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अबकी बार जॉनसन, ट्रम्प, एर्दोगन, नेतन्याहू, डुटर्टे की सरकार

पीएम मोदी की सत्तावादी और तानाशाह लोगों के प्रति अजीब लेकिन अनुमानित आत्मीयता समझ आती है।
Abki Baar Johnson, Trump

भारत में ज़्यादातर लोगों ने अल्बर्टो फुजीमोरी के बारे में कभी नहीं सुना होगा। लेकिन वह काफ़ी हद तक राजनीतिक और शैक्षणिक हलकों में उसकी वापसी की कानाफूसी हो रही है।

फ़ुजीमोरी 1990 से 2000 तक यानि दस वर्षों तक पेरू के राष्ट्रपति रहे। वे अचानक अमीर जमींदारों और कैम्पेसिनो यानि किसानों के बीच हुए जबर्दस्त टकराव के युग में अपनी पार्टी “चेंज 90” के साथ पेरू के राजनीतिक परिदृश्य में उभरे। इस टकराव के परिणामस्वरूप गुरिल्ला युद्ध हुआ। उन्होंने 1990 का चुनाव सुरक्षा और आर्थिक विकास के लोकलुभावन नारे के साथ जीता था। जबकि फुजिमोरी के निज़़ाम के तहत पेरू की अर्थव्यवस्था अमीरों के लिए फली-फूली और ग़रीबों को इसका नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि देश को तेज़ी से बड़े पैमाने पर मुद्रास्फीति में धकेल दिया गया था।

संसद से असंतुष्ट फुजिमोरी ने सैन्य समर्थन से तख्तापलट कर दिया और आपातकाल की घोषणा कर दी, कांग्रेस को भंग कर दिया, और एक नए संविधान बनाने का आह्वान कर दिया था। उनके यानि फुजिमोरी के राजनीतिक सहयोगियों ने अधिकतर संसदीय सीटें को जीत लिया और उसने राष्ट्रपति को लगभग निर्विरोध शासन करने की अनुमति दे दी थी। उनकी सरकार ने संदिग्ध गुरिल्लाओं के ख़िलाफ़ गुप्त सैन्य मुकदमे भी चलाने शुरू कर दिए थे।

जबकि सबको यह पता था कि फुजीमोरी हत्या और मौत के घाट उतारने वाले दस्तों का सरदार है, फिर भी पेरू की बहुमत जनता ने उन्हें वोट देती रही इसलिए दुनिया भर के कई राजनीतिक वैज्ञानिकों ने उनके शासन को "चुनावी अधिनायकवाद" का लेबल दे दिया।

फुजिमोरी अब जेल में है और पेरू में लोकतांत्रिक शासन क़ायम है लेकिन फुजिमोरी जैसे नेताओं का प्रभाव अब हम पूरी दुनिया में देख रहे हैं।

राजनीतिक वैज्ञानिक टॉड लैंडमैन और नील रॉबिन्सन के मुताबिक "चुनावी अधिनायकवाद चुनाव के बहाने सत्तावादी तानाशाही की प्रवृत्ति है।" फुजीमोरी की तरह, अक्सर ये राजनेता लिखने पढ़ने में शोर मचाते हुए दिखाई देते हैं लेकिन जब वे सत्ता में आते हैं तो वे उन नीतियों को लागू नहीं करते हैं। वे चुनाव को एक स्वांग मानते हैं, विपक्ष के प्रति अहंकारपूर्ण भाषा का उपयोग करते हैं और कभी न पूरे होने वाले वादे करते हैं। फिर सत्ता में आने के बाद वे सभी विरोधों/असंतोषों को दबाने की कोशिश करते हैं जिसमें एक स्वतंत्र प्रेस के अस्तित्व को और विपक्ष को जेल में डालने की धमकी दी जाती हैं और जैसा कि फुजीमोरी के मामले में हुआ, वैसे ही वे भविष्य के चुनावों को हड़पने की कोशिश करते हैं।

