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इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत की पैरवी भाजपा के ख़िलाफ़ है- क्या दिग्विजय सिंह नहीं जानते?

अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने की संवैधानिकता से जुड़े सवाल देश के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हैं। सर्वोच्च अदालत ने इन प्रश्नों कि ख़ारिज नहीं किया है बल्कि इन्हें सुनवाई योग्य माना है।
इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत की पैरवी भाजपा के ख़िलाफ़ है- क्या दिग्विजय सिंह नहीं जानते?
प्रतीकात्मक तस्वीर।

एक अर्थ में दिग्विजय सिंह मौजूदा भारतीय राजनीति में सेक्युलर विचार के सेन्सेक्स कहे जा सकते हैं। उनके एक बयान से देश की राजनीति और लगभग मुख्याअनुच्छेद बन चुके राजनीतिक विचार की असल शक्लें सामने आ जाती हैं। मीडिया यूं ही इनसे एन-केन प्रकरेण एक बाइट लेने के लिए पागल नहीं रहता है। विशेष रूप से हिन्दी मीडिया जिसे नित नई संज्ञाओं से नवाजा जाता है कांग्रेस के इस दिग्गज नेता को भिन्न तरह से देश की राजनीति के लिए आवश्यक बनाए हुए है। इस कड़ी में एक और कद्दावर नेता मणिशंकर अय्यर का नाम लिया जा सकता है जिनकी बदौलत हिन्दी मीडिया के ‘राजस्व’ और भाजपा की सीटों में हमेशा बढ़ोत्तरी हुई है। हालांकि आजकल राहुल गांधी अभी भी पहले नंबर पर बने हुए हैं जिनके एक ट्वीट से हिन्दी मीडिया की बहसों का आगाज़ होता है।

दस साल मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री रहे और राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह आज की मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य में कांग्रेस के लिए ‘मुसीबत’ माने जाने लगे हैं। कांग्रेस और व्यक्तिगत तौर पर दिग्विजय सिंह के हिमायती और शुभ-चिंतक भी यह कामना करते नज़र आते हैं कि दिग्विजय सिंह कोई बयान न दें। विशेष रूप से जब चुनाव का कोई दौर आस-पास हो। भले ही वह चुनाव ग्राम पंचायतों या नगर निकायों के क्यों न हों।

लगभग सवा साल से देश किसी न किसी रूप में लॉकडाउन की गिरफ्त में है। बेतकल्लुफ़ बैठकों, आयोजनों, मेल मुलाक़ातों पर अघोषित रोक है। ऐसे में संवाद की मानवीय ज़रूरत को पूरा करने के लिए तकनीकी की मदद से ऐसे कई मंच सामने आए हैं जहां लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करने की सहूलियतें तलाश कर रहे हैं।

ऐसे ही कुछ मंच ट्विटर ने बनाए हैं। जिनमें ‘ट्विटर स्पेस’ और ‘क्लब हाउस’ जैसे कुछ मंच हाल के दिनों में बेहद लोकप्रिय हुए हैं। इसी क्लब हाउस पर सीमित लोगों के साथ हुई चर्चा में दिग्विजय सिंह ने कथित तौर पर अनुच्छेद 370 हटाये जाने की प्रक्रिया पर सवाल उठाए और अपनी यानी कांग्रेस की सरकार आने पर अनुच्छेद 370 और 35ए पर पुनर्विचार किए जाने की बात की।

इन मंचों की वैसे तो खासियत यह है कि इसमें ऐसे लोग ही शामिल हो सकते हैं जिन्हें बुलाया गया है लेकिन तकनीकी की सरहद बांधना एक जटिल काम है और आम तौर पर आयोजक भी इस बात पर ध्यान नहीं दे पाते कि कुछ अनामंत्रित या अनापेक्षित लोग भी इस चर्चा में घुसपैठ कर गए हैं। संभव है आमंत्रित लोगों में से ही किसी ने इस चर्चा के कुछ चुनिन्दा अंशों को सार्वजनिक किया हो। खैर जो भी हो यहाँ मुद्दा दिग्विजय सिंह का वो कथित कथन है जिसमें उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाये जाने की प्रक्रिया पर सवाल उठाए बल्कि उसे गलत करार दिया।

सीमित लोगों के इस समूह में दिग्विजय सिंह ने कथित रूप से ‘जम्हूरियत’ ‘कश्मीरियत’ और ‘इंसानियत’ की बात की और अनुच्छेद 370 हटाने की प्रक्रिया में इन तीनों का ही सम्मान नहीं किया गया। इसी प्रक्रिया के आलोक में यह भी कहा कि कांग्रेस को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस कथन में क्या वाकई कुछ भी ‘विवादास्पद’ है?

