इस अभियान की शुरूआत 3 जनवरी 2021 को उत्तराखंड से की है। हमने शुष्क शौचालयों को गिराने या उन्हें  जलचालित शौचालयों में परिवर्तन के लिए 100 जिलों और 100 दिनों का लक्ष्य रखा है।

सवाल है कि आज भी हमारे देश में इंसान द्वारा इंसान का मल उठाने की प्रथा क्यों प्रचलन में  है? आखिर क्यों एक समुदाय विशेष की महिलाएं इस अमानवीय प्रथा में लगी हैं? और क्यों जारी है अभी भी हमारे देश में मैला ढ़ोने की अमानवीय प्रथा? सवाल कई हैं पर मुद्दा यह है कि जब मैला प्रथा उन्मूलन पर 1993 में और 2013 में दो-दो कानून बन चुके हैं। और कानून के अनुसार मानव मल ढुलवाना दंडनीय अपराध है फिर क्यों जारी है - मैला प्रथा। दंडनीय अपराध होने के बावजूद क्यों नहीं मिलती मैला ढुलवाने वालों को सजा? अगर हम इसकी पृष्ठभूमि पर जाएं तो कई बातें जेहन में आती हैं।

जाति और पितृसत्ता है जिम्मेदार

हमारे देश में पिछले पांच हजार सालों से जातिगत कारणों से छुआछूत की जाती है। भले ही भारतीय संविधान ने अपने अनुच्छेद 17 में किसी भी रूप में छुआछूत का उन्मूलन कर दिया हो और इसे दण्डनीय अपरध घोषित कर दिया गया हो। बावजूद इसके छुआछूत आज भी जारी है। भारतीय समाज की बुनियादी इकाई जाति है। जाति के आधार पर हमारा समाज उच्च-निम्न क्रम में बंटा है। इसी के कारण जातिगत भेदभाव होते हैं। जाति व्यवस्था तो जन्म आधारित है ही इसके साथ ही जाति के आधार पर ही लोगों के पेशों का भी निर्धारण कर दिया गया है। यही कारण है कि इस सफाई समुदाय के लोग मैला ढोने जैसे अमानवीय कार्य को भी ’अपना काम’ समझते हैं।

सिर्फ जाति ही नहीं, हमारे समाज पर पितृसत्ता का शिकंजा भी कसा हुआ है। जिसकी वजह से महिलाओं को पुरूषों से हीन समझा जाता है। और घृणित पेशों को महिलाओं को ढकेल दिया जाता है। यही कारण है कि दलित महिलाओं को तिहरा शोषण होता है। उनकी जाति के कारण, उनके महिला होने के कारण और उनकी गरीबी के कारण। यही कारण है कि हिंसा की वारदातें भी दलित महिलाओं पर अधिक होती हैं। मानव मल ढोने की प्रथा भी उन पर हिंसा है।

 ब्राह्मणवादी व्यवस्था में दलितों को सबसे निचले पायदान पर माना जाता है और इसलिए उनके साथ छुआछूत और भेदभाव होता है। उनका शोषण होता है। दलित पुरूषों के साथ ही उनकी महिलाओं को भी इसका शिकार होना पड़ता है। पितृसत्ता के कारण सफाई कर्मचारी समुदाय के पुरूष भी मैला ढोने शुष्क शौचालय साफ करने जैसे अमानवीय और घृणित कार्य अपनी महिलाओं पर थोप देते हैं। यही कारण है कि शुष्क शौचालय साफ करने वाली महिलाओं की संख्या 90 प्रतिशत से अधिक हे।

ऐतिहासिक अन्याय है मैला प्रथा

अब समय आ गया है कि हम इन महिलाओं के साथ हो रहे ऐतिहासिक अन्याय को, शुष्क शौचालय साफ करने जैसी हिंसा को जड़ से समाप्त करें और  उन्हें उनके मानव होने का अहसास कराएं। उन्हें मानवीय गरिमा के साथ जीने के उनके हक के लिए उनका साथ दें। आइए, हम सब मिलकर शुष्क शौचालयों की प्रथा को समाप्त करें। इनको समाप्त कर एक ऐसे भारत का निर्माण करें जहां देश का हर नागरिक अपनी मानवीय गरिमा के साथ अपना जीवन यापन कर सके।