इसका अनुमान लगाना मुश्किल है कि नरेंद्र मोदी कितना फुजिमोरी या एक "चुनावी सत्तावादी" बनकर निकलते हैं, लेकिन मौजूदा विश्लेषणों से पता चलता है कि वे ट्रम्प, जॉनसन, एर्दोगन, ओर्बान, नेतन्याहू, डुटर्टे जैसे नेताओं की तरह फुजीमोरी जैसी नई नस्ल के नेता हैं जिन्होंने गैर-लोकतांत्रिक विचारों और बहिष्कृत राजनीति को बढ़ावा देने वाले चुनाव जीते हैं। चूंकि वे सत्ता में रहने का समान रास्ता ही अख़्तियार करते हैं इसलिए वे एक सहज आत्मीयता भी आपस में साझा करते हैं।

हालांकि वह दूसरों के बारे में कम ही सोचते हैं, लेकिन पश्चिमी चुनावी सत्तावादी तानशाहों के प्रति मोदी की आत्मीयता विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

कुछ दिन पहले अपनी भारी जीत से कंजर्वेटिव पार्टी के नेता बोरिस जॉनसन ने "प्रधानमंत्री मोदी के साथ अपने व्यक्तिगत संबंध" को उजागर करने के लिए एक पत्र जारी किया था और "वास्तव में विशेष यूके-भारत संबंध" बनाने का वादा किया था।" जॉनसन ने ब्रिटिश भारतीय मतदाताओं को संबोधित पत्र में लिखा, "जब मैं प्रधानमंत्री मोदी के साथ था मैंने जोर देकर कहा था कि यूके और भारत दो आधुनिक लोकतंत्र हैं, जिन्हें व्यापार और समृद्धि को बढ़ावा देने, वैश्विक सुरक्षा में सुधार करने और हमारे देशों के सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।”

प्रचार के दौरान् लंदन के स्वामीनारायण मंदिर की यात्रा कराते हुए जॉनसन ने प्रधानमंत्री मोदी को "नरेंद्र भाई" कहा और सीमा पार आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत के साथ "कंधे से कंधा मिलाकर" खड़ा होने और नए भारत के निर्माण के लिए उनकी खोज में भारतीय नेता का समर्थन करने की बात कही थी।"

मोदी का समर्थन एक कंजर्वेटिव पार्टी के प्रचारक या नेता के वीडियो के रूप में सामने आया, जिसका शीर्षक था "बोरिस को हमें जीताना है"। इसमें हिंदी में संगीत के साथ मोदी और भारतीय उच्चायुक्त के चित्र थे। अपने कार्यकाल के दौरान जॉनसन द्वारा की गई नस्लवादी टिप्पणी को भुला दिया जिसे उन्होंने लंदन के मेयर होने पर दी थी और इसी तरह उनकी ब्रेक्सिट समर्थक लोगों को कुत्ते की सीटी बजानेवाले ज़ेनोफोबिया बताया था।

मोदी और जॉनसन व्यक्तिगत रूप से एक तरह का संबंध साझा कर सकते हैं, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि एक रूढ़िवादी, साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं और ऐतिहासिक रूप से नस्लवादी नीतियों वाली पार्टी अचानक से भारतीय प्रवासियों को मोह लेगी? लगभग नामुमकिन। 2016 के यूरोपीय संघ के जनमत संग्रह के दौरान समर्थक ब्रेकसीटेर्स ने एक वादा किया था कि इसे "छोड़ने" के लिए वोट देने से ब्रिटेन के करी उद्योग में काम करने के लिए दक्षिण एशियाई लोगों को अधिक कामकाजी वीजा मिलेगा। वोट के बाद, वीजा में कोई बेहतरी नहीं हुई। अभी हाल ही में, भारतीय छात्रों को अंतर्राष्ट्रीय छात्रों की सूची से हटा दिया गया जिन्हें ब्रिटेन का छात्र वीजा आसानी से मिलना था। इस बात का कोई संकेत मिलता नहीं है कि मोदी और जॉनसन की भाईगीरी नीति के मामले में कुछ ऐसा करेगी जिससे भारत या उसके प्रवासी लाभान्वित हों।

