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वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच एकता और उम्मीद की राह दिखाते ALBA मूवमेंट्स 

सामाजिक आंदोलनों का यह महाद्वीपीय मंच मौजूदा स्थिति का विश्लेषण करने और अगले दौर को लेकर रणनीतियों को तय करने के लिए अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में अपनी तीसरी महाद्वीपीय सभा का आयोजन करने जा रहा है।
ALBA
एएलबीए मूवमेंट्स ऑपरेटिव सेक्रेटरी के सदस्य लौरा कैपोटे और गोंज़ालो आर्मूआ।

एएलबीए मूवमेंट नामक यह महाद्वीपीय मंच 27 अप्रैल से लेकर 1 मई तक अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में अपनी तीसरी महाद्वीपीय सभा का आयोजन करने जा रहा है। अमेरिका भर के लोगों के आंदोलनों से बना यह मंच इस क्षेत्र और दुनिया भर की मौजूदा राजनीतिक दशा और दिशा पर चर्चा करने, विगत अवधि के काम का मूल्यांकन करने और इस मंच के ज़रूरी कार्यों का विश्लेषण करने को लेकर 200 से ज़्यादा प्रतिनिधियों का स्वागत करेगा। 

पांच दिनों तक चलने वाली इस सभा के दौरान भाग लेने वाले प्रतिनिधि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेंगे, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्थिति पर चर्चा करेंगे, समितियों में काम करेंगे और आम लोगों के लिए बनायी गयी मंडी में भाग लेंगे।

एएलबीए की आख़िरी असेंबली 2016 में कोलंबिया के बोगोटा में हुई थी। उस सभा के बाद दुनिया के हालात में काफ़ी बदलाव आ चुके हैं। आर्थिक अस्थिरता, भूख और बेरोज़गारी से पीड़ित लाखों लोगों के साथ पूंजीवाद का संकट और ज़्यादा गहरा हो गया है, और वजूद से जुड़ी कोविड-19 महामारी और यूक्रेन में चल रहे युद्ध जैसी नयी-नयी चुनौतियां सामने आ गयी हैं।

इसी तरह, लैटिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों में पेरू, होंडुरास, चिली, अर्जेंटीना, बोलीविया, मैक्सिको, निकारागुआ और वेनेज़ुएला में चुनावी जीत के साथ प्रगतिशील क्षेत्रों ने काफ़ी प्रगति की है।

एएलबीए मूवमेंट्स बढ़ी हुई वैश्विक अस्थिरता के इस परिदृश्य में न सिर्फ़ इस क्षेत्र के लोगों के बीच, बल्कि दुनिया के लोगों के बीच एकता को मज़बूत करने की ज़रूरत की पुष्टि करता है। इस ऐतिहासिक सभा की अपेक्षाओं के बारे में और ज़्यादा समझने के लिए पीपुल्स डिस्पैच ने एएलबीए मूवमेंट्स के संचालन सचिवालय के सदस्यों- गोंज़ालो आर्मूआ और लौरा कैपोट के साथ बातचीत की। यहां पेश है वह बातचीत:

पीपुल्स डिस्पैच: हम तीसरी महाद्वीपीय सभा की पूर्व संध्या पर आपसे बातचीत कर रहे हैं। महामारी के दो साल बाद और बिना आमने-सामने की बैठकों के विगत कुछ सालों के बाद इस सभा को लेकर अपनी अपेक्षाओं के बारे में हमें कुछ बतायें।

गोंजालो अर्माआ: ठीक है, पहली बात तो यह कि उम्मीदें बहुत ज़्यादा हैं, क्योंकि हम एक महामारी से उबरकर एक दूसरे के सामने आ रहे हैं। इस दरम्यान सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों के कारण हमें तक़रीबन दूर से ही एक साथ काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसलिए, हम उन साथियों का इंतज़ार कर रहे हैं, जो हर एक क्षेत्र में, हर एक देश में आंदोलनों की ज़मीन तैयार कर रहे हैं, आख़िरकार हम एक साथ आ रहे हैं और बैठक करने जा रहे हैं।

कई और अपेक्षायें इसलिए भी हैं, क्योंकि हम अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अनिश्चितता और बदलाव के समय में जी रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारा विश्लेषण यह है कि हम तेज़ी से भू-राजनीतिक लिहाज़ से बदलाव की प्रक्रिया की ओर बढ़ रहे हैं या कम से कम उस बहुध्रुवीय दुनिया की एक शुरआत की तरफ़ तो बढ़ ही रहे हैं, जो अपने साथ कई चुनौतियां ले आ रही है, लेकिन उन चुनौतियों के साथ कई संभावनाओं के दरवाज़े भी खुल रहे हैं।

