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अमेरिका के पास अफ़गानिस्तान से जल्दबाज़ी से बाहर निकलने के अलावा कोई चारा नहीं?

पैसे देकर करायी गयी हत्याओं के विवाद ने मॉस्को को परेशान कर दिया है और इसका नतीजा यह हुआ है कि अफ़ग़ानिस्तान के भीतर विभिन्न गुटों के बीच शांति वार्ता को लेकर किसी भी तरह के अमेरिकी-रूसी सहयोग और समन्वय का आगे बढ़ पाना नामुमकिन हो गया है, जिसकी पहले परिकल्पना की गयी थी।
अमेरिका के पास अफ़गानिस्तान

जैसा कि अपेक्षित था अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी और नाटो सैनिकों की हत्या के लिए चरमपंथियों को कथित तौर पर रूस द्वारा पैसे मुहैया कराने को लेकर विवाद लगातार गहराता जा रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने कुछ और नये ख़ुलासे किये हैं, जिनमें तालिबान के लिए रूसी सैन्य ख़ुफ़िया के चिह्नित खातों से बैंक हस्तांतरण, "हवाला" लेनदेन के साथ-साथ अफ़गान सरकार की सहायता के लिए रूसी-तालिबान सांठगांठ पर निगाह रखना शामिल है।

इस बीच संभवत: एक और "रशियागेट" होने की आशंका को लेकर अमेरिकी कांग्रेस में यह मामला ज़ोर पकड़ रहा है। डेमोक्रेट ग़ुस्से में हैं और किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार दिखते हैं। व्हाइट हाउस के शीर्ष सहयोगी सीनेट ख़ुफ़िया समिति को जानकारी दे रहे हैं।

टाइम्स ने कल इस विषय पर पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार,सुसान राइस द्वारा एक ओप-एड (लेखक की राय से सम्बन्धित लेख) भी छापा था, जिन्हें नवंबर में होने वाले चुनावों में डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार-जो बिडेन के टिकट पर संभावित उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में उल्लेख किया गया है। इस लेख में राइस ने राष्ट्रपति ट्रम्प और उनके प्रमुख सहयोगियों की जमकर ख़बर ली है।

इसमें कोई शक नहीं कि यह विवाद अफ़ग़ानिस्तान में चल रही इस रणनीति के आख़िरी चरण को गंभीरता से प्रभावित करेगा। इसका पहला इशारा मंगलवार को तब मिला,जब विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने तालिबान के उप प्रमुख और दोहा स्थित मुख्य वार्ताकार, मुल्ला बरादर के साथ एक वीडियो कॉन्फ़्रेंस की। व्हाइट हाउस से जारी बयान में कहा गया कि पोम्पिओ ने तालिबान नेता के साथ फ़रवरी में हुई दोहा संधि की अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के क्रियान्वयन को लेकर चर्चा की और "तालिबान द्वारा अपनी प्रतिबद्धताओं को निभाने के लिए उस (अमेरिकी) अपेक्षा को स्पष्ट कर दिया, जिसमे अमेरिकियों पर हमला नहीं करना भी शामिल है।"  

साफ़ है कि व्हाइट हाउस अमेरिकी सैनिकों पर किसी भी हमले के ख़िलाफ़ सीधे-सीधे तालिबान को चेतावनी दे रहा है। एपी रिपोर्ट में तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन का हवाला देते हुए ट्वीट किया गया कि पोम्पिओ और बारादार ने दोहा संधि के कार्यान्वयन के साथ "आगे बढ़ने के तरीक़ों पर चर्चा की है।"      

व्हाइट हाउस इस बात को लेकर चिंतित है कि अफ़ग़ानिस्तान के विभिन्न गुटों के बीच की शांति वार्ता बिना किसी और देरी के पूरी हो जानी चाहिए, ताकि अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा की जा सके। हाल ही में ऐसी ख़बरें आयी थीं कि 8,600 मज़बूत सैन्यदल में से 4,000 अमेरिकी सैनिकों को वापस लाने का फ़ैसला विचाराधीन है।

रूस द्वारा कथित तौर पर पैसे देकर करायी जाने वाली हत्याओं को लेकर मौजूदा विवाद के सिलसिले में और कांग्रेस में इस मामलों की सुनवाई की संभावना को देखते हुए ट्रम्प बिना समय गंवाये अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों की वापसी को लेकर व्यग्र होंगे। तालिबान के साथ सुलह के लिए अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि,ज़ाल्मे ख़लीलज़ाद भी मुल्ला बरादर के साथ विचार-विमर्श करने के लिए दोहा पहुंच गये हैं।

कुल मिलाकर, 26 जून से टाइम्स रिपोर्ट की श्रृंखला ने व्हाइट हाउस को किसी भी तरह से अफ़ग़ानिस्तान के भीतर के सभी गुटों के बीच शांति वार्ता को ज़ोर लगाकर शुरू करने के लिए मजबूर कर दिया है, जहां एक पूर्ण युद्ध विराम चर्चा के एजेंडे में सबसे ऊपर है।