अगर इसका मतलब यह भी निकाला जाता है कि दिग्विजय सिंह कांग्रेस की तरफ से यह कहना चाहते थे कि अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो अनुच्छेद 370 को पुनर्स्थापित किया जाएगा तब भी क्या ऐसा पहली दफा होगा जब किसी पूर्ववर्ती सरकार के किसी फैसले को पलटा गया हो? क्या अनुच्छेद 370 पर पुनर्विचार किया जाने का ख्याल सांवैधानिक मर्यादा के खिलाफ है?

अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने की संवैधानिकता से जुड़े सवाल देश के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हैं। सर्वोच्च अदालत ने इन प्रश्नों कि खारिज नहीं किया है बल्कि इन्हें सुनवाई योग्य माना है जिससे भी यह कहने का एक आधार देश के हर नागरिक को है कि जो कुछ भी 5 अगस्त 2019 को देश की संसद ने किया वह प्रश्नों से परे नहीं है। सर्वोच्च अदालत भी इस मुद्दे पर विचार ही तो करेगी। संभव है यह कार्यवाही संविधान के अनुकूल न पायी जाये और सरकार को अपना यह फैसला बदलना पड़े। यह देश की सर्वोच्च अदालत को तय करना है।

देखा जाए तो इस बयान में कुछ भी नया है। यह न केवल दिग्विजय सिंह बल्कि उनकी पार्टी और संसद के मौजूदा कार्यकाल में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का आधिकारिक पक्ष है। संसद में इस मुद्दे पर बहस के दौरान और उसके बाद ठीक यही कहा जाता रहा है कि कश्मीर के लोगों को भरोसे में लिए बगैर ऐसी कार्यवाही की जाना उचित नहीं है। इससे प्रतिकूल प्रभाव होगा। लेकिन इसमें नया है कि इस कथित क्लब हाउस की चर्चा में ‘कथित रूप से कोई पाकिस्तानी मित्र’ भी मौजूद थे।

अब सवाल है कि क्या उन पाकिस्तानी मित्र को दिग्विजय सिंह और कांग्रेस के इस आधिकारिक पक्ष का पहले से पता नहीं था। क्या यह बात गोपनीय रही आयी है कि अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर संसद में हुई बहस के दौरान किस पार्टी ने क्या पक्ष रखा था? दूसरी बात ये हैं कि क्या यह बयान कहीं से भी देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए खतरा है? अगर ऐसा है तो इस देश को तत्काल प्रभाव से बाबा नित्यानंद के बनाए नए देश ‘कैलासा’ में विलय कर लेना चाहिए जहां बाहरी दुनिया से कोई सरोकार न रखा जाये।

दिग्विजय सिंह के अमूमन हर बयान पर इसी तरह की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलती हैं जिससे देश के बहुसंख्यक समुदाय की आत्मा छलनी हो जाना बताया जाता है। उनके एक बयान से अक्सरहां देश की अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है। यह हालांकि चिंता का विषय होना चाहिए कि जब देश का अधिसंख्यक समुदाय इस कदर नाज़ुक और कुपोषित आत्मा की बीमारी से गुज़र रहा हो उस देश का भविष्य क्या होगा? जहां संवैधानिक प्रक्रिया का सवाल करना या किसी बात की मुखालफत करना बहुसंख्यकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करार दिया जाने लगा हो। उस देश को शायद एक ऐसे संविधान की दरकार नहीं रह गयी है जिसके बीज शब्दों में ‘स्वतंत्रता’, ‘बंधुता’ और ‘न्याय’ जैसे शब्द और सिद्धान्त हों।

एक सवाल यह भी है कि किसी समूह में हो रही निजी चर्चाओं और मनोभावों को व्यक्त करना क्या इतना जोखिम भरा काम हो गया है और इस बात को इतनी स्वीकृति समाज में मिल चुकी है कि सवाल इस पर होने के बजाय कि किसी ऐसे समूह की चर्चा सुनी ही क्यों जहां आप आमंत्रित नहीं थे, लेकिन चर्चा बात इस पर हो रही है कि उन्होंने ऐसे कहा क्यों?

निजी हैसियत से कोई बात कहना क्या वाकई अब देश में इतना मुश्किल हो चला है? निजी विचार और राजनैतिक मान्यताएँ हर वक़्त आधिकारिक वक्तव्य भी हों ये ज़रूरी तो नहीं? लोगों की दिलचस्पी भाजपा के नेता शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकबी के लव-जिहाद के मामले में उनकी निजी और राजनीतिक राय जानने में हो सकती है और अगर कोई फांक पाई जाती है तो इससे भी देश की बहुसंख्यक हिन्दू भावनाओं को चोट पहुँच सकती है? शायद नहीं। क्योंकि यह बहुसंख्यक भावनाएं अब स्वत: स्फूर्त नहीं बल्कि फेब्रिक्रेटिड यानी कृत्रिम रूप से बनाई गयी हैं।

सवाल अगर कश्मीर और मुसलमानों का हो तो ये कृत्रिम रूप से निर्मित बहुसंख्यक भावनाएं ज़्यादा ज़हरीली होकर बाहर आती हैं।

