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50 साल बाद भी, किलवेनमनी की छाया हमारे गणतंत्र पर मंडरा रही है

25 दिसंबर, 1968, को जिसे 'काला गुरुवार' कहा जाता है, ने स्वतंत्र भारत में दलितों के खिलाफ पहला सामूहिक अपराध देखा, जो कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सम्मानजनक मजदूरी के लिए लड़ रहे थे।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Socialist India

पी. श्रीनिवासन, गाँव के एक वयोवृद्ध कर्मचारी जो मृतकों का अंतिम संस्कार करते हैं उनका कुछ वर्षों पहले एक साक्षात्कार लिया गया था जिसमें उन्होंने 26 दिसंबर, 1968 को उस अंधेरे से भरी सुबह का जिक्र किया जब तमिलनाडु के तंजावुर जिले के एक गैर-महत्वपूर्ण गांव किलवेनमनी से अंतिम संस्कार के लिए शव आने  लगे थे।

वेट्टियान नामक गाँव की कर्ताधर्ता जो अब 60 के करीब है, उन्हें अभी उनकी संख्या याद है "वे कुल 42 लाशें थीं, बुरी तरह से जल गईं थी।" बदबू बहुत भयानक थी, भूमि के एक भूखंड की ओर इशारा करते हुए कहा कि उनका अंतिम संस्कार वहां किया गया था, और "वे सभी दलित थे, एक जातिगत संघर्ष में मारे गए थे, मैंने उनका इसी मैदान में अंतिम संस्कार किया था।"

श्रीनिवासन, तब 23 वर्ष के थे, उन्होंने उस 1968 के उस 'काले गुरुवार' का ज्वलंत विवरण पेश किया था, वह दिन जो उनके दिमाग में घर कर गया था।

25 दिसंबर, 2018, को 1968 में उस 'काले गुरुवार' के 50 साल पूरे हो गए हैं, जिसे स्वतंत्र भारत में दलितों के पहले नरसंहार के रूप में याद किया जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सम्मानजनक वेतन की लड़ाई लड़ते हुए दलित शहीद हो गए। इन सभी भूमिहीन किसानों ने क्षेत्र में कृषि उत्पादन में वृद्धि के बाद उच्च मजदूरी के अभियान में खुद को संगठित करना शुरू कर दिया था।

इस पूरे प्रकरण की बर्बरता को कई लोगों ने याद किया है।

महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक कार्यकर्ता और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमन एसोसिएशन की नेता, मैथिली शिवरामन ने अपने लेखों और निबंधों के माध्यम से अत्याचारों के बारे में बताने के लिए बड़े पैमाने पर लिखा है। घटना के बारे में उनके लेखन का एक संग्रह ‘हॉन्टेड फ़ॉर फायर’ नामक एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हुआ है।

दलितों के नरसंहार के सबसे भीषण पहलुओं में से एक था बच्चों की हत्या। कवि और लेखक, मीना कंदासामी कहती हैं, नरसंहार "जाति व्यवस्था की क्रूरता को उजागर करता है, साथ ही राज्य मशीनरि की क्रूरता को भी उजागर करता है।"

2002 के गुजरात नरसंहार की हमारी यादों से, हम उन बच्चों के शवों को भी नहीं भूल सकते हैं, जिन्हें एक-दूसरे की बगल में लिटाया गया था, जिन्हें एक दूसरे के साथ लिटाने की व्यवस्था की गई थी... उन सभी को जला दिया गया था। वास्तव में, सिर्फ यही नहीं था कि बच्चों को एक झोंपड़ी में बंद कर दिया गया था और उन्हें जला दिया गया था, लेकिन इस मामले में एक एपिसोड है जिसे किलवेनमनी में कोई भी आपको बार-बार बता सकता है- एक हताश प्रयास में बच्चों की माताओं ने कैसे बच्चों को बचाने के लिए उन्हे बाहर फेंक दिया था, इस उम्मीद में कि शायद कोई बच्चा बच जाए, और इस उम्मीद में कि शायद भीड़ में कोई ऐसा होगा जिसमें किसी बच्चे को बचाने की मानवता होगी। लेकिन उन्होंने बच्चे को टुकड़े-टुकड़े कर दिए और बच्चे को वापस झोपड़ी में फेंक दिया और आग लगा दी।

किलवेनमनी के शहीदों को भुलाया नहीं जा सका है। उनकी याद में वहां एक स्मारक बनाया गया है, जहां हर साल लाल बैनर के नीचे लोगों का एक बड़ा जमावड़ा होता है- मृतकों को याद करना और संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया जाता है। देश में दलित आंदोलन के फिर से उभरने की वजह से अम्बेडकरवादी संगठनों के भी यहां कार्यक्रम देखे गए हैं। तमिलनाड़ु के इस गाँव में 1969 में निर्मित इस पहले स्मारक का उद्घाटन पश्चिम बंगाल में शासित गठबंधन सरकार के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु ने किया था।