लैटिन अमेरिका में एक के बाद मिलती चुनावी जीत की एक श्रृंखला ने एक लोकप्रिय, प्रगतिशील प्रकृति की नये सरकारों के आगमन की दस्तक दे दी है या कम से कम उन देशों में नवउदारवादी आधिपत्य पर रोक तो लग ही गयी है, जिनके बारे में हम कह सकते हैं कि 1990 के दशक और 21वीं सदी के पहले दशक के दौरान ये देश नवउदारवाद में गहरे स्तर पर डूबे रहे थे। हम बात कर रहे हैं चिली और पेरू की। हम देख सकते हैं कि तख़्तापलट के बाद बोलीविया में लोकतंत्र की बहाली भी हुई है और हमारे सामने ब्राजील और कोलंबिया में होने वाले आगामी चुनावों की एक श्रृंखला भी है, जहां नयी ताकतों के सत्ता में आने की भी संभावनायें हैं। इसमें हमें होंडुरास (शियोमारा कास्त्रो) की जीत को भी जोड़ना होगा, जिसने ज़ेलया को हटाने वाले तख़्तापलट को मात दी थी।

ठीक इसी दौरान जनांदोलनों के दायरे में नये संघर्ष भी हुए हैं और हमने उन नये संघर्षों के साथ काम करने वाले लोगों को भी देखा है, जो महामारी से पहले और उसके दौरान सड़कों पर उत आये हैं, क्योंकि सरकारों के पास स्वास्थ्य, भोजन और मुनासिब रोज़गार आदि से जुड़े बुनियादी मांगों का कोई जवाब ही नहीं था। हम इस बात की अपेक्षा करते हैं कि हम इस सभा में एक के बाद एक या एक साथ कम समय में हुई इन तमाम नयी घटनाओं का हल ढूंढ़ सकते हैं। हमें इस बैठक की इसलिए ज़रूरत है, ताकि हम इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकें, इसके लिए योजना बना सकें और उन साथियों से भी मिल सकें, जो सालों से काम कर रहे हैं, जो हर क्षेत्र में लड़ रहे हैं, ताकि हम इन आंदोलनों से लैटिन अमेरिका की एकता को क़ायम रख सकें।

पीपुल्स डिस्पैच: एएलबीए मूवमेंट्स जिन छह मार्गदर्शक सिद्धांतों के साथ अपने काम को अजाम देता है, वे हैं: 1. यूनिटी ऑफ़ आवर अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीयता; 2. वैचारिक-सांस्कृतिक लड़ाई और उपनिवेशवाद; 3. धरती मां की हिफ़ाज़त और लोगों की संप्रभुता; 4. अच्छे जीवन के लिए अर्थव्यवस्था; 5. लोकतंत्रीकरण और जनशक्ति का निर्माण; 6. जन-नारीवाद। क्या आप इस लिहाज़ से इन सिद्धांतों की अहमियत और प्रासंगिकता के बारे में कुछ बता सकती हैं ?

लौरा कैपोटे: ठीक यही वह सवाल है, जिस पर हम इस सभा के साथियों के साथ मिलकर काम करने में दिलचस्पी रखते हैं। एएलबीए के इन छह सिद्धांतों या राजनीतिक कार्यक्रम का विस्तार उन मुख्य कार्यों में से एक था, जो 2016 में कोलंबिया में दूसरी विधानसभा से निकला था। फिर, राजनीतिक समन्वय और सचिवालय में हमने अलग-अलग देशों के साथियों के साथ अलग-अलग बैठकों और मामलों को लेकर काम किया, ताकि इन सिद्धांतों को विस्तार दिया जा सके और इन्हें व्यापक बनाया जा सके।

लैटिन अमेरिका के सामाजिक और जनांदोलनों में हमारे साथ कुछ ऐसा होता है, जो हमारी राय में हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरियों में से एक है, और वह कमज़ोरी यह है कि कई बार हम हर क्षेत्र, विभिन्न दौर, अलग-अलग पीढ़ियों की समस्याओं पर नज़र डालते हैं और हमें किसी भी तरह से वह आम तत्व नहीं मिल पाते हैं, जो महिलाओं, नौजवानों, किसानों, आदिवासी महिलाओं आदि के संयुक्त संघर्ष को एक साथ आगे बढ़ाने की गुंज़ाइश बनाते हों। हम ख़ुद को अलग-अलग क्षेत्रों के हिसाब से बंटे हुए पाते हैं।ज़ाहिर है कि हम इससे उस ताक़त के लिहाज़ से कमज़ोर हो जाते हैं, जिसके ज़रिये हम अपने दुश्मन को जवाब दे सकते हैं।

