अग्निपथ: वे 15 खामियां जिनकी वजह से नई भर्ती प्रक्रिया का हो रहा है विरोध
पहली कमी - अग्निपथ के तहत ऑफिसर रैंक से नीचे केवल चार साल के लिए सेना में शामिल करने की योजना पेश की गयी है। यही इसका मूल बिंदु है। नौजवानों और जानकारों के मुताबिक यही मूल बिंदु इस योजना की सबसे बड़ी कमी है। इसे लेकर ही नौजवानों में सबसे अधिक गुस्सा है। इस योजना का विरोध कर रहे नौजवानों का कहना है कि केवल चार साल की नौकरी किस हिसाब से दी जा रही है? चार साल बाद हमारा क्या होगा? चार साल बाद जब हम सेना से निकल जायेंगे तब क्या करेंगे? हमारे जीवन की आर्थिक सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा?
दूसरी कमी - अग्निपथ के तहत केवल तीन महीने की ट्रेनिंग की बात कही गयी है। जबकि सेना के जानकारों का कहना है कि केवल तीन महीने में किसी को इस तरह से प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता कि वह मुक़्क़मल सैनिक बन सके। एक मुक्कमल सैनिक बनने के लिए पांच से सात साल का वक्त लग जाता है। भारतीय वायु सेना में एयरमैन और नौ सेना में नाविक बनने के लिए तकनिकी कौशल के साथ अनुभव की जरूरत होती है। इस तरह की काबिलियत महज छह महीने में नहीं आने वाली। इसके लिए लम्बा वक्त लगता है। अगर ऐसे लोगों की भरमार होगी, जिन्हें केवल चार साल के लिए सेना में शामिल किया जाएगा और चार साल बाद सेना से बाहर कर दिया जाएगा तो आगे चलकर उन पेशेवर सैनिकों की संख्या में भी कमी आएगी जो कम से कम पांच साल की ट्रेनिंग की बाद मुक़्क़म्मल सैनिक बनते हैं। मतलब राष्ट्रीय हित दांव पर लगाकर इस नियम को सेना में लाया गया है।
तीसरी कमी - सेना की तैयारी करने वाले नौजवान कह रहे हैं कि केवल चार साल की नौकरी के लिए सेना में शामिल हुए अग्निवीर जंग के दौरान सेना में अपनी जान गंवाने के लिए तैयार नहीं होंगे। मान लीजिये जंग शुरू हो गयी तो क्या कोई अग्निवीर यह नहीं सोचेगा कि केवल चार साल की नौकरी के खातिर हम अपनी जान क्यों दांव पर लगाएँ? जैसे ही जंग सामने दिखेगी तो कई अग्निवीर इस चुनाव में झूलेंगे कि वह चार साल की नौकरी बचाने के लिए जंग पर जाएं या जंग में अपनी जान का खतरा देखकर चार साल की नौकरी छोड़ दें। जिनकी एक साल की नौकरी बाकी होगी, उसमें से अधिकतर शायद यही फैसला लेंगे कि जंग में जान गंवा देना ठीक नहीं।
चौथी कमी - बहुत ज्यादा बवाल और विरोध होने के बाद वन रैंक वन पेंशन लागू हुआ। अग्निपथ योजना के तहत शामिल होने वाले अग्निवीरों को किसी भी तरह का रैंक नहीं दिया जाएगा। ना किसी को किसी तरह की रैंक मिलेगी और ना ही पेंशन दिया जाएगा। सरल शब्दों में कहा जाए तो अग्निपथ योजना के तहत नो रैंक नो पेंशन लागू किया जा रहा है।
पांचवी कमी - कई लोग कह रहे हैं कि अग्नीपथ योजना के अलावा रेगुलर भर्ती होती रहेगी। मतलब पहले से जो भर्ती प्रक्रिया चलती आई है, वह भर्ती प्रक्रिया चलती रहेगी। इसके अलावा अग्निपथ योजना के तहत 4 सालों के लिए सेना में शामिल किया जाएगा। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। ऑफिसर रैंक से नीचे की भर्ती के लिए अग्निपथ योजना के अलावा किसी भी तरह की भर्ती नहीं होगी। कोई भी रेगुलर भर्ती नहीं होगी। केवल एक ही एंट्री सिस्टम होगा जिसका नाम अग्निपथ योजना है।