खूनी घटनाओं पर एक नज़र डालें तो हम पाते हैं कि - कम्युनिस्टों को छोड़कर - हर किसी ने दलितों को धोखा दिया है।

वहाँ पुलिस मौजूद थी, जो लोगों के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए थी, लेकिन वह तो उन लोगों की सहायता कर रही थी जो हत्यारी भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने न केवल हलके मामले दर्ज किए, बल्कि हर उस गवाही को भी खारिज कर दिया जिसमें आरोपियों को आसानी से छूट जाने के लिए पर्याप्त रास्ते उपलब्ध कराए गए थे। अपराधियों के नेता एक गोपाल कृष्ण नायडू थे, जो क्षेत्र के एक प्रभावशाली कांग्रेस नेता थे। पार्टी उस वक्त केंद्र और कई राज्यों में शासन कर रही थी। तमिलनाडु के पहले द्रविड़ मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुराई ने घटनास्थल का दौरा किया और कहा: "लोगों को इसे भूल जाना चाहिए क्योंकि ये एक बुरा सपना था या बिजली की डरावनी चमक थी"।

न्यायालयों में लंबे समय से चली आ रही सुनवाई पहले से अनुमानित थी।

इस तथ्य के बावजूद कि धान उत्पादक संघ के एक नेता के नेतृत्व में नरसंहार के अपराधी वाहनों में हथियारों और ज्वलनशील सामग्री से लैस होकर वहां पहुंचे थे, और इस तथ्य के बावजूद कि इस भयावह घटना के गवाहों के पास घटना का जटिल विवरण था। पुलिस और न्यायपालिका के समक्ष, उन सभी अपराधियों को अंततः अदालतों द्वारा बरी कर दिया गया। अदालतों द्वारा उपयोग की जाने वाली एक विशिष्ट दलील आज भी कानों में गूंजती है: वे सभी उच्च जाति के लोग थे और यह अविश्वसनीय लगता है कि वे गाँव घूमने गए होंगे।

आज, जैसा कि हम मृतकों को याद करते हैं और एक बार फिर से (एक अलग संदर्भ में प्रयुक्त क्रांतिकारी कवि के शब्दों में) 'स्वर्ग और पृथ्वी को दहलाने के लिए' हम सभी प्रकार के शोषण और उत्पीड़न को खत्म करने के लिए संकल्प लेते हैं, यह एक बहुत ही परेशान करने वाला अहसास है कि किलवेनमनी सिर्फ एक गांव का नाम नहीं है। यह एक तरह का टेम्प्लेट बन गया है, जिसे हर कोई आज़ भी अपनी आँखों के सामने घुमता देखता है।

किलवेनमनी की घटना 1968 में हुई थी, लेकिन कोई भी यह कह सकता है इसने 1978 में विल्लुपुरम में खुद को दोहराया, यह चंडूर, बथानी टोला, बाथे, कुम्हेर में हुआ और हर जगह हो रहा है। दलितों के खिलाफ सामूहिक अपराधों के मामलों में कोई भी सरसरी निगाह हमें बताती है कि यह घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि यह एक नियम बन गया है।

1991 में त्सुंदुर, गुंटूर, आंध्र प्रदेश का मामला लें, जिसने 1991 में तब सुर्खियां बटोरी थीं, जब आठ दलितों पर सवर्ण रेड्डीज की 400-मजबूत सशस्त्र हिंसक भीड़ ने हमला कर दिया था, माना जाता है कि यह  दलितों को सबक सिखाने के लिए किया गया था। विशेष अदालतों का निर्णय - कई मायनों में 'ऐतिहासिक' है – ए.पी. हाई कोर्ट ने 2014 में मामले में शामिल सभी अभियुक्तों को 'साक्ष्य की कमी' के लिए बरी कर दिया था।

इसके अलावा, कुम्हेर (राजस्थान) में दलितों का नरसंहार जो 1992 में हुआ था, जब ऊंची जाति के लोगों ने भरतपुर के कुम्हेर शहर में एक पंचायत में इकट्ठा होकर दलित इलाकों पर हमला किया था। इन हमलों में 17 दलित मारे गए थे। इस मुख्य कुम्हेर हत्याकांड से जुड़े मामले की सुनवाई अभी भी हो रही है। इस बीच, स्थानीय दलित युवाओं के खिलाफ प्रमुख समुदाय द्वारा दायर एक जवाबी मामला पहले ही तय किया जा चुका है और उन्हें पांच साल जेल में बिताने होंगे।