दिग्विजय सिंह का कश्मीर पर बयान यहाँ न तो कश्मीरियों को खुश करने के लिए हैं और न ही देश के मुसलमानों से वोट लेने की अपील है बल्कि यह उनकी राजनैतिक मान्यता है और उनकी तरह देश में एक बड़ा तबका जो देश के संवैधानिक इतिहास और उसकी नैतिकता से सरोकार रखता है, इस तरह की राजनीतिक समझदारी रखता है। तार्किक रूप से यह मान्यता सांवैधानिक नैतिकता से पैदा हुई मान्यता है।

कश्मीर के पुनर्गठन और अनुच्छेद 370 को बलात हटा दिये जाने को अगस्त में 2 साल पूरे होने वाले हैं। इन दो सालों में क्या वाकई वो सारे दावे सही साबित हो पाये हैं जो अनुच्छेद 370 हटाये जाते समय सरकार द्वारा किए गए थे? लगभग दो सालों से कश्मीर सख्त लॉक डाउन और सेना की निगहबानी में जी रहा है। नागरिक अधिकार और मानवाधिकार किसी भी स्वायत्त, संप्रभु और जिंदा लोकतन्त्र की आधारशिला माने जाते हैं। क्या अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कश्मीर इन बुनियादी सिद्धांतों की कसौटी पर हमें आश्वस्त कर पाता है कि वहाँ सब ‘सामान्य’ है।

एक राज्य की तमाम विधायी शक्तियाँ जबरन छीनकर और उसे बलात अपने अधीन लाकर भारतीय गणराज्य की सर्वोच्च संस्था, संसद ने भले ही बहुमत की शक्ति का मुजाहिरा किया हो और इसके खिलाफ एक कमजोर संसदीय विपक्ष इसे होने से रोक न पाया हो लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को नैतिक कदापि नहीं कहा जा सकता। इस बात को बीते दो सालों से अलग अलग लोगों ने अलग अलग तरह से कई कई बार कहा है और यह कहा जाता रहेगा।

एक राजनीतिक दल के तौर पर भाजपा कश्मीर, पाकिस्तान या चीन के साथ रिश्तों को लेकर किसी भी अन्य दल की तुलना में ज़्यादा दोगली साबित हुई है। विपक्ष में रहते हुए एक ऐसे एजेंडे को हवा देना और तथ्यहीन ढंग से कश्मीर, पाकिस्तान और चीन के बरक्स कोई प्रोपेगेण्डा फैलाना एक बात है लेकिन एक पूर्ण बहुमत प्राप्त भारतीय गणराज्य की संघीय सरकार होने की हैसियत से इस एजेंडे और प्रोपेगेण्डा को लागू करना न्यूनतम सांवैधानिक मर्यादाओं और नैतिकता की मांग करता है। सरकार में होने के नाते किसी भी दल से एक उदार और सम्यक दृष्टि की अपेक्षा होती है जो अनिवार्यतया संविधान के अनुरूप हो।

कश्मीर इस विशाल देश के तंगनज़र और कुंठित राष्ट्रवाद के लिए ईंधन की तरह इस्तेमाल होते आया है। यह देश के बहुसंख्यकों के दिलों में नफरत की भट्टी जलाए रखने के लिए ‘कैरोसीन’ की तरह काम करता है। अगर यह भूखंड भारत में न होता या इस भूखंड में मुसलमान न होते तो शायद यह उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश या कोई अन्य हिंदीभाषी राज्य की तरह होता जो तंगदिल और घृणित राष्ट्रवाद का उपभोक्ता बन चुका होता। बहरहाल, इस कथित बयान के बहाने कोरोना के दौरान सरकार की आपराधिक लापरवाहियों की वजह से कमजोर हुई राष्ट्रवाद की धार को नए सिरे से पैनापन मिला है। और जिस तरह से इस बयान को लेकर भाजपा के नेता, सत्ता में बराबरी की भागीदार मीडिया और आईटी सेल के तनखैया बल्लियाँ उछल रहे हैं उससे उनकी बेहयायी के विराट स्वरूप के दर्शन हुए हैं और देश के अवाम को यह पता चला है कि अपनी अक्षमताओं को ढंकने के लिए इस दल, विचारअनुच्छेद और सरकार को दिग्विजय सिंह नेताओं की कितनी सख्त ज़रूरत है।

परीक्षा तो देश की आवाम की भी हुई है जिसके लिए सब कुछ लूटा देने के बाद भी ‘कश्मीर की कुंठा’ अभी भी सर्वोपरि है। इंसानियत, कश्मीरियत, जम्हूरियत ये किसी और लोकतन्त्र को मुबारक। हम ऐसे ही लोकतन्त्र के आदी हो चले हैं हैं जहां किसी को कोई बात कहने की आज़ादी न हो, न्याय और लोकतन्त्र के सिद्धांतों की हिमायत कहने की सहूलियत न हो। एक तंगदिल, संकीर्ण और कुंठित राष्ट्रवाद के मद में डूबे बहुसंख्यक यही पाने के लायक हैं। 

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

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