अमेरिका इस क्षेत्र में बुरी तरह से अलग-थलग पड़ा हुआ है। पैसे देकर करायी गयी हत्याओं के विवाद ने मॉस्को को परेशान कर दिया है और इसका नतीजा यह हुआ है कि अफ़ग़ानिस्तान के भीतर विभिन्न गुटों के बीच उस शांति वार्ता को लेकर किसी भी तरह के अमेरिकी-रूसी सहयोग और समन्वय का आगे बढ़ पाना नामुमकिन हो गया है, जिसकी पहले परिकल्पना की गयी थी।

ठीक इसी समय, अमेरिका-चीन तनाव नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं और वाशिंगटन अब अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में बीजिंग के सहयोग का फ़ायदा उठाने की हालत में नहीं है। इसी तरह, मंगलवार को ईरान को किये जाने वाले हथियारों की आपूर्ति को लेकर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध के विस्तार की मांग करने वाले अमेरिकी प्रस्ताव को प्रस्तुत करते हुए औपचारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पोम्पेओ की उपस्थिति के बाद वाशिंगटन तेहरान के साथ टकराव की राह पर है।

रूस और चीन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे ऐसे किसी भी अमेरिकी प्रस्ताव को वीटो कर देंगे, जो पोम्पिओ की तरफ़ से 2015 के समझौते को ख़त्म करने वाले ईरान परमाणु समझौते के अचानक बदलाव वाले प्रावधान के आह्वान करने वाले दावे के लिए दबाव पैदा कर सकता है। आने वाले हफ़्तों और महीनों में वाशिंगटन और तेहरान के बीच ज़बरदस्त तनाव की उम्मीद की जा सकती है।

रूस, चीन और ईरान के साथ अमेरिकी टकराव के रास्ते पर होने से ट्रम्प प्रशासन पर पूरी तरह से अफ़गान शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को लेकर दबाव बढ़ गया है। पाकिस्तान पर अमेरिका का भरोसा पहले से कहीं ज़्यादा कमज़ोर हो गया है। (खलीलज़ाद इसी सप्ताह इस्लामाबाद की यात्रा पर जाने वाले हैं।)

जाहिर है, अफ़ग़ानिस्तान से ख़ुद को बाहर निकालने की अमेरिकी रणनीति की पटकथा उसके हाथों से फ़िसल रही है। इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि तालिबान अपनी मज़बूत हैसियत से ही बातचीत करेगा। कहा जाता है कि मुल्ला बरादर ने कल वीडियोकांफ्रेंस के दौरान पोम्पिओ से अपमानजनक मांग की।

मॉस्को, तेहरान और बीजिंग-इन तीन प्रमुख क्षेत्रीय राजधानियों के रूख़े मनोदश को देखते हुए वाशिंगटन के पास अब इसके अलावा कोई चारा नहीं रह गया है कि वह इस जटिलता से किसी तरह आज़ाद हो और जितनी जल्दी हो सके,इस बाहर निकलने के दरवाज़े से अपना रास्ता बनाये। ट्रम्प अफ़ग़ानिस्तान में सैनिकों के लिए लंबे समय तक रहने का जोखिम नहीं उठायेंगे।

दिलचस्प बात है कि यह स्थिति अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच अप्रैल 1988 के उस जिनेवा समझौते के बिल्कुल समान है, जिसमें अमेरिका और सोवियत संघ गारंटर थे।

जिनेवा समझौते में कई तत्वों की एक आव्यूह की परिकल्पना की गयी थी,जिनमें ख़ास तौर पर शामिल थे-आपसी अच्छे पड़ोसी सम्बन्धों के सिद्धांतों के आधार पर इस्लामाबाद और काबुल के बीच एक द्विपक्षीय समझौता; सोवियत संघ और अमेरिका द्वारा हस्ताक्षरित अंतर्राष्ट्रीय गारंटी पर एक घोषणा; और अफ़ग़ान स्थिति से निपटने को लेकर आपसी सम्बन्धों पर एक पाक-अफ़ग़ान समझौता, जिसके गवाह सोवियत संघ और अमेरिका थे।

यह एक प्रभावशाली शांति समझौता तो था, लेकिन इसका आगे कुछ भी नहीं होना था और इसका एकलौता सकारात्मक नतीजा यही था कि मॉस्को ने ईमानदारी से (और व्यग्रता के साथ) अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत सैनिकों की वापसी का पालन इस समझौते के निर्धारित योजना के प्रावधानों के मुताबिक़ किया। (15 फ़रवरी,1989 को सोवियत सैन्यदल ने अपनी वापसी पूरी कर ली थी।)

अफ़ग़ानिस्तान के भीतर की यह शांति वार्ता भी एक निराशाजनक हालात में ही हो रही है, जिसमें दो हठी पक्ष (अफ़ग़ान सरकार और तालिबान) शामिल हैं, और दो "गारंटर" (अमेरिका और पाकिस्तान) अलग-अलग प्राथमिकताओं का अनुसरण कर रहे हैं। एक बार फिर से यही कहा जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान की इस आंतरिक शांति वार्ता का एकमात्र सकारात्मक नतीजा यही हो सकता है कि यह अफ़ग़ानिस्तान में दो दशक के अमेरिकी आधिपत्य को ख़त्म कर दे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Isolated US to Opt for Hurried Exit from Afghanistan After Allegations Russian Bounty Killings?

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