बाबा साहेब का सपना – मैला मुक्त भारत 

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के जातीय उन्मूलन के सपने को साकार करने के लिए सफाई कर्मचारी आंदोलन ने बीड़ा उठाया है . सात राज्यों में 100 दिन के भीतर मैला प्रथा के खात्मे का। सफाई कर्मचारी आन्दोलन उत्तराखंड, राजस्थान उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर इन राज्यों में मिशन 2021 के तहत तमाम समाज को गोलबंद करते हुए शुष्क शौचालय को ध्वस्त करेगा और इस तरह से सबसे बर्बर रूप में मौजूद जाति प्रथा के इस दंश का खात्मा करेगा।

बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था –“भारत में कोई मैला ढोने वाला व्यक्ति अपने काम की वजह से नहीं बल्कि अपने जन्म की वजह से जाना जाता है।" शुष्क शौचालय छुआछात और जाति भेद के ठोस प्रतीक हैं। दलित महिलाएं शुष्क शौचालय साफ़ करने के लिए बाध्य की गई हैं उन पर पितृसत्ता और जाति हिंसा के वे प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

बाबा साहेब अंबेडकर ने जो संविधान बनाया वह जाति, पंथ और लिंग सभी प्रकार से समानता पर आधारित है। लेकिन जाति और पितृसत्ता ने जिसकी जड़ें काफी गहरी हैं, बड़ी बेशर्मी से इस अमानवीय शुष्क शौचालयों को बनाए रखा है और इस कारण मैला ढोने वालों पर अत्याचार जारी है। जाति प्रथा द्वारा जारी मैला ढोने की अमानवीय प्रथा तथा शुष्क शौचालयों के अस्तित्व को “मैला ढोने वालों को रोजगार का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013” बना कर इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है। कानून कहता है कि इस ऐतिहासिक अन्याय को सुधारा जाए और हर व्यक्ति को मैला प्रथा से मुक्त कर गरिमामय जीवन के लिए उसका पुनर्वास किया जाए। पर कानून को पारित हुए 7 साल हो गए और सुप्रीम कोर्ट का आदेश जारी हुए भी 6 साल हो गए। फिर भी यह शर्मनाक मैला प्रथा अभी भी है। शुष्क शौचालय अभी भी प्रबल रूप से खुलेआम देखे जा सकते हैं। 

नवम्बर 2020 में विश्व शौचालय दिवस पर सरकार ने घोषणा की थी कि 243 शहरों में सफाई कार्य का मशीनीकरण किया जायेगा। भयावह तथ्य यह है कि नगर निगमों और स्थानीय सरकारों द्वारा ही दलित महिलाओं  को सार्वजनिक शुष्क शौचालयों को साफ़ करने के लिए नियुक्त किया जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार जानबूझकर दलित महिलाओं का अनादर करती है और उनसे हाथों से शुष्क शौचालयों से मानव मल साफ़ करवाती है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन बाबा साहेब अंबेडकर के तीन मूलमन्त्रों शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो, के साथ सफाई कर्मचारियों की मुक्ति और मैला प्रथा के कलंक को मिटाने के लिए और बाबा साहेब के देश को मैला मुक्त करने के सपने को साकार करने के लिए देश के 100 जिलों में 100 दिनों में अंबेडकर के कारवां को ले जाएगा और समानता तथा दलित महिलाओं की गरिमा का अहसास कराएगा। 

सफाई कर्मचारी आन्दोलन समानता गरिमा और मानवीय व्यक्तित्व के दावे के मिशन पर चल पड़ा है। आप सबसे यह अनुरोध है कि आप सब इस मिशन 2021 में शामिल हों। मैला प्रथा के कलंक को देश से दूर करें। हम और आप मिलकर इस जातिगत दंश को जितनी जल्दी खत्म कर पायेंगे उतना हमारे समाज के लिए अच्छा रहेगा। 

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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