यही वजह है कि एक बड़ी छतरी के रूप में इस ढांचे के भीतर कार्य करने के लिहाज़ से हमने इन छह सिद्धांतों को को व्यापक रूप दिया है, जिसमें कि हमारे संगठनों की ओर से किये जा रहे ज़्यादातर संघर्ष शामिल हो सकें। इस सभा के दौरान यह देखने के लिए हमारे पास इन छह सिद्धांतों पर काम करने के लिए पूरा दिन है कि कौन से तत्व ग़ायब हैं, और दूसरी नयी संभावना और क्या-क्या हो सकती है।

हम इस महाद्वीप में इस नये संदर्भ के साथ आयी नयी-नयी समस्याओं पर नज़र रख रहे हैं, मसलन- कहीं ज़्यादा हिंसक, अधिकार-विरोधी और प्रतिगामी प्रकृति वाले तेज़ी से फ़ासीवादी या नव-फ़ासीवादी दक्षिणपंथी की वापसी। हमें इसका जवाब देने के लिए नये तरीक़ों के बारे में सोचना होगा। लोगों के नज़रिए और एकता, जीवन और सम्मान के उपक्रम के निर्माण के नज़रिए के साथ हमें इस आक्रामक तरीके से आगे बढ़ने के नये-नये तरीक़े तलाशने होंगे।

इस नये संदर्भ का मतलब यह है कि हमारे छह सिद्धांतों के मामले में कार्य के इन्हीं क्षेत्रों के भीतर नये दृष्टिकोण, नये सिद्धांत, नये रुख़ अख़्तियार करने होंगे, और इसका अर्थ यह भी है कि हमें ख़ुद में ज़रूरी सुधार भी करना होगा।

हम बार-बार किये जाने वाले उस तरह के मूल्यांकन को भी अहमियत देते रहे हैं, जिसमें तात्कालिकता के लिहाज़ से कुछ चीज़ों के मुक़ाबले दूसरी चीज़ें कहीं ज़्यादा प्राथमिक हो सकती हैं। इसके अलावे, वे चीज़ें भी, जो एएलबीए के ढांचे के भीतर इन संगठनों की एकता को अर्थवान बनाते हैं, या किसी तरह से एक इकाई के रूप में हमारे समन्वय में आगे बढ़ने वाले होते हैं और इसलिए भी इन पर हमारी नज़र रहती है कि हम उन कुछ प्लेटफ़र्मों में से एक हैं, जो महामारी के बावजूद मुश्किल काम को जारी रखे हुए है।  

पीपुल्स डिस्पैच: वैश्विक अनिश्चितता के इस पल में लैटिन अमेरिका उम्मीद, आनंद और बदलाव की संभावना का प्रकाशस्तंभ रहा है। इस लिहाज़ से आंदोलनों का यह मंच क्या दिखाता है, आगे आने वाले प्रमुख कार्य क्या हैं, और आप ज़मीनी तैयारी को जारी रखने की चुनौती को कैसे स्वीकार करना चाहते हैं?

गोंजालो अर्माआ: बिल्कुल, असल में इन आंदोलनों के लिए जो बुनियादी और केंद्रीय कार्य है और जिसकी ज़रूरत आज पहले से कहीं ज़्यादा महसूस की जा रही है, वह है-इस पूरे क्षेत्र के लोगों को एकता के सूत्र में पिरोना, क्योंकि हम देखते हैं कि इस स्तर पर पूंजीवाद पूरी दुनिया में सबसे ऊपर है, यह पूरी दुनिया को अपने आगोश में लिये हुआ है और दुनिया के लोग और ख़ासकर लैटिन अमेरिका के लोग विभिन्न तरह  के उत्पीड़न, शोषण और लूट का सामना कर रहे हैं, लेकिन यह उसी पैटर्न पर चल रहा है, जो पैटर्न एक सिस्टम की ख़ासियत हता है।

इसीलिए, एकता की यह ज़रूरत घोषणा-पत्रों से कहीं आगे जाती है। इसका एक ऐतिहासिक ज़रूरत से सम्बन्ध है, क्योंकि कोई भी देश, कोई भी राष्ट्र राज्य अगर विभिन्न देशों के साथ एकजुट नहीं होता, अलग-अलग लोगों के साथ नहीं जुड़ता,वह मुक्ति की प्रक्रिया, समानता की प्रक्रिया, अधिकारों के विस्तार की प्रक्रिया को अंजाम नहीं दे सकता।

