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5 साल में सीवर, सेप्टिक टैंक की सफ़ाई के दौरान गई 400 लोगों की जान, यूपी रहा नंबर वन

लोकसभा में सरकार के आंकड़ों को ही सच माने तो 2017 से लेकर 2022 तक कम से कम 400 सफाई कर्मचारी अपनी जान गंवा चुके हैं। जबकि राज्यसभा में इसके ही एक सवाल के जवाब में सरकार ने बुधवार को बताया कि बीते पाँच सालों में 20 राज्यों में कम से कम 352 सफाई कर्मचारियों ने सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए अपनी जान गंवाई है।
sewers and septic tanks death
फ़ोटो साभार: पीटीआई

देश में एक तरफ सरकार जहां पिछले कई सालों से स्वच्छता और विकास का ढोल पीट रही है लेकिन सच यह है कि आज भी देश मे सीवर, सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान जान गंवाने वाले  मजदूरों का सिलसिला रुक ही नहीं रहा है। लोकसभा में सरकार के आंकड़ों को ही सच माने तो 2017 से लेकर  2022 तक  कम से कम 400 सफाई कर्मचारी अपनी जान गंवा चुके हैं। जबकि राज्यसभा में इसके ही एक सवाल के जवाब में सरकार ने बुधवार को बताया कि बीते पाँच सालों में 20 राज्यों में कम से कम 352 सफाई कर्मचारी सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए मर चुके हैं।

जबकि सफाई कर्मचारियों के लिए काम करने वाले संगठनों की माने तो असलियत में सफाई कर्मचारियों की मौत का आंकड़ा इससे कही अधिक है।

मैला साफ़ करते वक्त मौत के मामलों में यूपी नंबर वन, केरल सबसे नीचे

सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री   रामदास अठावले  ने संसद के ऊपरी सदन में रालोद सांसद जयंत सिंह चौधरी के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए एक लिखित उत्तर के माध्यम से जानकारी देते हुए बताया कि 'वर्तमान में देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग(हाथ से मौला ढोने) में लगे लोगों की कोई रिपोर्ट नहीं है.'मंत्री द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, सबसे कम मौत दर्ज करने वाले राज्यों में केरल और छत्तीसगढ़ हैं, जहां सिर्फ एक-एक मौत हुई है। इसके बाद बिहार और ओडिशा में 2-2 और चंडीगढ़, दादरा नगर, हवेली और उत्तराखंड में 3-3 लोगों की मौत दर्ज की गई है।

जबकि उत्तर प्रदेश 61 मौतों के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद तमिलनाडु में 46, नई दिल्ली में 42 और हरियाणा में 38 लोगों की मौत दर्ज की गई है। वहीं बहुजन समाज पार्टी के लोकसभा सांसद कुँवर दानिश अली के प्रश्नजबान जवाब में सरकार की तरफ से मंगलवार को यह जानकारी दी गई।

सरकार ने निचले सदन  को बताया कि वर्ष 2017 के बाद से सीवर एवं सेप्टिक टैंक की जोखिमपूर्ण सफाई करने के दौरान 400 लोगों की मौत हुई। लोकसभा में अली के प्रश्न के लिखित उत्तर में केंद्रीय राज्यमंत्री रामदास अठावले ने यह जानकारी दी। अठावले द्वारा सदन में पेश आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2017 में 100 लोगों, वर्ष 2018 में 67 लोगों, 2019 में 117 लोगों, 2020 में 19 लोगों, 2021 में 49 लोगों और 2022 में 48 लोगों की सीवर एवं सेप्टिक टैंक की जोखिमपूर्ण सफाई करने के दौरान मौत हो गयी।

जबकि मंत्री ने अपने राज्यसभा के जबान में मैला ढोने पर पूर्ण प्रतिबंध सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में पूछे जाने पर राज्यमंत्री ने जवाब दिया कि 'स्वच्छ भारत मिशन' के तहत, 2 अक्टूबर 2014 से, ग्रामीण क्षेत्रों में 11.06 करोड़ से अधिक स्वच्छ शौचालयों का निर्माण किया गया है और शहरी क्षेत्रों में 62.79 लाख से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया है और अस्वच्छ शौचालयों को स्वच्छ शौचालयों में परिवर्तित किया गया है। मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने की दिशा में इस कार्य ने बहुत बड़ा योगदान दिया।'

