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2024 चुनाव : बसपा को अकेले लड़ने से फ़ायदा होगा या नुकसान?

कुछ समय से बीएसपी के अस्तित्व के संकट के बारे में चर्चा चल रही है और डेटा से भी यही पता चलता है कि हालत गंभीर है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

2024 की पहली छमाही में आम चुनाव होना तय हैं और राजनीतिक दल अपने कदमों को लेकर काफी सतर्क हैं और रणनीतिक रूप से अपने पत्ते खेल रहे हैं। एक तरफ जहां कई विपक्षी दल न केवल भारतीय जनता पार्टी को लगातार तीसरी बार सत्ता में दाखिल होने से रोकने के लिए बल्कि अपने राजनीतिक अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई लड़ने के लिए एक साथ आ रहे हैं। इसके बीच, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने घोषणा की हैं कि वह 2024 का आम चुनाव अपने दम पर लड़ेगी। 

बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि न तो भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल होने का कोई सवाल उठता है और न ही 26 राजनीतिक दलों के नवगठित गठबंधन में शामिल होने का उनका कोई इरादा है, इंडिया गठबंधन में केवल कांग्रेस पार्टी के पास ही देश भर में सबसे बड़ा वोट-शेयर है। 

30 अगस्त को, मायावती ने एक्स (पहले ट्विटर) पर एक पोस्ट में कहा कि, "एनडीए और INDIA गठबंधन में ज्यादातर गरीब विरोधी, जातिवादी, सांप्रदायिक और अमीर समर्थक पार्टियां शामिल हैं।" उनकी द्वारा पोस्ट की आगी कई ट्वीट्स से यह साफ़ हो गया है कि पार्टी ने गठबंधन में शामिल होने के विचार के खिलाफ अपना मन बना लिया है।

आम चुनावों और हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में बसपा का ट्रैक रिकॉर्ड देखने से पार्टी की घोषणा के बारे में थोड़ा संदेह पैदा होता है और कुछ सवाल भी उठते हैं - अगर वह इस रणनीति के साथ 2024 के चुनाव में उतरती है, तो क्या यह पार्टी के पक्ष में होगा, या उसे नुकसान होगा? यह एक ऐसा सवाल है जो हाल ही में कई लोग पूछ रहे हैं, क्योंकि अपने वोट-शेयर को जीती हुई सीटों में बदलने की बसपा की क्षमता में भारी गिरावट देखी गई है। पिछले साल, भाजपा ने यहां तक आरोप लगाया दिया था कि वह अब सीट जीतने वाली नहीं बल्कि वोट काटने वाली पार्टी बन गई है।

लोकसभा चुनाव का अनुभव 

2019 के आम चुनाव में, बसपा ने उत्तर प्रदेश में गठबंधन के तौर पर 38 सीटों पर चुनाव लड़ा और जिसमें में से मात्र 10 सीटें जीतीं थीं। इसे राष्ट्रीय स्तर पर 3.66 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 19 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर मिला था।

लगभग एक दशक पहले, 2009 के लोकसभा चुनाव में, मायावती की पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर 6.2 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 21 सीटें हासिल करने में सक्षम रही थी - यह उसके इतिहास में सीटों और वोट शेयर में सबसे अधिक हिस्सा था। उत्तर प्रदेश में उसे 27.4 प्रतिशत वोट मिले थे।

लेकिन 2014 के चुनाव में बसपा शून्य सीटों पर सिमट गई, हालांकि पूरे देश में उसका वोट शेयर 4.14 प्रतिशत था, जो 2014 के आम चुनाव से अधिक था। उत्तर प्रदेश में उसे लगभग 20 प्रतिशत वोट मिले थे।

आंकड़ों से पता चलता है कि बसपा ज्यादातर समय अपने वोट शेयर को सीटों में तब्दील नहीं कर पाई है। दूसरे शब्दों में कहें तो बसपा के मूल मतदाता, उत्तर प्रदेश के जाटव, अपने दम पर विधानसभा या लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल नहीं कर सकते हैं। चुनावी रूप से महत्वपूर्ण जीत को चिह्नित करने के लिए उन्हें अन्य सामाजिक वर्गों की जरूरत है, जो उनके साथ हाथ मिलाएं, चाहे वह सबसे पिछड़ा वर्ग हो, या कुलीन वर्ग और जातियां या फिर  मुस्लिम मतदाता हों।

