अग्निपथ योजना: नव उदारवादी भूत के साए में काम करती मोदी सरकार
अग्निपथ रोजगार योजना को मोदी सरकार और उनके मंत्री देशभक्त योजना करार दे रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस योजना से युवाओं को देश की सेवा करने का अवसर मिलेगा और एक बेहतर सेना के निर्माण में मदद मिलेगी जो राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति बढ़ती चुनौतियों का मुक़ाबला कर सकेगी। न केवल भाजपा नेता बल्कि कुछ अर्थशास्त्री या वरिष्ठ पत्रकार जो अन्यथा भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के घनघोर आलोचक हैं, भी इसे सैन्य सुधार में बेहतरीन कदम बता रहे हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया के स्तंभकार स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया आइय्यर ने योजना के समर्थन में कहा है की “देश को अग्निपथ चाहिए न कि पेंशनपथ”। भाजपा नेताओं की तरह उनका भी मानना है कि आर्मी कोई भर्ती योजना नहीं है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है और इसलिए इसका आधुनिकीकरण करने की जरूरत है और इसलिए अग्निपथ जैसी योजाना जरूरी है ताकि सेना वेतन और पेंशन के बोझ से बच सके।
जबकि योजना के आलोचकों का मानना है 'अग्निपथ' एक छंटनी योजना है जो भारत के बेरोजगारों को भीतर तक चोट पहुँचाएगी और राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति खतरा पैदा करेगी। सभी विपक्षी दलों ने एक आवाज़ में इस योजाना की वापसी की मांग की है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी ट्वीट के जरिए कहा है कि “8 सालों से लगातार भाजपा सरकार ने ‘जय जवान, जय किसान के मूल्यों का अपमान किया है। मैंने पहले भी कहा था कि प्रधानमंत्री जी को काले कृषि कानून वापस लेने पड़ेंगे। ठीक उसी तरह ‘माफ़ीवीर’ बनकर देश के युवाओं की बात मननी पड़ेगी और ‘अग्निपथ’ को भी वापस लेना ही पड़ेगा।”
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी ने ट्वीट कर कहा है कि “अग्निपथ योजना भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हानिकारक है। बिना किसी नौकरी की सुरक्षा के युवाओं को सर्वोच्च बलिदान देने के लिए कहना किसी अपराध से कम नहीं है। उन्होंने मांग की है कि नियमित सेना भर्ती को मजबूत करें।" गैर-भाजपा शासित कई राज्यों ने अग्निपथ योजना को निरस्त करने की मांग की है।
नवउदारवादी नीतियों का दबाव और बढ़ती असमानता
अग्निपथ, कृषि कानून, जीएसटी या नोटबंदी जैसी कारगुजारियों के पीछे जो नीति काम कर रही है वह नव-उदारवादी नीतियों का दबाव है जिसे मोदी सरकार दिल से लागू करना चाहती है। यानी देश के संसाधनों को आहिस्ता-आहिस्ता निजी हाथों में सौंप देना और सरकार जनता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से पूरी तरह से पल्ला झाड़ ले। ऑक्सफ़ेम की जनवरी 2022 में जारी रिपोर्ट के अनुसार “देश के 98 लोगों के पास इतनी धन-संपदा है जो संपदा देश के 52.2 करोड़ लोगों के पास है। देश में 84 प्रतिशत परिवारों की आय में गिरावट आई है और रोजगार का नुकसान हुआ है। जबकि देश में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है।
जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनसे दो बातें स्पष्ट रूप से साबित हो रही है; एक पूरी दुनिया नव-उदारवादी निज़ाम के अधीन काम कर रही हैं; दूसरा पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता बढ़ रही है। यानी पूंजी का संचय बड़े पूँजीपतियों या निगमों के हाथ हो रहा है और नतीजतन बेतहाशा बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी बढ़ रही है।
‘पेरिस स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स’ के तहत काम करनेवाली ‘वर्ल्ड इनिक्वेलिटी लैब’ ने विश्व असमानता पर के रिपोर्ट तैयार की थी जिसका समय 1980-2016 तक का था। रपट के अनुसार, दुनिया के 0.1 प्रतिशत लोगों के पास कुल दौलत का 13 प्रतिशत हिस्सा है। इसके अलावा पिछले 36 वर्षों में जो नई संपत्तियाँ सृजित की गईं हैं, उनमें से भी 27 प्रतिशत पर सिर्फ 1 प्रतिशत पूँजीपतियों/धन्नासेठों का कब्ज़ा रहा है।
पूरी दुनिया में छाई असमानता की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आय की सबसे ऊंची श्रेणी में गिने जाने वाले शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों की कुल संख्या महज़ 7.5 करोड़ है, जबकि सबसे नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की कुल संख्या 3.7 अरब है। इसलिए नव-उदारवादी निज़ाम के तहत लागू की गई नई आर्थिक नीतियों के बाद देश के भीतर असमानता में और वृद्धि हुई है।
भारत की आधिकारिक नीतियां अभी नव-उदारवादी जाल में फंसी हुई हैं। इसलिए मोदी सरकार राजकोषीय रूढ़िवाद के सिद्धान्त पर काम कर रही है ताकि वित्तीय घाटे को कम किया जा सके, जोकि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मांग रही है। अब राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सरकार वेतन और पेंशन पर खर्च को कम करने के लिए बहुत ही बेताब है।