जॉनसन के मुक़ाबले राष्ट्रपति ट्रम्प से मोदी का समर्थन पाने की संभावना बहुत कम है लेकिन आम आदमी की थाह लेना भी उतना ही कठिन है।

ह्यूस्टन में "हाउडी मोदी" कॉन्सर्ट में जब मोदी ने जोश में नारा लगा दिया था, "अब की बार ट्रम्प सरकार" तो इस नारे से ट्रम्प के 2020 की वापसी का समर्थन प्रतीत होता है – यहां उन्होंने ट्रम्प के साथ एक खास संबंध होने के बारे में बात की थी। इंडिया टीवी के रजत शर्मा के साथ मई के एक साक्षात्कार में, मोदी ने ट्रम्प के प्रति अपने संबंध की बात की थी। उन्होंने कहा, “जब मैं पहली बार राष्ट्रपति ट्रम्प से मिला तो हमने व्हाइट हाउस में लगभग नौ घंटे बिताए। वे मुझे विशेष रूप से उस कमरे में ले गए जहां अब्राहम लिंकन रहते थे। मैं बहुत प्रभावित हुआ था। वहां बहुत प्यार था।”

जब ओबामा का जिक्र आया तो मोदी ने ज़ोर देकर कहा कि वे ट्रम्प थें जिन्होंने उनके साथ "परिवार के सदस्य" की तरह व्यवहार किया था। उनकी लम्बी टिप्पणियां पूरी तरह से एक राष्ट्रपति के बजाय ट्रम्प के व्यक्तित्व के बारे में थीं जिनके साथ उनसे भारत की ओर से भारत के पक्ष को लेकर बातचीत करने की उम्मीद थी।

मोदी और ट्रम्प के बीच इस बेजोड़ संबंध ने अधिकांश नीतिगत मामलों के एक्स्पर्ट्स को सोचने पर मजबूर कर दिया था। जॉनसन की बयानबाजी के विपरीत, ट्रम्प की शब्दावली में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारत और भारतीय अमेरिकी प्रवासी की मदद की बात करता हो, भारतीयों ने 2016 के चुनावों में हिलेरी क्लिंटन को भारी वोट दिया था। ट्रम्प एक अनियंत्रित हार्ड-लाइन रूढ़िवादी इंसान हैं जिन्होंने एच 1 बी वीजा कार्यक्रम और पारिवारिक पुनर्मिलन वीजा के अस्तित्व पर हमला किया है, जिस पर अधिकांश भारतीय संयुक्त राज्य में प्रवास करने पर निर्भर हैं। वर्तमान में, एचवनबी वीज़ा जारी करना और उसका नवीकरण काफी कम है और भारतीय अप्रवासियों को ग्रीन कार्ड हासिल करने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा हैं।

तो ऐसे संबंध क्या आधार हो सकता है?

चुनावी सत्तावादी तानाशाह न केवल उस रास्ते को पहचानते हैं जिसके ज़रीए वे यहां तक पहुंचे है, बल्कि वे एक दूसरे का इस बात के लिए सम्मान भी करते हैं कि उन्होंने इस रास्ते को पाने में कितने नियम तोड़े हैं। चीन के शी या सऊदी अरब के एमबीएस के विपरीत जो अपनी मताघिकार से वंचित असंतुष्ट आबादी पर शासन कराते हैं, मोदी, ट्रम्प, और जॉनसन भी समझते हैं कि चुनावी सत्तावादी तानाशाही सत्ता में शासन करने का एक अद्वितीय ब्रांड हैं।

इस तरह की ऊहापोह उनकी चुनावी निरंतरता और ताक़त बढ़ाने के लिए अच्छी हो सकती हैं, लेकिन ये वैश्विक लोकतंत्र की निरंतरता के लिए बुरा सबब ज़रुर है।

शकुंतला राव, संचार अध्ययन विभाग, न्यूयॉर्क स्टेट विश्वविद्यालय, प्लेट्सबर्ग में अध्यापन करती हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Abki Baar Johnson, Trump, Erdogan, Netanyahu, Duterte ki Sarkar

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