छठवीं कमी - अग्निपथ योजना के तहत हर साल 45 से 50 हजार के बीच भर्तियां निकलेंगी। मतलब एक ही झटके में सरकार ने सेना में शामिल होने वाले सैनिकों की संख्या कम कर दी है। 2 साल से तकरीबन डेढ़ लाख से ज्यादा भर्तियां खाली थीं। लेकिन अब वहां भर्ती नहीं होगी। केवल 46 हजार भर्ती होने जा रही हैं।
सातवीं कमी - कई लोग कह रहे हैं कि 4 साल की नौकरी के बाद एकमुश्त 11 से 12 लाख रुपए मिलेगा। यह बहुत बड़ी राशि है। लेकिन यहाँ यह बात समझने वाली है कि यह पैसा देने के लिए सरकार हर महीने सैनिकों की आय में से 30% काटेगी। मतलब 30 हजार सैलरी नहीं मिलेगी। 30 हजार के बदले 21 हजार हाथ में आएँगे और ₹9 हजार हर महीने सरकारी भविष्य निधि खाते में जमा किया जाएगा। जहां सरकार की तरफ से भी पैसा जमा होगा। यह दोनों मिलाकर और ब्याज जोड़कर 4 साल के बाद 11 लाख से ₹12 लाख दिए जाएंगे।
आठवीं कमी - अमूमन हर साल केवल थल सेना में 60 हजार भर्तियां होती हैं। यह 60 हजार पक्की नौकरियां होती थीं। परमानेंट नौकरियां होती थीं। लेकिन अब हर साल तकरीबन 50 हज़ार भर्तियां होंगी। यह भी पक्की नौकरियां नहीं बल्कि कच्ची नौकरियां होंगी। 4 साल के लिए होंगी। 4 साल बाद इनमें से 25% को परमानेंट के तौर पर शामिल किया जाएगा। मतलब पहले आर्मी में 60 हजार सलाना पक्की भर्तियां हुआ करती थीं। अब यह संख्या कम हो करके महज 12 से 13000 हो गई हैं। यानी अग्निवीर योजना के साथ बहुत बड़े स्तर पर नौकरियों की संख्या कम की गई है।
नौवीं - अग्निपथ योजना से पेंशन पर खर्च होने वाली बहुत बड़ी राशि बच जाएगी। इसका इस्तेमाल सेना के आधुनिकीकरण और तकनीकी करण में किया जाएगा। सरकारी समर्थकों के जरिए पेश किए जा रहे इस तर्क की सबसे बड़ी कमी यह है कि यहां पर सैनिकों को दी जाने वाली पेंशन को फिजूलखर्ची के तौर पर दिया देखा जा रहा है।
यह बात सही है कि तीनों सेना के निर्धारित बजट में आधे से अधिक हिस्सा सैनिकों की पेंशन पर खर्च हो जाता है। लेकिन इसके साथ यह बात भी जोड़नी पड़ेगी कि पिछले कुछ सालों से कुल बजट में सेना के लिए निर्धारित बजट का प्रतिशत कम होते जा रहा है। पहले कुल बजट में 16% के आसपास हुआ करता था, अब घटकर के 14% के आसपास पहुंच गया है। यानी सेना का बजट पहले ही कम किया जा रहा है।
लेकिन असल बात यह है कि सेना पर खर्च होने वाले पेंशन को फिजूलखर्ची की तरह नहीं बल्कि सेना की जरूरत के तौर पर देखा जाना चाहिए। सेना की नौकरी ऐसी नहीं है कि इसमें लंबी अवधि तक काम किया जाए। लंबी अवधि तक वेतन हासिल किया जाए। सेना के लिए जरूरी अनुशासन और समर्पण का भाव तभी आता है जब सैनिकों को पता हो कि 15 साल के रिटायरमेंट के बाद जिंदगी की गाड़ी खींचने के लिए सरकार सहारा बनेगी और पेंशन मिलती रहेगी। अगर सैनिकों