क्यों नहीं रुक रही सीवर में मौत

नए  मजबूत और आधुनिक भारत  के तमाम दावों के बावजूद मैला साफ करते वक्त भारत में  मौतें के आकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। जबकि मीडिया, यूनियन और सरकार मौत के आकड़ों में ही काफी अंतर रहता है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े लोगों ने बातचीत में कहा है कि इसमें सबसे बड़ा कारण कुछ दिखता है तो वो है केंद्र और राज्य सरकारों की सफाई कर्मचारियों के प्रति उदासीनता। सरकार ने मैला प्रथा के विरुद्ध कानून तो आंदोलन के दबाव में  बना दिए हैं, पर उनका पालन नहीं होता दिखता है। सीवर में सफाई के लिए एक्ट के तहत सफाईकर्मियों से सीवेज सफाई पूरी तरह गैरकानूनी है। अगर किसी व्‍यक्ति को सीवर में उतारना ही पड़ जाए, तो उसके लिए कई तरह के नियमों का पालन जरूरी हैं। कहने का अर्थ है कि स्पेशल कंडीशन में सफाई कर्मी को क्या व्यवस्था मिलनी चाहिए:

  • कर्मचारी का 10 लाख रुपये का बीमा होना चाहिए
  • कर्मचारी से काम की लिखित स्वीकृति लेनी चाहिए
  • सफाई से एक घंटे पहले ढक्कन खोलना चाहिए
  • प्रशिक्षित सुपरवाइजर की निगरानी में ही काम होगा
  • ऑक्सीज़न सिलेंडर, मास्क और जीवन रक्षक उपकरण देने होंगे

इन तमाम प्रतिबंधों और कंडीशन के बावजूद अपने-अपने हिसाब से मज़दूरों को सैप्टिक टैंक या सीवर में उतार दिया जाता है, जिसके बाद सरकारी आंकड़े तो कुछ और ही गवाही देते हैं।

दिल्ली और हरियाणा में सरकारें  मशीनों का इस्तेमाल करने का दावा करती हैं, लेकिन ये भी सच है कि ऐसे उदाहरण गिने-चुने ही हैं। हालांकि ये हादसे पूरी तरह से केंद्र और राज्य सरकारों की मज़दूरों के प्रति अनदेखी बयां करती है। सीवर में मौत के मामले में राजधानी और हरियाणा का रिकॉर्ड भी बेहद खराब है ।

पूरे देशभर मे सीवर में हो रही मौतों के लिए आंदोलन करने वाली संस्था ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’  के राष्ट्रीय संयोजक और रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित बेज़वाड़ा विल्सन से जब हमने बात की तो उन्होंने मोदी सरकार पर तीखा हमला करते हुए कहा कि इस सरकार से कुछ भी पूछो तो कहती है कि आकड़े नहीं हैं। उन्होंने मंत्री द्वारा ये कहे जाने पर नाराजगी जताई कि उन्हें ये जानकारी नहीं की अभी भी कोई हाथ से मौला ढोने का भी काम करता है।

विल्सन और उनका संगठन द्वारा द्वारा एक्शन 2022 नाम से 75 दिवसीय राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाया गया था। वो आगे कहते हैं कि ये सरकार की नौतिए और संवैधानिक जिम्मेदारी है कि कोई भी हाथ से मौला न ढोए लेकिन इन्हें  सफाई कर्मचारी की कोई चिंता नहीं है। सरकार जब भी सफाई की बात करती है तब सफाई मज़दूर की चर्चा नहीं करती है। केवल यह कहती है कि इतने शौचालय बना दिए लेकिन उन्हें  कौन और कैसे सफाई करेगा इसपर चर्चा भी नहीं करती है।

आगे उन्होंने कहा कि 2014 में, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत कैसे की थी? मिशन के तहत शौचालयों के निर्माण पर कई लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए परन्तु फिर भी मशीनीकरण [मानव मल को मैनेज करने] पर एक पैसा भी नहीं खर्च किया गया। इतना ही नहीं, हाथ से मैला उठाने वालों के पुनर्वास पर भी एक रुपया नहीं किया गया है। इससे केवल यही पता चलता है कि बुनियादी तौर पर केंद्र गलत बोल रही है। वो चाहे तो सफ़ाई कर्मचारियों की बेहतरी के लिए काम कर सकती है।

सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन  के अनुमान के अनुसार मीडिया रिपोर्टों के आधार पर लगभग 2000 मैला ढोने वाले सफाई कर्मी हर साल मरते हैं। जबकि इसमें सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय मौतों की संख्या के पूरे रिकॉर्ड शामिल नहीं है।

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