दरअसल, बसपा प्रमुख चार बार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। और 2007 में उनकी पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी, जिससे मायावती उत्तर प्रदेश की पहली मुख्यमंत्री बनीं, जिन्होंने पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था। हालाँकि, अन्य समय, मायावती समाजवादी पार्टी (और अन्य) या भाजपा के समर्थन से सत्ता तक पहुंचीं थी।

विधानसभा चुनाव में बसपा का सर्वोच्च प्रदर्शन 2007 में हुआ था जब उसने 206 सीटें और प्रभावशाली 30.43 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था।

बसपा का लोकसभा अनुभव

2007 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के बाद, बसपा ने 2009 के आम चुनाव में भी 21 सीटें जीतीं, जो इसके गठन के बाद से एक बार फिर उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा था। 

लेकिन 2007 और 2022 के चुनावों के बीच, बसपा ने अपनी हासिल 99 प्रतिशत से अधिक सीटें को खो दिया। वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा में मायावती का केवल एक ही सदस्य है। 2017 के विधानसभा चुनाव में, बसपा ने 19 सीटें जीतीं थीं, 2012 के चुनाव में 80 से 76 प्रतिशत सीटों का नुकसान हुआ है।

बसपा की नई घोषणा जिसमें उसने कहा है कि वह 2024 के चुनाव में किसी भी राष्ट्रीय गठबंधन में शामिल नहीं होगी, लगभग एक महीने बाद आई है जब मायावती ने दावा किया था कि उनकी पार्टी को "दूसरे दलों के वोट नहीं मिलते हैं"।

19 जुलाई 2023 को जारी बसपा के एक प्रेस नोट में उनके हवाले से कहा गया है कि पार्टी को "उत्तर प्रदेश में गठबंधन करने से फायदे से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा" है।

वे खुद के आदेश पर दलितों और अति पिछड़े वर्गों के वोटों को किसी भी अन्य पार्टी में स्थानांतरित करने की बसपा की क्षमता का जिक्र कर रही थीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद, जिसमें बसपा, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल ने गठबंधन के तौर पर चुनाव लड़ा था और हार गए थे, मायावती ने बसपा को वोट हस्तांतरित करने में अन्य पार्टियों की असमर्थता को जिम्मेदार ठहराया था।

दलितों का खुद को अलग-थलग करना

मायावती के इस कदम को दलित बहिष्कार का प्रयास करार देते हुए, नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं कि बसपा की राजनीति ने दलितों को आत्म-बहिष्कार करने पर मजबूर कर दिया है। उन्होंने कहा कि, "अगर हम साझेदारी की तलाश नहीं करते हैं, तो यह वास्तव में दलितों द्वारा दलितों के लिए दलितों का बहिष्कार है।"

मायावती के फैसले पर अपने विचार रखते हुए भारती ने कहा कि, “अगर मायावती वहीं खड़ी रहीं जहां वे खड़ी हैं तो वह उस ऐतिहासिक अवसर को खो देंगी जिसका इस्तेमाल एक बार बाबू जगजीवन राम ने किया था। वे दलितों को मुख्यधारा की राजनीति से बाहर करने के लिए जिम्मेदार होंगी। यह दलितों के हित में मदद नहीं कर सकता है।'' उनका मानना था कि उन्हें डॉ. अंबेडकर की बात का पालन करना चाहिए, कि यदि भारत और दलितों के हित टकराते हैं, तो उन्हे [जगजीवन राम] भारत के हितों का पालन करना चाहिए था। 

गठबंधन से बीएसपी को मदद मिली

वर्ष 2014 में मोदी के नेतृत्व वाली लोकसभा जीत ने कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को प्रतीकात्मक उपस्थिति से कुछ अधिक ही सीमित कर दिया था। और बसपा उनमें से एक है। 

2014 के चुनाव के बाद, बसपा ने केवल 2019 के आम चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था, जिसमें वह 2014 की शून्य सीट से बढ़कर 10 सीटों पर पहुंच गई थी। लेकिन, 2022 में उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ते हुए, बसपा 403 विधानसभा सीटों में से केवल एक सीट जीत पाई थी। दीवार पर तो साफ़-साफ़ लिखा है लेकिन पढ़ने की क्षमता का होना भी जरूरी है। 

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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