के मन में आर्थिक सुरक्षा को लेकर के किसी भी तरह की चिंता हो तो वह कैसे अपना जान न्योछावर करने के लिए तैयार हो पाएंगे? पैसा सब कुछ नहीं होता है लेकिन जिंदगी की गाड़ी बिना पैसे के नहीं चलती है। इसलिए सेना के लिए पेंशन फिजूलखर्ची नहीं बल्कि सेना की जरूरत है। अगर पेंशन को हटा देंगे तो सैनिकों के मन से देश के प्रति अप्रतिम गौरव का भाव निकल जाएगा। समर्पण और अनुशासन का भाव पैदा हो पाना नामुमकिन होगा।
दसवीं कमी - अग्निवीर योजना के समर्थक कह रहे है कि पेंशन की राशि कम होगी तो सेना के मॉडर्नाइजेशन पर अधिक खर्च होगा। सेना के तकनीकीकरण पर अधिक खर्च होगा। लेकिन इस तर्क की सबसे बड़ी कमी यह है कि दबी जुबान में यह भी बताने की कोशिश है कि सेना के लिए सैनिकों से ज्यादा इस समय आधुनिकीकरण की जरूरत है। यह बात ठीक है किआधुनिकीकरण और तकनिकीकरण की जरूरत है लेकिन कुशल और पेशेवर सैनिकों के बिना इसे संभालेगा कौन? अगर सेना में आधुनिकीकरण और तकनीकीकरण की कमी है तो इसके लिए सैनिक कैसे जिम्मेदार है? इसके लिए अगर पैसे की जरूरत है तो यह पैसा सैनिको की संख्या कम करके क्यों पूरी की जा रही है? इसके लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली को दोष क्यों नहीं देना चाहिए? अगर भारतीय अर्थव्यवस्था बर्बादी के हालत में नहीं होती तो क्या पैसे की दिक्कत आती? इसके लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को ठीक करने की जरूरत है या सेना से सैनिकों से बाहर निकालने की? इन सबके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में किसी भी क्षेत्र में आधुनिकीकरण और तकनीकीकरण की सबसे बड़ी कमी यह है कि भारत में वैज्ञानिक चेतना का माहौल विकसित करने की कोशिश नहीं की जाती। जो वैज्ञानिक चेतना मौजूद है, उसे भी गोबर से ऑक्सीजन निकालने के नाम पर बर्बाद किया जाता है।
ग्यारहवीं कमी - अब तक भारतीय सेना की संरचना क्लास आधारित थी। क्लास का यहां मतलब जाति और क्षेत्र से है। जैसे अहीर रेजिमेंट, गढ़वाल रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट। इस तरह के रेजिमेंट में जातियों का कोटा होता था। उसके आधार पर भर्ती होती थी। लेकिन अब इसे बदल दिया गया है। अब किसी तरह की क्लास आधारित रेजिमेंट नहीं होगी। ऑल इंडिया लेवल की भर्ती होगी। जानकारों का कहना है कि इस बदलाव को ठीक बदलाव कहा जा सकता है। लेकिन अचानक से यह बदलाव नहीं होना चाहिए था। भारतीय सेना का विकास बहुत लम्बे समय से हुआ है। भारतीय सेना में अचानक किया गया बदलाव कई तरह की दिक्कत पेश करने की सम्भावना रखता है। इस बदलाव से सेना पर क्या असर पड़ेगा? इसका अंदाज़ा थोड़ा वक्त बीतने के बाद लगेगा।
