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आख़िरकार सीएए पर सुप्रीम कोर्ट की नींद टूटी, 12 सितंबर से होगी सुनवाई

शीर्ष अदालत ने 12 सितंबर को सुनवाई के लिए याचिकाओं को सूचीबद्ध किया है। 220 याचिकाओं की सुनवाई भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित और जस्टिस रविंद्र भट की बेंच करेगी।  
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नई दिल्‍ली : नागरिकता संशोधन अधिनियम (Citizenship Amendment Act) पर पूरे देश में हुए आंदोलनों के करीब दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट की नींद टूट गई है और उसने इस कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया है। शीर्ष अदालत ने 12 सितंबर को सुनवाई के लिए याचिकाओं को सूचीबद्ध किया है। 220 याचिकाओं की सुनवाई भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित और जस्टिस रविंद्र भट की बेंच करेगी।

भारत सरकार ने कानून के पक्ष में दावा था कि सीएए का उद्देश्य अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदायों के प्रवासियों को नागरिकता देना है। लेकिन जानकारों, अकादमिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कानून विशेषज्ञों का मानना है कि इस कानून का उद्देश्य दूसरे देश के प्रवसियों को नागरिकता देना कम, बल्कि अपने देश के अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना है। इस कानून को 12 दिसंबर 2019 को अधिसूचित किया गया था और 10 जनवरी 2020 को यह लागू में आया था।  

लगभग सभी याचिकाओं में संशोधित नागरिकता कानून को भारतीय संविधान का ‘उल्लंघन’ करार दिया गया है।

आपको बता दें कि स्टूडेंट्स फेडरैशन ऑफ इंडिया (SFI), जो एक प्रगतिशील छात्र संगठन है, वो भी एक याचिकाकर्ता है जिसने इस कानून के खिलाफ़ कोर्ट में अर्जी दी है। उसने अपनी याचिका में कहा है कि यह कानून सभी संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ़ है। SFI ने अपनी याचिका में आगे कहा है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का  सरासर उल्लंघन करता है।

भारत में सीएए और एनपीआर का ज़बरदस्त विरोध हुआ था। शुरुआत में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हुए विरोध प्रदर्शनों पर सरकार ने जमकर डंडा चलाया। पुलिस ने इन विश्वविद्यालयों के परिसरों के अन्दर घुस कर विद्यार्थियों को बेरहमी से मारा। इसके बाद मुस्लिम महिलाओं ने अपना आन्दोलन शुरू किया जो भारत के सबसे बड़े, सबसे प्रजातान्त्रिक और सबसे शांतिपूर्ण आंदोलनों में से एक था। शाहीन बाग़ आन्दोलन जल्दी ही देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल गया और उसने देश के लोगों की अंतरात्मा को झकझोरा। दिल्ली में हुए दंगे इस आन्दोलन को दबाने के प्रयास थे। कोरोना के प्रसार ने भी इस आन्दोलन को बाधित कर दिया था।

यह ऐतिहासिक आन्दोलन मुस्लिम समुदाय के बरसों के भरे गुस्से के फट पड़ने का प्रतीक भी था। मुसलमानों को सांप्रदायिक हिंसा और गौमांस के नाम पर लिंचिंग द्वारा और लव जिहाद, कोरोना जिहाद और कई तरह के जिहाद करने के नाम पर समाज के हाशिये पर धकेल दिया गया। इस आन्दोलन ने नागरिकता के मामले में सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का व्यवहार किये जाने की वकालत की। यह आन्दोलन, सीएए-एनआरसी के खिलाफ सबसे बुलंद प्रजातान्त्रिक आवाज़ थी।  

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