हम देख रहे हैं कि कोई भी राष्ट्र राज्य जिस रूप में 19वीं और 20वीं शताब्दी में बना था, वह उस रूप में इन अधिकारों के विस्तार की मांग का जवाब नहीं दे सकता, और कोई भी राष्ट्रीय प्रक्रिया उन संरचनात्मक समस्याओं को हल नहीं कर सकती, जो इस समय दुनिया के सभी लोगों के सामने मुंह बाये खड़े हैं। हम एक ऐसे पल की बात कर रहे हैं, जहां दुनिया के सबसे अमीर 1% लोगों में असमानता की दर पहले से कहीं ज़्यादा बदतर है। हम बात कर रहे हैं उस पल की जब धरती माता, प्रकृति मानव जीवन और सामान्य जन-जीवन की स्थिरता के मामले में अपनी सीमा तक पहुंच रही है। इसके अलावा, हम यह भी देख रहे हैं कि इस प्रणाली से पैदा हुई सामाजिक गिरावट हिंसा के भोंडे स्तर को बढ़ा रही है।

इस महाद्वीपीय एकता की ज़रूरत लोगों के एक सामान्य दुश्मन का सामना करने को लेकर है। लोकप्रिय अर्थव्यवस्था, एकजुटता, मुक्ति की प्रक्रियाओं के संदर्भ में इस तरह के संगठनात्मक संघर्ष की प्रक्रियाओं को फिर से थामने की ज़रूरत है। शायद लैटिन अमेरिकी व्यवस्था के विकल्पों का एक निरंतर स्रोत होने के पीछे का कारण यह है कि जब यह 19वीं शताब्दी में स्वतंत्रता की प्रक्रिया में मुक्त हुआ था, तो यह मुक्ति समग्र रूप से मिली थी, तब भी इसकी ऐसी कोई सीमा नहीं थी, जिन सीमाओं को हम आज जानते हैं, और ये ही सीमायें उस समय के सबसे बड़े साम्राज्य, स्पेनिश उपनिवेश की हार का कारण बनी थीं।

जिन ऐतिहासिक तजुर्बों, संघर्षों की एक निरंतर प्रक्रियाओं से गुज़रकर ख़ुद उन्हें जीत तक पहुंचा देती है, ये तजुर्बे और संघर्ष आज भी लैटिन अमेरिका के लोगों के साम्राज्यवाद के विभिन्न रूपों, उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ उस लड़ाई में आज भी व्यक्त होते हैं, और यह आज भी जारी है।

हमारे पास संघर्ष के अनुभवों का एक संचय है, संगठनात्मक अनुभवों का एक ऐसा संग्रह है, जिन्हें हमें उन महाद्वीपीय तजुर्बों में बदल देने की ज़रूरत है, जिन्हें क्षेत्रीय अनुभव बनना चाहिए और साथ ही बाक़ी महाद्वीपों के अन्य लोगों के साथ एकता तक जिसका विस्तार किया जा सकता है।

यही वजह है कि एएलबीए के सामने महाद्वीपीय एकता की यह चुनौती मौजूद है। लेकिन, साथ ही यह सभा वैश्विक रूप से पिछड़े देशों, अफ़्रीका के साथियों, एशिया के लोगों के साथ-साथ उन लोगों की एकता की चुनौती का हल देने जा रही है, जो कथित रूप से अति विकसित दुनिया, यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर भी उत्पीड़ित होते रहे हैं। जैसा कि मैंने शुरुआत में ही कहा है कि उस 1% के बाहर जो कुछ भी बचता है, सिस्टम उसे तेज़ी से तबाह कर रहा है।इसी 1%,के पास धन है, ज़ायदाद है और सबसे बढ़कर जो इस धरती पर बहुत ही कम लोगों के लिए एक उपक्रम को लेकर सोच रहा है।

चुनौती बहुत बड़ी है, लेकिन हमें उन ऐतिहासिक उपक्रम पर भरोसा है, जो हमें विरासत में मिले हैं और साथ ही साथ लैटिन अमेरिका के हमारे लोगों और दुनिया के अन्य लोगों के संघर्षों से भी मिले हैं।

लौरा कैपोटे: एक अहम तत्व, जिसकी हमने कई बार चर्चा की है, वह यह है कि आगे बढ़ने के लिए जिन क्षितिज, संभावनाओं और आदर्शवाद की ज़रूरत है, उसकी ज़बरदस्त कमी है। ऐसा लगता है जैसे हम पहले ही हार चुके हों।