चंडूर के फैसले से एक साल पहले, पटना उच्च न्यायालय ने मियापुर नरसंहार में 10 में से नौ आरोपियों को  साक्ष्य की कमी’के लिए निचली अदालत के आदेश को पलट कर बरी कर दिया था। (जुलाई 2013) मियापुर नरसंहार एक प्रमुख नरसंहार था जिसमें रणवीर सेना के लोगों ने जहानाबाद के सेनारी गांव में पहले हुए नक्सली हमले का बदला लेने के लिए 32 लोगों की हत्या कर दी थी, जिनमें ज्यादातर दलित थे। लगभग 400-500 लोगों ने गांव में प्रवेश किया था और 16 जून 2000 को ग्रामीणों पर गोलीबारी शुरू कर दी थी।

उसी वर्ष पटना उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के एक अन्य फैसले को पलट दिया, जिसमें नवंबर 1998 में सीपीआई (एमएल) के 10 कार्यकर्ताओं की हत्या में शामिल 11 अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया था।

बथानी टोला नरसंहार में भी यही उलटफेर देखा गया था - जिसमें 23 आरोपी शामिल थे - और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार, जिसमें 58 मौतें हुईं थी। उपरोक्त सभी मामलों में, रणवीर सेना के शामिल होने की बात कही गई थी, लेकिन इन्हें भी “सज़ा से आजाद” कर दिया गया था।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि निचली अदालतों ने अभियुक्तों को दोषी ठहराया था - जिसे बाद में उच्च न्यायालय ने उलट दिया - लेकिन मामलों के एक करीबी अध्य़यन से यह स्पष्ट हो जाता है कि खामियों को जानबूझकर छोड़ दिया गया था जो अभियुक्तों को सुविधा प्रदान करती थी। उदाहरण के लिए, पुलिस ने मुख्य आरोपी रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर सिंह "मुखिया" को "फरार" बताया। यह अलग बात है कि यह खतरनाक अपराधी 2002 से आरा जेल में बंद था।

यहां यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब 2004 में नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला था, तब उन्होंने जो पहला काम किया था, वह न्यायमूर्ति अमीर दास आयोग को भंग करना था जबकि  वह अपनी अंतिम रिपोर्ट के साथ लगभग तैयार था। बाथे नरसंहार के तुरंत बाद आयोग को नियुक्त किया गया था और इस आयोग को रणवीर सेना की विभिन्न मुख्यधारा के राजनीतिक पार्टियों से प्राप्त राजनीतिक संरक्षण के बारे में बहुत जानकारी मिली थी।

कोई भी लगातार कर्नाटक के कंबालापल्ली या महाराष्ट्र में खैरलांजी या गुजरात के थानगढ़ की हत्याओं के बारे में बात कर सकते हैं।

कुछ समय पहले, दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1984 में सिखों की हत्याओं में सज्जन कुमार को सजा सुनाते हुए बड़े पैमाने पर अपराधों और राजनीतिक संरक्षण के संबंध में एक चौकस अवलोकन किया। “बड़े पैमाने पर अपराधों के लिए जिम्मेदार अपराधियों ने राजनीतिक संरक्षण का आनंद लिया है और अभियोजन और सजा से बचने में कामयाब रहे हैं। ऐसे अपराधियों को न्याय दिलाना हमारी कानूनी व्यवस्था के लिए एक गंभीर चुनौती है

इस तथ्य को रेखांकित करते हुए कहा कि "न तो मानवता के खिलाफ अपराध और न ही नरसंहार हमारे अपराध के घरेलू कानून का हिस्सा है", कि इन खामियों को तत्काल संबोधित करने की जरूरत है। इसने पूरे देश में (1984 में) लगभग 2,733 सिखों की हत्या और लगभग 3,353 घटनाओं को भी सूचीबद्ध किया है। पंजाब, दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सामूहिक हत्याएं हुई, 1993 में मुंबई में, 2002 में गुजरात में, 2002 में कंधमाल, ओडिशा में और 2013 में यूपी के मुजफ्फरनगर में सामूहिक हत्याओं का एक परिचित पैटर्न है। "

शायद यह किसी को भी लग सकता है कि माननीय न्यायालयों को किलवेनमनी, विल्लुपुरम कुम्हेर, बथानी टोला, चंडूर आदि के नामों को भी अपने फैसले में शामिल करना चाहिए था और साथ यह रेखांकित करना चाहिए था कि सड़न कितनी गहरी है।

ऐसा कहा जाता है कि किलवेनमनी की छाया स्वतंत्र भारत में दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार के आसपास लगातार मंडराती रही है।

सवाल उठता है कि यह कब तक चलता रहेगा?

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