आंकड़ों पर नज़र डालने से पता चलता है कि लगभग 5 लाख करोड़ रुपये के रक्षा बजट में वेतन और पेंशन पर 2.6 लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च होता है। सवाल मोदी सरकार के सामने यह है कि यदि सरकार रक्षा बजट के आधे से अधिक को वेतन और पेंशन पर खर्च करेगी तो राजकोषीय घाटा कैसे कम होगा। नव-उदारवादी नीतियां इसकी इज़ाजत नहीं देती हैं।
याद रखें कि उपरोक्त मक़सद को हासिल करने ले लिए वाजपेयी सरकार के समय राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (एफआरबीएम), 2003 को लाया गया था ताकि वैश्विक निवेशकों को भारत में निवेश के लिए रिझाया जा सके। और यह कानून केंद्र और राज्य सरकारों को राजस्व घाटे को शून्य पर लाने और राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3 प्रतिशत पर रखने के राजकोषीय अनुशासन का पालन करने का आदेश देता है। व्यावहारिक रूप से, इसका मतलब है कि सरकार को राजस्व खर्च में कटौती करनी चाहिए और पूंजी-समर्थक सुधारों को वित्तपोषित करने और वैश्विक पूंजी के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे पर खर्च करने के लिए राजस्व में वृद्धि करनी चाहिए।
हम सब जानते हैं कि विकासशील देशों में सरकारी खर्च में बढ़ोतरी देश के आर्थिक विकास और और आम आदमी के अस्तित्व का एक मुख्य ज़रिया होता है, फिर भी मोदी सरकार 2014 से नव-उदारवादी एजेंडे के तहत जन-विरोधी आर्थिक नीतियों के साथ आगे बढ़ रही है। अब लगता है हुकूमत की भूमिका निजी पूंजी के विकास को बढ़ावा देने और उनके माध्यम से रोजगार पैदा करना रह गई है और जो हो नहीं रहा है। क्योंकि सभी क्षेत्रों में नवउदारवादी रोजगार नीतियां - संविदाकरण, निश्चित अवधि के रोजगार, सामाजिक लाभ की हानि – जैसी नीतियों को लागू किया जा रहा है। सरकारी भर्ती भी तेजी से संविदात्मक, अस्थायी और बिना पेंशन लाभ के की जा रही है। अग्निपथ योजना नव-उरादवादी योजना को तीव्रता से लागू करने का एक अन्य कदम है।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि अग्निपथ योजना के तहत अब से लगभग 46,000 सैनिकों की नियमित वार्षिक खुली भर्ती होगी। मुख्य अंतर यह है कि भर्ती होने वालों में से केवल 25 फीसद यानी 11-12 हज़ार के पास ही चार साल बाद भी नौकरी होगी जबकि अन्य 30 हज़ार से ज़्यादा की बेरहमी से छंटनी की जाएगी। इस प्रकार, यह एक ऐसी योजना है जहां पहले उत्पन्न 40,000 नौकरियों के स्थान पर सालाना केवल 10,000 नौकरियां प्रदान की जाएंगी। यह योजना राष्ट्रीय सुरक्षा से साथ भी समझौता करती है जो खराब ढंग से प्रशिक्षित, अनुबंध पर रखे गए सैनिकों के माध्यम काम करेगी। और मज़े की बात यह है कि सरकार और भाजपा के नेता इसे रोजगार पैदा करने की सबसे बड़ी योजना के रूप में प्रचारित कर रहे हैं।
अगर सरकार की योजना देश में बेरोज़गारी को खत्म करने की होती तो वह सबसे पहले केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में 10 लाख से अधिक लंबित पड़ी भर्तियों को पूरा करती।
यूपी, बिहार, हरियाणा और तेलंगाना जहां से सबसे अधिक युवा सेना में जाते हैं में अग्निपथ के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए हैं। देश में दो बड़े इदारे हैं जिनमें भर्ती के लिए युवा सालों से तैयारियां करते हैं। इम्तिहान से देने से लेकर शारीरिक अभ्यास इसमें शामिल है। लेकिन मोदी सरकार रेलवे में पहले ही हजारों पदों को खत्म कर चुकी है। और अब सेना में बेरोज़गारी बढ़ाने वाली अग्निपथ योजना लेकर आई है जिससे युवाओं के सपने तबाह हो गए हैं। उन्हे अब कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। उनकी आँखों के सामने के-एक खवाब जैसे टूट रहा है। और यही कारण है कि यह आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है।
इसमें कोई शक नहीं है कि 2020 में कोविड महामारी के शुरू होने के बाद से ही भारत एक भयंकर बेरोजगारी के संकट का सामना कर रहा है और मोदी ने अपनी विनाशकारी आर्थिक नीतियों और अब अपनी नवउदारवादी भर्ती नीतियों से समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है। देश भर में फैले इस आक्रोश ने साबित कर दिया है कि भाजपा सरकार अंतर्निहित आर्थिक समस्याओं को दूर करने में विफल रही है।
आक्रोश को कम करने के लिए भाजपा की राज्य सरकारें कभी न पूरे होने वाले वादे कर रही हैं जैसे कि छंटनी किए गए अग्निवीरों को पुलिस भर्ती में आरक्षण दिया जाएगा, या फिर अन्य बालों में जगह दी जाएगी। भाजपा के नेता विजयवर्गीय ने तो यहाँ तक कह दिया है कि छंटनी किए गए वीरों को भाजपा के दफ्तर में सुरक्षा के लिए रखा जाएगा। यानी सरकारी धन पर शिक्षित युवाओं को भाजपा के दफ्तरों या पूँजीपतियों की संपत्ति की रक्षा के लिए गार्ड के रूप में नौकरी दी जाएगी। यह युवाओं के प्रति भाजपा की बीमार सोच को दर्शाती है।
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