बतौर एएलबीए हम एक बहुत ही अहम ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। एएलबीए उन दो सबसे महान समकालीन क्रांतिकारियों के दिल से पैदा हुआ है, जिनके पास न सिर्फ़ अपने-अपने देशों के लिए क्रांतिकारी दृष्टि थी, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी उनके पास क्रांतिकारी नज़रिया था।

जब फिदेल और शॉवेज ने एएलबीए के बारे में सोचा था, तो उन्होंने शुरू में ही इन सरकारों को एकजुट करने को लेकर सोचा था। जब शॉवेज़ एएलबीए के भीतर इन आंदोलनों की एकता की दिशा में प्रस्ताव को लेकर आगे बढ़े थे, तब इस बात को ठीक से ध्यान में रखकर सोचा गया था कि यह मूवमेंट वास्तव में लोगों का एक साथ ले आना का एक ऐसा मूवमेंट है, जो महाद्वीपीय स्तर पर उस समन्वय को पूरा कर पायेगा, जो एकता और एक अमेरिकी सत्ता परिवर्तन को लेकर बोलिवेरियन दृष्टि की भी विरासत है।यह विरासत मुनरो सिद्धांत के मॉडल और उस मॉडल का मुक़ाबला कर पायेगा, जो संयुक्त राज्य अमेरिका हमारे इस महाद्वीप के लिए चाहता था।

इस तीसरी सभा में हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम संघर्ष जारी रखने और विभिन्न देशों में इस तरह के संघर्ष के लिए निरंतर ज़मीन तैयार करने की इच्छा को फिर से जीवंत करें, और इस बात में भरोसा भी करें कि ऐसा कर पाना मुमकिन है, जिस तरह से हमें बताया जाता रहा है कि एक दिन इस दुनिया का ही अंत हो जायेगा, हमें इस बात पर भरोसा करने के बजाय इस बात पर यक़ीन करना होगा एक दिन इस दुनिया से पूंजीवाद का अंत होता हम देख सकते हैं। सही बात तो यह है कि जैसा कि हम दिखाना भी चाहते हैं, वह यह कि हम पहले से ही पूंजीवाद का अंत दिख रहा है। हक़ीक़त तो यह है कि हम इस प्रक्रिया से गुज़रते हुए ही तो जी रहे हैं और इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी,इसके जवाब मे इतना ही कहा जा सकता है कि अराजकता होने वाली है या नहीं फिर कुछ और होने वाला है,यह समय के गर्भ में है।

यह लोगों पर और इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम क्या करने का फ़ैसला लेते हैं। मेरा मानना है कि जिन नये क्षितिज और नये आदर्शवादी लक्ष्यों की संभावना को हम अपने हाथों से संवार रहे हैं, वह भी एएलबीए की ही ज़िम्मेदारी है, क्योंकि यह उन लोगों के आंदोलनों की एक संरचना है, जिन्होंने कभी भी बतौर निजी नहीं, बल्कि बतौर समूह सोचा था और जो इस महाद्वीप के हालात को बदलने के लिए सामाजिक संगठनों और अपने ज़मीनी स्तर पर काम करना चाहते थे।

हमारी ज़िम्मेदारी एएलबीए के नाम को अपने साथ बनाये रखने की भी है। यह एक ऐसा ऐतिहासिक नाम है, जो अपने साथ उन लक्ष्यों और उद्देश्यों को आगे बढ़ा रहा है, जिन्हें फ़िदेल और शॉवेज़ ने हमारे लिए तय किये हैं और इसकी ज़िम्मेदारी इस समय हमारे कंधों पर हैं और इस सभा में हममें से हर कोई इस इन्हें अपने कंधों पर उठाना चाहता है।

इसीलिए, यह तीसरी सभा ख़ासकर ऐसे वक़्त में बेहद अहम हो गयी है,जब, महामारी के बाद ऐसा लगता है कि व्यक्तिवाद की जीत और भी स्पष्ट रूप में दिखने लगी है। हम उस व्यक्तिवाद को इस सामूहिक निकाय के साथ जवाब देना चाहते हैं, जो उस समाजवाद के लिए लड़ रहा है, जो एक ज़रूरी उपक्रम के तौर पर दिखता है; ऐसा समाजवाद,जो हमारे ख़ुद का है; ऐसा  समाजवाद, जिसके चेहरे मूल निवासी, अश्वेत, महिला, नारीवादी और किसान हैं। यह एक ऐतिहासिक पल है और हमें जिस उपक्रम की चाहत है, उसकी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी का वक़्त है।

साभार : पीपुल्स डिस्पैच

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