बारहवीं कमी - सेना की भर्तियां केंद्र हमेशा से सरकार ही करती है और आगे भी भर्ती केंद्र सरकार ही करेगी। लेकिन पहले की भर्तियों में राज्य स्तर पर कोटा हुआ करता था। अब राज्य स्तर पर कोटा खत्म कर दिया गया है। यानि राज्य में सेना में जाने लायक आबादी के हिसाब से भारतीय सेना में कुछ प्रतिशत सभी राज्यों के लिए तय किया जाता था। अब यह कोटा हटा दिया गया है। इसका कोई नजदीकी प्रभाव नहीं दिखेगा। लेकिन लम्बे समय बाद इसके भयंकर और खतरनाक असर देखने को मिल सकते हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, उत्तराखंड जैसे राज्यों से सेना में अधिक भर्तियां होती हैं। उत्तर भारत के राज्यों की दक्षिण भारत के राज्यों के मुकाबले सेना में ठीक ठाक हिस्सेदारी है। अगर राज्य स्तर कोटा हटेगा तो जिन राज्यों से सेना में कम भर्तियाँ होती हैं, वहां से पहले से और ज्यादा कम भर्तियां होने लगेंगी। दस-पंद्रह साल बाद सेना में राज्यों के प्रतिनिधित्व का संतुलन, असंतुलन में बदल जाने की बहुत अधिक हो जाने की सम्भावना दिखती है। सेना में राज्यों के असंतुलन के मसले पर जानकार पाकिस्तान का उदाहरण देते हुए बताते कि कैसे पाकिस्तान की आजादी के बाद सेना में केवल पंजाब और सिंध के इलाके से आने वाले सैनिकों का दबदबा पाकिस्तान के विभाजन का कारण बना?
तेरहवीं कमी - सेना के जवानों में नाम, नमक और निशान के लिए मर मिटने की भावना होती है। सेना के जानकार कहते हैं कि यह भावना ही है जो सेना के लोगों को दूसरे नागरिकों से अलग करती है। यह भावना बाहर से समझ में नहीं आएगी। यह उन्हें ही समझ में आएगी जो सेना में रहते हैं। वह भी उन्हें जो सेना में लम्बा समय गुजारते हैं। चार साल के भीतर यह भावना नहीं पैदा होने वाली। उनके भीतर तो बिलकुल नहीं पैदा होने वाली जिन्हें यह सोचना पड़ेगा कि चार साल के बाद वह जिंदगी में क्या करेंगे? अगर चार साल बाद सेना से निकलने वालों के मन में यह भावना घर कर जाये कि सेना से रिटायर होने के बाद उन्हें ठेला चलाना पड़ेगा या भाजपा के दफ्तर में सिक्योरिटी गार्ड बनना पड़ेगा तो सोचिये कि उनके सैन्य मनोभावना पर कैसा असर पड़ेगा? क्या वह नाम, नमक और निशान की भावना से संचालित हो पाएंगे।
चौदवहीं कमी - अगर सेना के बैरक में यह भावना रहेगी कि चार साल के बाद उनके बीच से केवल 25 प्रतिशत सेना में रहेंगे तो उनके मन में जिस तरह की प्रतियोगिता जन्म लेगी वह सेना के लिए बहुत अधिक खतरनाक साबित होगी। सेना एक दूसरे के प्रति मदद की भावना, साझेपन के साथ रहने और एक-दूसरे के पार्टी भरोसे के बुनियाद पर टिकी होती है। सेना एक दूसरे के प्रति मदद की भावना, साझेपन के साथ करने और भरोसे के बुनियाद पर टिकी होती है। वहां पर अगर एक दूसरे के प्रति जलन, ईर्ष्या और पीछे धकेलने की भावना रहेगी तो यह सेना के लिए बहुत अधिक घातक साबित होगा।
पंद्रहवीं कमी - सबसे बड़ी कमी कि अगर चार साल के बाद सेना में जाकर कोई सेना से बाहर निकलेगा तो इसका मतलब यह है कि यह प्रवृती भारत को एक सैन्यकृत समाज में बदलने का काम करेगी। भारत जैसे विवधता वाले देश में हिन्दुत्व की राजनीति हावी होती जा रही है। इस तरह की राजनीतिक मिजाज वाले देश में समाज का सैन्यकृत होते जाना समाज को पूरी तरह से तहस नहस करने का काम कर सकता है।
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